यह सोचना सच में अचरज भरा है कि कोमल और दयालु स्वभाव के स्वामी राम उस धनुष को मोड़कर कैसे तोड़ देते हैं जिसपर उन्हें केवल प्रत्यंचा ही चढ़ानी थी! यह धनुष मिथिला की प्राचीन राजसत्ता का प्रतीक है। धनुष तभी तक उपयोगी है जब इसकी प्रत्यंचा न तो अधिक ढीली हो और न ही अधिक कसी हुई हो। सुकुमार राम द्वारा इसे यों ही तोड़ देने के पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्य है; क्योंकि यह कोई साधारण धनुष नहीं था। यह सृष्टि के संहारक महायोगी शिव का धनुष था।
अयोध्या में राम के आगमन पर उनके पिता राजा दशरथ यह विचार व्यक्त करते हैं कि वे अब बूढ़े हो चले हैं और उन्हें राजपाट अपने ज्येष्ठ पुत्र के हवाले कर देना चाहिए। दुर्भाग्यवश राजतिलक की सारी तैयारियों पर पानी फिर जाता है। राजमहल में घटनेवाली बातों के कारण राम को वनवास के लिए अयोध्या छोड़नी पड़ती है। क्या शिव के धनुष के टूटने और राम को राज्य न मिलने की घटना में कोई संबंध है? रामायण में इसपर कोई चर्चा नहीं की गई है; लेकिन यह प्रश्न बहुत रोचक है। चाहे जो हो, हिन्दू कथानकों में कई प्रतीकात्मक बिंदु हैं और इस संबंध के विवेचन की भी आवश्यकता है।
• राम के द्वारा शिव के धनुष को खंडित कर देना संभवतः इस बात का प्रतीक है कि राम ने कामनाओं और आसक्तियों का खंडन कर दिया है; क्योंकि महायोगी शिव स्वयं अनासक्ति के देवता हैं। क्या इसीलिए राम को राजा नहीं बनाया जाता है? क्या इसीलिए उन्हें चौदह वर्ष के वनवास पर भेजा जाता है, ताकि वे अपने भीतर कुछ मोह-माया लेकर लौटें? ध्यान दें कि चौदह वर्ष के बाद रावण के वध के उपरान्त राम के व्यवहार में हमें कैसा विचित्र आवेश दिखता है। वे सीता से कहते हैं कि उन्होंने रावण का वध सीता को पाने के लिए नहीं बल्कि धर्म की रक्षा और अपने कुल की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए किया। इससे यह प्रतीत होता है कि शीघ्र ही राजा बनने जा रहे व्यक्ति के लिए यह अशोभनीय था कि वह अपनी पत्नी के प्रति अपने भावनाओं को सबके समक्ष व्यक्त करे। उसे प्राप्त करने के लिए धनुष को खंडित करते समय तो उसने अपने मनोभावों का प्रकटन किया, पर ऐसा वह दुबारा नहीं करेगा।
प्राचीन दृष्टों ने राजाओं से ऐसी ही अनासक्ति की अपेक्षा की थी। यहाँ राजत्व का महत्त्व परिवार से भी बढ़कर था। यही कारण है कि राम को सर्वोच्च पदवी पर आसीन कर दिया गया। आज शायद हम इन विचारों से सहमत न हो सकें; लेकिन यह स्पष्ट है कि महाकाव्य में वर्षों तक निर्जन वन में विचरण करने को त्रासदी की भाँति नहीं, बल्कि ऐसी कालावधि के रूप में देखा गया है, जिसमें राम राजमुकुट का भार वहन करने योग्य बन रहे हैं।
निर्जन वन में पकने/विकसित होने की यही थीम महाभारत में दोहराई गई है। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ का राज्य स्थापित करने में पांडवों की सहायता करते हैं; पर वे पाँचों भाई मूर्खतापूर्वक जुए में अपना सब कुछ हार जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप उन्हें तेरह वर्ष का वनवास मिलता है। वन में जब युधिष्ठिर अपने भाग्य का रोना रोते हैं, तो महात्मा उन्हें स्मरण कराते हैं कि श्री राम ने भी दोषहीन होते हुए उनसे एक वर्ष अधिक का वनवास झेला। महात्मा पांडवों से कहते हैं कि अपना सर धुनने की बजाय इस अवधि को नए कौशल सीखने में लगाएँ। पांडव नई चीज़ें सीखते हैं। शिव के वेश में साधारण आखेटक से द्वंद्व में परास्त होकर अर्जुन नम्रता सीखते हैं, बूढ़े वानर (हनुमान) की पूँछ उठा पाने में असमर्थ होने पर भीम का गर्व चूर हो जाता है और उसमें दीनता आती है। अज्ञातवास के एक वर्ष की अवधि में सभी पांडव बंधु अपने मान-अपमान को ताक पर रखकर साधारण नौकर-चाकरों की भाँति दूसरों की सेवा करते हैं। इतना सब होने के बाद ही वे महाभारत के महायुद्ध में कृष्ण की अगुवाई में अपने शत्रुओं का दमन कर पाते हैं।
