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Dec 12, 2019

चालीस साल की लड़की

चालीस साल की लड़की                 
- विनोद साव                                               
इलाका बहुत साफ सुथरा था । जहाँ एक ओर से आती हुई ढलान खत्म हुई थी वहाँ एक तिगड्डा बनता था। ढलान की ओर से आती हुई सड़क सीधे कुछ साफ सुथरी नई बसी हुई कॉलोनियों की ओर चली गई थीं। तिगड्डे को अंग्रेजी के टी अक्षर सा आकार देती जो बीच वाली तीसरी सड़क थी वह सरकारी मारतों और उसमें नये बने विभागों व मंत्रालयों की ओर निकलती थीं। इस तीसरी सड़क के बीचोंबीच पार्टीशन था जिससे आने और जाने के अलग अलग रास्ते नियत थे। उसने एक साफ सुथरी सड़क पार की और बॉयी ओर की सड़क में आकर वह चलने लगा था।
थोड़ी देर पहले रेडियो पर अपनी रिकार्डिंग करवा लेने के बाद प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव के कमरे में रखे फोन से उसने बात करना चाहा था। कम्पयूटर पर काम कर रहे एक नौजवान को उसने पूछा था मैं यहाँ से फोन कर सकता हूँ नौजवान ने कहा हाँ.. लेकिन पहले जीरो डायल कर लीजिए।उसने वैसा ही किया।  डॉयल टोन आ जाने के बाद उसने मनचाहा नम्बर घुमा दिया था जो किसी के मोबाइल का था।
हैलो..उस ओर संध्या की आवाज थी जो बडे धीरे से आई। यह शाम तक काम करने वाले किसी स्टाफकर्मी की थकी थकी आवाज जैसी थी।
मैं हुलाश बोल रहा हूँ।उसने भी धीरे से कहा ताकि कम्प्यूटर पर काम करता वह नौजवान सुन न सके। उस ओर थोड़ी देर सन्नाटा रहा जैसे वह बोलने वाले के नाम को पकड़ने की कोशिश कर रही हो। उसकी प्रौढता में नौजवानों जैसी चहक पैदा हुई जो उसकी आवाज को पहचान जाने का प्रमाण थी थोड़ा वक्त मुझे और लगेगा।उस ओर से आवाज आई।
मुझे लौटना भी है। जल्दी मिल जाएँगी तो देर तक बातें करेंगे।हुलाश के मुँह से निकला यह सोचते हुए कि देर तक शब्द उसे बोलना था या नहीं !
देर तक बातें करेंगे!उस ओर से हँसी मिश्रित आवाज खनकी तब लगा कि उसने कोई धृष्टता नहीं की है। फिर आवाज आई मुझे डेढ़ घण्टे तो लग ही जाएँगे। आपको पता तो है ना.. कहाँ आना है
बस.. यही कारण था उसके सड़क पर आ जाने का और सड़क की बाईं ओर पैदल चलने का। उसके पास डेढ़ घण्टे का समय था। अब छह से पहले क्या मुलाकात होगी। उसने सड़क पर आती हुई एक बस को सीटी बस समझ कर रोकने की कोशिश की पर वह नहीं रुकी। वह शायद कोई स्टाफबस थी। बस के नहीं रुकने से उसने अपना निर्णय भी बदल दिया कि अब  बस से उसे नहीं जाना है। किसी रिक्शे से भी नहीं। इस तरह के प्रतिबंधित क्षेत्र में कोई रिक्शा दिखता नहीं। लेकिन दिख जाए तो भी नहीं जाना है।
अब वह सड़क की बॉयी ओर बने फुटपाथ पर चलने लगा। शहर उसका जाना पहचाना था वह अक्सर यहाँ आते रहता है। फिर भी अपने भीतर शहर को लेकर एक अजनबीपन उसने बनाए रखा ताकि शहर उसे नया नया सा लगे और उसके भीतर लम्बे समय तक पैदल चलने का हौसला बना रहे।
