1.भँवर
उगते सूर्य का मनोरम दृश्य मुझे सागर के किनारे खींच कर ले गया। आसमानी झील में खिलता लाल कमल ,जैसे नवेली दुल्हन शर्माते हुए धीरे-धीरे चली आ रही हो। थोड़ी ही देर में सारी सृष्टि सुनहरी किरणों से सुसज्जित हो इठलाने लगी । पेड-पौधे,फूल-पत्तियाँ किरणों को चूमने लगे। पक्षी चहचहाने लगे ।नहाने के लिए किरणें लहरों पर उतर आईं, उस समय ऐसा लग रहा था मानों वे खुशी से नृत्य कर रही हों। मंद- मंद बहती पवन, लहरों का ऊँचा उठना और फिर नीचे गिरना मन को आकर्षित कर रहा था । ऐसा दृश्य देख कर मेरा मन मचल उठा। लहरों में झूलती उन किरणों को छूने का लालच मन में आ गया। जो अब चाँदी की तरह लहरों पर चमक रही थीं। मैं पानी में उतर गई। लहरों के संग खेलती आगे बढ़ती गई, उनका स्पर्श मुझे रोमांचित करने लगा लेकिन मैं यह भूल गई कि जितना आगे बढ़ रही हूँ उतनी ही सागर की गहराई और लहरों की ऊँचाई बढ़ रही है पर मैं रुकी नहीं , आगे बढ़ती ही गई, अब पानी मेरी कमर तक आ गया था और फिर जैसे ही एक उफनती हुई लहर मेरे पास आई, रेत मेरे पाँवों के नीचे से खिसक गई। मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं नीचे गिर गई। अब केवल मेरा सिर बाहर था। मैंने उठने की कोशिश की; लेकिन उठ नहीं पाई, घुटनों पर दबाव के कारण फिर से गिर गई। मेरे आसपास कोई नहीं था, जिसे आवाज़ देकर सहायता माँग लेती। सागर में नहाता हुआ सूरज भी आगे बढ़ गया था। थोड़े ही समय में कितनी ही लहरें मेरे ऊपर से निकल गईं। हर बार लगता ये लहरें मुझे निगल जाएँगी। मृत्यु की शंका मुझे भयभीत करने लगी। मुझे इस दुनिया का मोह, उत्तरदायित्वों का भँवर अपनी ओर खींचने लगा और मैं लहरों की तरह उठती गिरती रही।
मैं प्रकृति का उत्सव देखने आई थी; लेकिन मृत्यु के भय ने सब कुछ भुला दिया। मुझे तैरना नहीं आता, फिर भी मैं उठने की अपेक्षा पानी में लेट कर हाथ -पाँव मारने की कोशिश करने लगी। मेरी कोशिश कामयाब होने लगी। मैं पहली लहर के साथ आगे बढ़ी। दूसरी लहर के साथ थोड़ा और आगे हुई और फिर धीरे -धीरे मैं उनके साथ- साथ किनारे की ओर बढ़ने लगी थी। मेरे प्रयास ने मुझे किनारे पर पहुँचा दिया, जहाँ जीवन खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने सागर को ओर देखा, लहरें अब भी अठखेलियाँ कर रही थी। किरणों ने अपना सौन्दर्य खो दिया था और अब उष्मा दे रही थीं। प्रकृति वैसे ही मुस्कुरा रही थी। मैं सागर के किनारे बालू पर निढाल लेट गई। मृत्यु मेरे पास से निकल गई थी; लेकिन उसका अहसास मेरे अन्तर्मन को अभी भी छू रहा था। मृत्यु जीवन का सत्य है और मोह जीवन का भँवर है, मृगतृष्णा है।
मृत्यु का डर
मृत्यु से भयावह
डराता मन।
2 . दूसरा कबूतर
मेरे घर की रसोईघर के सामने की दीवार पर सूर्योदय से पहले ही कबूतरों का एक जोड़ा बैठता था। वे दोनों थोड़ी देर किलोल करते, और फिर उड़ जाते। मैंने उन्हें दाना डालना शुरू कर दिया। वे इधर-उधर देखते, नीचे उतरते,दाना चुगते,कटोरे में रखा पानी पीते और दीवार पर जा बैठते हैं। यह क्रम कई दिन से चलता आ रहा है। मुझे भी सुबह- सुबह उन्हें देखने की आदत हो गई है। किसी दिन भूल जाऊँ या देर से किचन में आऊँ, तो वे गुटरगूँ करके, पंख फड़फड़ाकर मुझे याद दिला देते हैं। अब मेरी दिनचर्या कबूतरों को दाना डालने से शुरू होने लगी है। कभी- कभी ऐसा होता है कि जब मैं दाना डालती हूँ , एक ही कबूतर दीवार पर बैठा होता है; लेकिन वह तब तक नीचे नहीं उतरता, जब तक दूसरा न आ जाए। दूसरे के आते ही वे दाना चुगने में व्यस्त हो जाते हैं। प्यार और सहयोग की भावना तो पक्षियों में भी होती है।