कॉरर्पोरेट जगत में अपना मुकाम बना चुके अधिकतर लीडर्स भी कभी-न-कभी अपना वनवास काट चुके होते हैं। किसी CEO, या सफल उद्यमी से बात कीजिए और आप देखेंगे कि उनकी आँखें सालों तक कॉरर्पोरेट के बीहड़ में बिताये वक़्त की दास्ताँ बयान करतीं हैं। यह वह वक़्त था जब कोई उन्हें पूछता नहीं था, उन्हें पीछे धकेल दिया जाता और उनके काम की कीमत तक नहीं दी जाती थी। उनसे भय खानेवाले दोयम दर्जे के लोग उन्हें ताकत और दौलत से दूर कर देते थे। वे आपको उन दिनों के बारे में बताएँगे जब लोग उन्हें नवागंतुक या उससे भी बुरा… गया बीता जानकर व्यवहार करते थे। यह अफसोसनाक है पर बहुत से लीडर्स अपने जीवन के इस दौर को सकारात्मकता से नहीं लेते। इससे उनमें असुरक्षा की भावना आ जाती है और वे कड़वाहट से भर जाते हैं। अपनी ही राख से फिर जीवित हो जाने वाले पौराणिक फीनिक्स पक्षी बनने की बजाय वे विशाल वटवृक्ष बन जाते हैं, जो सबको शीतलता तो देता है; पर अपने नीचे घास का एक तिनका भी नहीं पनपने देता।
यह देखने में आया है कि किसी मंझोली कंपनी का लीडर अपने टीम के सदस्यों में यह भावना भरने में रुचि लेता है कि वे शक्तिशाली हैं। पर सच्चाई यह है कि निर्णय लेते समय वह निपट अकेला होता है। उसने अपने नीचे किसी प्रतिभा समूह या दूसरी कमान का विकास नहीं किया है। यदि आप उससे इस बारे में पूछेंगे, तो वह इस प्रत्यक्ष सत्य को स्वीकार करने से ही इनकार कर देगा। उसे शायद इसका पता ही नहीं है। एक समय ऐसा भी था, जब वह किसी तेजी से विकसित हो रही कंपनी में मार्केटिंग विभाग का मुखिया था। लेकिन जब उस कंपनी में नए CEO ने काम सँभाला, तो वह उसका विश्वासपात्र नहीं बन सका और छँटनी के योग्य बन गया। उसे किसी दूर देश में बड़े पदनाम के साथ मामूली काम निपटाने के लिए तीन साल के लिए भेज दिया गया। उस तीन वर्षों में वह कॉरर्पोरेट निर्जनता में बिखर गया। उसके भीतर कड़वाहट, खीझ, एवं गुस्सा भर गया और उसने तय कर लिया कि वह लड़ेगा और विजेता बनकर दिखाएगा। इसी जूनून में उसने अपना पद छोड़ दिया और नई कंपनी में प्रवेश किया। वर्षों तक संघर्ष करने के बाद अब वह बहुत बड़ी कंपनी में बड़ी जिम्मेदारी का पद सँभाल रहा है और उन लोगों से भी बेहतर स्थिति में है, जिन्होंने उसे कभी छँटनी के लायक समझा था। अपनी गौरवपूर्ण वापसी के हर क्षण को वह आनंदपूर्वक भोगता है। उसने सबको अपना महत्त्व जता दिया है।
लेकिन इन घटनाओं ने उसे बहुत बदल दिया है। वह अब पहले की भाँति उदार नहीं रहा। उसे हर कोई खतरा जान पड़ता है। उसे आपने सहयोगियों से विश्वासघात का भय है। कंपनी में उसके कामकाज के तौर- तरीके यह ज़ाहिर करते हैं कि उसमें निराशा घर करती जा रही है। अपने संघर्ष के दिनों में उसमें जो आशावादिता थी, वह अब कहीं नज़र नहीं आती। कभी वह शिकार था और अब वह शिकारी बनकर अवांछित निर्वासन और प्रतिशोधात्मक वापसी के चक्र को गति दे रहा है।
हमारे ग्रंथों में ऐसे संकीर्णमना नायकों की निंदा की गई है। ऐसे लक्षण उनके चरित्र के उथलेपन और आस्थाहीनता को प्रदर्शित करते हैं। दोनों महाकाव्यों में वनागमन को शक्ति-संसाधन और पौरुषपूर्ण वापसी के अवसर के रूप में देखा गया है। यदि राम वन को नहीं जाते, तो रावण का दमन नहीं होता और यदि पांडव वनवास नहीं करते, तो उनके भीतर आपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का नैतिक बल उत्पन्न नहीं होता। अंततः दीर्घकाल तक गौरवपूर्ण शासन करने के उपरांत राम और पांडवों ने राजसत्ता अपनी अगली पीढ़ी के सुयोग्य व्यक्तियों को सौंप दी और यह दर्शाया कि हर नायक को एक-न-एक दिन राजपाट को तिलांजलि देनी होती है।
(श्री देवदत्त पटनायक का यह आलेख अंग्रेजी अखबार कॉरपोरेट डॉज़ियर ईटी में प्रकाशित हो चुका है। उनकी अनुमति से इसका हिंदी अनुवाद करके यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। (हिन्दीज़ेन से ) ■■
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