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Sep 1, 2023

स्मरणः आलोचना की अनूठी भंगिमा - डॉ.राजेन्द्र मिश्र

- विनोद साव

एक वृहद् व्यक्तित्व 

राजेन्द्र मिश्र का जन्म 17 सितंबर 1937 को छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के अर्जुंदा में हुआ था। आपने नागपुर विश्वविद्यालय के मॉरेस कॉलेज से स्नातकोत्तर और सागर विश्वविद्यालय से पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की थी। यह वह दौर था जब रायपुर के लोग उच्च शिक्षा के लिए नागपुर या सागर जाया करते थे। मिश्र दोनों ही जगह गए। विद्यार्थी जीवन में ही मिश्र की रुचि साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में हो गई थी। आप लगभग चालीस साल तक हिन्दी के प्राध्यापक रहे।  साहित्य की अपनी गहरी समझ से उन्होंने अपने विद्यार्थियों में भी वही साहित्यिक संस्कार गढ़ा। 1997 में स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे मध्यप्रदेश शासन द्वारा पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में स्थापित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी शोधपीठ के पहले अध्यक्ष बनाए गए। इस विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्ययन शाला की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी। प्रो. मिश्र ने 'एकत्र' नामक एक संस्था भी बनाई थी, जिनमें समय-समय पर वे हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया करते थे।

आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने अनेक किताबें लिखीं और संपादित की, तो कुछ का संचयन भी किया, जिनमें 'श्रीकांत वर्मा का रचना संसार', 'नई कविता की पहचान', 'छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध', 'केवल एक लालटेन के सहारे' (मुक्तिबोध: एक अन्तर्कथा', 'आधुनिक हिन्दी काव्य', 'गांधी अंग्रेज़ी भूल गया है', 'समकालीन कविताः सार्थकता और समझ' और 'हद बेहद के बीच', 'नई कविता की पहचान', 'श्यामा-स्वप्न', 'श्रीकांत वर्मा-चयनिका', 'अभिज्ञा- तिमिर में झरता समय' आदि उल्लेखनीय हैं। वे अक्षर-पर्व रचना वार्षिकी के तीन अंकों के अतिथि संपादक भी रहे। वे अज्ञेय, निर्मल वर्मा, और विनोद कुमार शुक्ल जैसे रचनाकारों के आत्मीय थे। उन्हें मुक्तिबोध सम्मान, बख्शी सम्मान, महाकौशल कला परिषद सम्मान से भी नवाजा गया था। 

सोरिद नगर, धमतरी में व्यंग्यकार त्रिभुवन पाण्डेय से मिलने गया तब वे अपने शासकीय महाविद्यालय में थे। पाण्डेय जी कहते हैं कि ‘चलो हमारे प्राचार्य महोदय से मिलते हैं।’  कक्ष के बाहर नाम की तख्ती थी ‘डॉ.राजेन्द्र मिश्र, प्राचार्य’।  भीतर क्रीम कोट में गरिमामय व्यक्तित्व दिखे। त्रिभुवन जी जैसी कि उनकी  खास अदा थी जिसमें वे झुककर भद्रता के साथ परिचय कराते थे ‘सर, ये हमारे युवा व्यंग्यकार मित्र हैं, दुर्ग से आए हैं।’ तब मिश्र जी ने मुझे अनजानेपन से देखा और मैंने भी। हम एक ठण्डेपन के साथ बाहर हुए, तो फिर एक युवा व्याख्याता से परिचय करवाया गया। वे जयप्रकाश थे। तब से लेकर आज पर्यंत डॉ. राजेन्द्र मिश्र और जयप्रकाश अंतरंग रहे हैं। मिश्र जी जयप्रकाश की गंभीर आलोचना दृष्टि से प्रभावित रहे।

 तब मैं, युवा और वरिष्ठ इन दोनों आलोचकों से इसलिए अभिज्ञ नहीं था कि १९९३ में मेरा फकत एक व्यंग्य संग्रह आया था। और तत्कालीन आलोचना व आलोचकों की कोई भनक मुझे नहीं थी। तब से आज तक मिश्र जी से कई मुलाकातें होती रहीं। मैं उनकी भंगिमाओं से प्रभावित भी हुआ; पर यह कभी नहीं लगा कि समकालीन हिन्दी साहित्य में व्यंग्य को लेकर उनकी कोई धारणा रही होगी। जयप्रकाश प्रगतिशील आलोचक हैं; इसलिए परसाई की परम्परा के पैरोकार रहे और व्यंग्य के पक्षधर तो शायद नहीं हैं; पर व्यंग्य पर अधिकारपूर्वक बातें वे कर लेते हैं। अब वे हमारे दुर्ग के शासकीय महाविद्यालय में आ गए हैं।

 मिश्र जी से मिलने से लगता था कि वे अज्ञेय की परंपरा के कायल हैं। एक बार रायपुर एक मित्र की बेटी के वैवाहिक कार्यक्रम में जाते हुए उनके घर के पास से निकला, तब उनसे मिलने का सुयोग बना था। वे आत्मीयता से मिले और उन्होंने मुझे खजूर के गुड़ से पागे गए नारियल के लड्डू खिलाए, जो उनके कलकत्ता के किसी प्रेमीजन ने भिजवाए थे। मिश्र जी का एक आलेख ‘कलकत्ता का अनुवाद नहीं हो सकता’ शीर्षक से भी है जिसमें उन्होंने कलकत्ता की सेंट्रल लाइब्रेरी में जाकर कलकत्ता के पठन- पाठन व पुस्तक संस्कृति को सिलसिलेवार ढंग से स्मरण किया था। एक बार रायपुर साहित्य महोत्सव में भोजन के समय उनके मित्रों के साथ हम सब साथ थे। जिसमें निरंजन महावर, विनोदकुमार शुक्ल, डॉ. राजेन्द्र मिश्र के साथ मैं और अशोक सिंघई भी बैठे हुए थे।

