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May 1, 2023

लघुकथाएँः 1.पहरे पर संतरी, 2.नोट, 3. मुक्ति

 1. पहरे पर संतरी 
 -  आनंद हर्षुल

संतरी पहरे पर था। उसकी बंदूक पहरे पर थी। वह पहरे पर इसलिए था कि उसे पहरे पर होने का वेतन मिलता है।
सतंरी जिसके पहरे पर था, वह चीज उसकी पीठ के पीछे थी और इस तरह वह अपनी पीठ के पीछे की चीज के लिए जवाबदेह था। संतरी अपने सामने की बस, उस चीज को देख पाता था, जो सामने की बस, उस चीज के लिए खतरा हो सकती थी। उसकी बंदूक का देखना और उसका देखना एक जैसा था।
एक दिन संतरी के सामने बलात्कार हुआ। अँधेरा...तीन चमकते लड़के...कार....एक बुझी हुई लड़की..... और संतरी को वह नहीं दिखा, क्योंकि उसकी पीठ के पीछे की चीज को उस बलात्कार से कोई खतरा नहीं था।
एक दिन एक लड़का संतरी के पैरों को और उसकी बंदूक को झकझोरता रहा कि उसे बचा लें। पर संतरी और बंदूक -दोनों को वह नहीं हिला पाया और मारा गया। चार गुंडों ने उसे संतरी की आँखों के सामने काट डाला। वह गरीब पावभाजी बेचने वाला लड़का था। उसका दोष सिर्फ इतना था कि अपने ठेले में पावभाजी खाती लड़कियों से छेड़छाड़ करते गुंडो का विरोध किया था और उसने अपनी जान दे दी थी। किसी स्त्री से बलात्कार के खिलाफ वह लड़का जान से बड़ी कोई चीज दे सकता था।
संतरी अपना काम कायदे से करता है। उसकी पीठ के पीछे की चीज सुरक्षित है वह बहुत कर्तव्यनिष्ठ संतरी है, पर वह आदमी नहीं है। वह रोबोट है।■■

 2.  नोट
   -  अवधेश कुमार


उन्होंने
मेरी आँखों के सामने सौ का एक नोट लहराकर कहा, ‘‘यह कवि-कल्पना नहीं इस दुनिया का सच है। मैं इसे जमीन में बोऊँगा और देखना, रुपयों की एक पूरी फसल लहलहा उठेगी।’’
मैंने उस नोट को कौतुक और उत्सुकता के साथ ऐसे देखा जैसे मेरा बेटा पतंग देखता है।
मैंने उस नोट की रीढ़ को छुआ, उसकी नसें टटोलीं। उनमें दौड़ता हुआ लाल और नीला खून देखा।
उसमें मेरा खाना और खेल दोनों शामिल थे।
उसमें सारे कर्म, पूरी गृहस्थी, सारी जय और पराजय शामिल थी। भय और अभय, संचय और संशय, घात और आघात, दिन और रात शामिल थे। मुझे हर कीमत पर अपने आपको उससे बचाना था। 
मैंने उसे कपड़े की तरह फैलाया और देखना चाहा कि क्या वह मेरी आत्मा की पोशाक बन सकता है ?
उन्होंने कहा, ‘‘सोचना क्या और इसे पहन डालो। यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ढक सकता है।’’■■

 3. मुक्ति
 -  अर्चना वर्मा

घर के बाहर निकलते ही जुगनू को अँधेरा मिला और उसे अपनी रोशनी अलग से दिखाई दी। थोड़ी दूर आने के बाद उसने पीछे मुड़कर अपना घर देखा। जंगल में वह पेड़ जिस पर जुगनुओं का खत्ता था, लाखों लाख जुगनुओं से दिप रहा था। वहाँ उसे कभी अहसास ही नहीं हुआ था कि उसके पास अपनी अलग से एक रोशनी है। वह अँधेरे का कृतज्ञ हुआ और अपनी रोशनी पर गर्वित। बहुत देर वह जंगल के घने घुप्प अँधेरे में रोशनी की पगडंडियाँ बनाता रहा। किसी पेड़, किसी पौधे, किसी लता, कभी किसी झाड़-झंखाड़ या पथरीली चट्टान पर ही, वह दिप्प से सुलगकर उसे अपनी रोशनी से चौंका देता और हँसता हुआ भाग खड़ा होता। बहुत धीमी, नीली-सी ठंडी चिनगारी भर रोशनी उसके  पास थी मगर उसे रास्ता दिखाने भर को, पेड़,पत्थर और झाड़-झंखाड़ से टकराने से बचा  लेने भर को काफी थी। उसे और कुछ नहीं चाहिए ।

 खिलवाड़ में उसे पता ही नहीं चला, कब वह जंगल के पार निकल आया। दूर एक खिड़की थी, खुली हुई, अँधेरे की छाती को रोशनी की सुरंग से छेदती हुई। जुगनू ने देखा और बढ़ चला। रोशनी उसे उमंग से भर गई। उसे याद नहीं आया कि फिर उसकी अपनी रोशनी छिप जाएगी और वह अपने को अँधेरे में खोज चुकने के बाद फिर रोशनी में खो जाएगा। या कौन जाने, अपने आपको खोज चुकने के बाद अपने आपको खो देने की ही उमंग मन में जागी हो।

 उस सुनहले चौखटे में घुसकर वह रोशनी में डूबा, उतराया, भीगा, नहाया। पट की एक आवाज आई और अचानक सब अँधेरे में  डूब गया। अँधेरे की छाती में सुरंग खोदन वाले सत्य को अपनी रोशनी पर कोई अधिकार नहीं था। कोई भी हाथ उसे स्विच दबाकर बंद कर सकता था।

अब फिर अँधेरा था। जुगनू था। जुगनू के पास उसकी अपनी रोशनी थी और मन में खुद को खो देने की विकलता थी। उसने सोचा, वापस लौट चले लेकिन बाहर निकलने का कोई रास्ता सुझाने के लिए उसकी अपनी रोशनी काफी नहीं थी। स्विच दबाने वाले हाथ ने खिड़की बंद कर दी थी। खिड़की के अँधेरे काँच से जुगनू टकराया तो उसे अपनी हताश रोशनी की बूँद भर परछाई दिखी, बंद दरवाजों,बंद खिड़कियों और दीवारों से घिरे उस अँधेरे में जुगनू की रोशनी के पास फैलने भर की जगह भी नहीं थी।

अब न उसके मन में अंधेरे के लिए कृतज्ञता थी, न अपनी रोशनी पर गर्व। मुक्त न हो पाने की टीसता हुआ अहसास था, बस। ■■

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