कल एक ही कबूतर दीवार पर बैठा था। मैंने दाना फैला दिया, सोचा दूसरा कबूतर आएगा, तो चुग लेंगे। पर दूसरा कबूतर बड़ी देर तक नहीं आया। मेरा ध्यान बार-बार उसकी ओर जा रहा था। मैंने देखा उसकी आँखें पनीली थीं। पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि जैसे वह मुझसे कुछ कहना चाहता है, कुछ बताना चाहता है; पर निरीह पक्षी बोल तो सकता नहीं। अपना दर्द ,अपनी भावनाएँ कैसे बताये। मैं अपने कामों में व्यस्त हो गई। थोड़ी देर बाद यूँ ही मैंने खिड़की के नीचे झाँककर देखा, तो वहाँ कबूतर के पंख फैले हुए थे ।लगता है, बिल्ली जो कुछ दिन से घर के बाहर घूम रही थी, कबूतर उसका शिकार हो गया है। दूसरा कबूतर दीवार पर बैठा अभी भी मेरी ओर देख रहा था और फिर बिना दाना खाए वहाँ से उड़ गया। मेरा मन पीड़ा से भर गया।
निरीह पक्षी
किससे कहे पीड़ा
दिल तो रोता।
3. पट्टे का दर्द
मालकिन जब भी कहती हैं, “कूरो ,चलो घूमने चलें।” मेरा मन बल्लियों उछलने लगता है। एक यही तो समय होता है, जब मैं आज़ादी की साँस ले सकता हूँ ; लेकिन मेरी आधी उत्सुकता वहीं समाप्त हो जाती है ,जब वह कहती हैं, “ कूरो, अपना पट्टा लाओ, पहले पट्टा बाँधेंगे फिर बाहर चलेंगे।” सारा दिन मुँह उठाए एक कमरे से दूसरे कमरे में घर के बंदों को सूँघता घूमता रहता हूँ। बाहर से कोई आता है, तो मैं अजनबी को देखकर भौंकने लगता हूँ तब मैडम मुझे कमरे में बंद कर देती हैं और यह सजा घंटों चलती है। खाना नहीं खाता, तो कहती हैं ,खाना नहीं खाओगे, तो नीचे कुत्तों को दे आऊँगी।” भूखे रहने के डर से खा लेता हूँ । कभी-कभी बालकनी में जाता हूँ, तो वहाँ लगी लोहे की सलाख़ों में से सिर निकालकर नीचे झाँकने की कोशिश करता हूँ-चौबीसवीं मंज़िल से मुझे कुछ दिखाई तो देता नहीं, सिर और चकराने लगता है। बस नीचे से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें सुनाई देती हैं; इसलिए पट्टा बाँधकर ही सही, बाहर जाने को तो मिलता है।लिफ़्ट से निकलते ही तेज़ कदमों से बाहर जाने की कोशिश करता हूँ। कितना अच्छा लगता है। मेरे जैसे और भी अलग-अलग नस्लों के कुत्ते अपने- अपने मालिकों के साथ घूमते मिल जाते हैं। पर मैडम मिलने नहीं देती। बस अपनी सहेली के कुत्ते से बात करने देती हैं। “कूरो, देखो ऑस्कर तुम्हारा दोस्त, मिलो इससे।” पर मुझे ऑस्कर अच्छा नहीं लगता। बड़ा अकड़ू है। है भी तो मुझसे कितना बड़ा। खेलते हुए मुझे दबोच लेता है। कई बार तो खरोंचें भी मार देता है। अभी तो अच्छा है, मेरे बाल घने हैं। चोट कम लगती है।
मैडम प्यार तो करती हैं ; लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है, वह नहीं करने देतीं। मेरा दिल चाहता है- वह मेरा पट्टा खोल दें और मैं भागकर अपने दोस्तों से मिल लूँ ।जानते हैं आप मेरे दोस्त कौन हैं। अरे! वही जिनकी आवाजें मैं बालकनी से सुनता हूँ। मुझे नीचे आया देख वह मेरे आगे-पीछे चलने लगते हैं। मुझसे मनुहार करते हैं। मैं भी उनसे लिपटने, खेलने की कोशिश करता हूँ ; पर मैडम मेरा पट्टा खींचकर कहती हैं, “नो कूरो, डर्टी डॉगी ।” मैं उनकी बात कहाँ सुनता हूँ। पट्टा खींचते-खींचते भी उनके साथ खेल लेता हूँ, बात कर लेता हूँ। जब वह मेरा पट्टा देखकर हँसते हैं, तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है । मैं कहता हूँ, “पट्टा है तो क्या हुआ , अच्छा खाना तो मिलता है।” पर वो सब-से बड़ा ब्राउनी हमेशा कहता है ,पट्टे से तो भूखा रहना बेहतर है।” शायद वह ठीक कहता है। कितनी आज़ादी से घूमते हैं ये सब, लेकिन उनके भूखे रहने से मैं दुखी हो जाता हूँ , इसलिए कई बार मैं अपना खाना जानबूझकर नहीं खाता। तब मैडम वही खाना इनको दे देती हैं। मुझे अच्छा लगता है। जब मेरे दोस्तों को भरपेट खाना मिल जाता है, तब मैं अपने पट्टे के दर्द को भूल जाता हूँ।
मूक ये प्राणी
विचित्र है मित्रता
सीखो मानव।
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