 घर में डॉ. मिश्र धीमे- धीमे अज्ञेय और उनकी यायावरी और उनकी स्मृति परंपरा पर विस्तार से बातें करते रहे। मैंने उन्हें बताया कि अज्ञेय के पत्रों का एक संकलन है, जिसमें उनका लिखा एक पत्र आपके नाम भी है। यह सुनकर उन्हें अच्छा लगा। कनक तिवारी ने अपने राजनीतिक कार्यकाल में जिन दो सृजन पीठों की स्थापना करवाई थी, उनमें से एक भिलाई में बख्शी सृजन पीठ में प्रमोद वर्मा अध्यक्ष हुए थे और बख्शी शोध पीठ में डॉ. राजेन्द्र मिश्र अध्यक्ष मनोनीत हुए थे। प्रमोदजी को आलोचना जगत में मार्क्सवादी आलोचक भी माना जाता है। वे मुक्तिबोध और परसाई के मित्र रहे हैं। राजेंद्र जी ने अज्ञेय और विनोदकुमार शुक्ल का सान्निध्य ज्यादा पसंद किया। इन दोनों अध्यक्षों की आलोचना दृष्टि में भेद होने के बावजूद बौद्धिक धरातल पर ये दोनों अज्ञेय को गुरु मानते रहे हैं।

 यह अज्ञेय का ही प्रभाव रहा कि राजेन्द्र मिश्र की मित्र मंडली में निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी और विनोद कुमार शुक्ल रहे। निर्मल वर्मा को अज्ञेय के बाद स्मृति परम्परा का महत्त्वपूर्ण लेखक माना जाता है। अशोक वाजपेयी तो अज्ञेय पर मुग्ध रहे ही रहे। यह यदा कदा उनके वक्तव्यों से प्रमाणित होता रहा है। एक बार मिश्र जी ने दबे स्वर में यह भी कहा दिया था कि ‘गद्य और पद्य दोनों में एक साथ विपुल लेखन में अज्ञेय के बाद दूसरा नाम विनोद कुमार शुक्ल का है।’

 बख्शी शोध पीठ के आयोजन में उन्होंने निर्मल वर्मा को बुलाकर बहुत उम्दा व्याख्यान करवाया था। तब अपने अंतिम समय से कुछ पहले रायपुर पहुँचे यायावर कथाकार निर्मल वर्मा ने अपनी स्वप्निल आँखों से झरते उद्बोधन में कहा था कि “जब धर्म और राजनीति अपने रचनात्मक अभिप्राय से चूक जाते हैं तब साहित्य की अकेली आवाज होती है।” उनका आशय था कि यह साहित्य ही है जो मनुष्य को जोड़ने और देश के हर अलगाव वाद के खिलाफ आवाज उठाने में निरन्तर जुटा हुआ है।

 निर्मल वर्मा के इस भावप्रवण व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर सत्र में पहला प्रश्न मैंने पूछा जिसका निर्मल जी ने जवाब दिया था। घर में जब मिश्र जी ने अपने द्वारा सम्पादित ‘एकत्र’ का अंक दिया तब वह निर्मल वर्मा पर विशेष अंक था जिसमें मेरा प्रश्न और निर्मल जी के जवाब दोनों शामिल थे। मुझे दी गई एक पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर निर्मल वर्मा की एक पंक्ति है “मैं पहले भी यहाँ आया हूँ।” रायपुर में निर्मल जी का यह दूसरा छत्तीसगढ़ प्रवास था। इसके पहले वे बस्तर आए हुए थे।

 एक बार ‘अक्षरपर्व’ में प्रकाशित मेरे यात्रावृत्तांत ‘नहाती, नहलाती, सह्याद्र’ को पढ़कर राजेन्द्र मिश्र जी का सवेरे-सवेरे ही फोन आ गया था। संभवतः उस रचना को पढ़कर या उसके शीर्षक में भी अज्ञेय की यायावरी जैसी कोई गूँज उन्हें सुनाई दी होगी। पर मैं जानता हूँ कि मुझमें अज्ञेय की किसी भी परंपरा का तनिक भी अनुशीलन नहीं है। बल्कि असहमतियों के पुंज अज्ञेय को लेकर पीढ़ी का अंतराल होते हुए भी अनेक लोगों के बीच उनसे मेरी भी असहमतियाँ रही हैं और मेरे संग्रह का पहला लम्बा 

आलोचनात्मक आलेख उन पर केन्द्रित है जिसका शीर्षक है ‘साहित्य के हैंगिंग गार्डन में टैगोर, जैनेन्द्र, अज्ञेय और अशोक वाजपेयी।’

 आलोचना के एक वृहद् व्यक्तिव डॉ. राजेंद्र मिश्र का गत वर्ष चले जाना हिन्दी आलोचना की एक भंगिमा विशेष का जाना है। उनका यह अवसान हमारे आसपास आलोचना जगत में वैसी ही बड़ी क्षति है जैसी क्षति प्रमोद वर्मा के अवसान पर हुई थी।

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सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001,  ई-मेल: vinod.sao1955@gmail.com, मो. 9009884014


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