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Oct 1, 2022

लघु कथाः सवाल माँ का

- श्याम सुन्दर अग्रवाल
चौराहे
पर किसी को देखने हेतु ड्राइवर ने गाड़ी रोकी। तभी वह बुढ़िया हाथ में कुछ लम्बे-लम्बे बालपैन लिये कार के पास आई। वह दरवाजे के काँच को ठकठका कर बालपेन लेने को कह रही थी। न मैंने
, न ड्राइवर ने शीशा खोला।

कुछ सोचते हुए मैंने ड्राइवर से पूछा, "कितने का होगा एक पेन?"

"होगा यही पाँचेक रुपये का जी, पर हमने क्या करने हैं।"

बात तो उसकी ठीक थी। मेरे बच्चे बड़े थे और वे ऐसे पेन कहाँ प्रयोग करते थे।

ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ा ली। मन में चल रही कशमकश थी तो मैंने उसे गाड़ी पीछे लेजाने को कहा। एक पुरानी-सी पतली साड़ी में लिपटी वह औरत फुटपाथ पर खड़ी थी। उस अति कमजोर बुढ़िया को मैं टकटकी लगाकर देख रहा था।

"क्या देख रहे हो साब?" ड्राइवर ने मेरी तन्द्रा भंग की।

"कुछ नहीं," कह मैंने उस औरत को इशारे से बुलाया।

"कितने का एक?"

"दस का एक जी।"

मैंने जेब से सौ रुपये का नोट निकाल उसे देते हुए कहा, "पाँच दे दो।"

"साब, खुले पैसे दो न, अभी बोनी नहीं की।"

"खुले पैसे तो मेरे पास भी नहीं है, चलो दस दे दो।"

"इतने क्या करेंगे साब?" ड्राइवर बोला।

"वह रास्ते में सरकारी स्कूल है न, वहाँ बच्चों को दे देंगे।"

अगले दिन बिना काम के ही उस चौराहे से निकला और उस औरत से तीस पैन लेकर स्कूल में दे दिए।

ड्राइवर बोला, " साहब, इतने ही खरीदकर स्कूल में देने हैं, तो होलसेल वाले से सस्ते मिल जाएँगे। "

" मुझे पता है। थोक में तीनेक रुपये का होगा।

" फिर साहब!

" मगर खरीदने तो यहाँ से हैं।

"क्यों साहब?"

"रतन...सवाल न पैन का है, न रेट का है; सवाल तो उस माँ के पेट का है।"

मेरी नजर में अभी भी मेरी माँ जैसी दिखती वह वृद्ध औरत घूम रही थी।

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