अब वह चलते समय शहर को किसी नए मुसाफिर की तरह देखने लगा। सड़क, फुटपाथ, आते जाते वाहनों, बीच में आने वाले चैराहों, बगीचों, उनमें लगे फौव्वारों और हर किसम की सरकारी मारतों को वह बड़ी कौतुहल से देखने का उपक्रम करने लगा। विभागों और मंत्रालय भवनों के बाहर लगे उनके नामों को पढ़ते हुए वह चलने लगा। किसी प्रकार की निर्देश पट्टिका वहाँ टंगी होती तो उनमें से कुछ को वह पढ़ लेता था।
     अपने कंधे पर लगे हुए बैग से उसने सिगरेट का पैकेट निकाला और एक छोटी चपटी माचिस अपनी चैक शर्ट की जेब से निकालकर उसने सिगरेट सुलगा ली। इस तरह सिगरेट पीते हुए चलते समय पैंतालीस पार हो चुकी अपनी प्रौढ़ उम्र में वह अपने को युवा महसूस करने लगा। ऐसा सोचते ही वह कोई गीत भी गुनगुना लेता था या अपने होंठ गोल करते हुए उसकी धुन में थोड़ी सीटी बजा लेता था।
     उसे यह अच्छा लगा कि इस थोड़े महानगरीय तेवर वाले शहर में रास्ते में कोई पहचानता नहीं और वह पूरी उन्मुक्तता से चला जा रहा है अपने में खोया और संध्या के बारे में सोचता हुआ। अन्यथा अपने कस्बाई शहर में यह आजादी कहाँ। अपने शहर में पैदा होकर न जवान होने का मजा है न प्रौढ़ होने का। न जवानी की आजादी मिलती है न प्रौढ़ होने पर सम्मान। वहाँ तो सड़क में एक सिगरेट जलाने से पहले भी सोचना पड़ता है कि कोई बुजुर्ग डॉट न दे यह पूछते हुए कि तुम किसके लड़के हो?’         
सामने लालरंग से पुती एक दीवाल थी, जो राजभवन का पिछवाड़ा था। यहाँ बने एक प्रवेशद्वार को गेट नं. 4 कहा गया था। दीवाल पर निर्देश की एक तख्ती लगी थी जिसमें महामहिम से मिलने वालों को गेट नं. 1 में सम्पर्क करने को कहा गया था। प्रवेशद्वार के ऊपर एक टॉवर था जिसमें एक बन्दूकधारी तैनात था। वह प्रवेशद्वार की पीछे वाली सड़क पर चल रहे राहगीरों को बड़ी मुश्तैदी और संशय से देख रहा था। शायद इतनी ही उसकी ड्यूटी थी।
उसे लगा कि महामहिम से मिलने वालों की तरह उसने संध्या से आज का अपाइंटमेंट ले रखा है शाम को छह बजे का, देर तक बातें करने के लिए।
दस साल हो गए संध्या को देखे। वह जहाँ भी रही फोन पर उससे बातें होतीं रहीं पर रुबरु हुए सालों हो गए। वैसे भी उससे जब भी मुलाकात होती है वह दस दस सालों के अंतराल में होती है। बीस साल की उम्र में वे पहली बार मिले थे। फिर तीस की उम्र में और अब दोनों चालीस पार हो जाने के बाद मिलेंगे। उसने एक बार फोन पर कहा था इस हिसाब से अब वे अर्द्धशती में मिलेंगे फिर होगी उनकी भेंट ष्ठिपूर्ति के बाद। वह एकदम खिलखिला पड़ी थी जैसे पिछले दस सालों से उसने हँसा ही नहीं। शायद इतनी कम मुलाकातों के कारण वे एक दूसरे से अब तक आपकहकर बातें करते हैं और न कभी एकदूसरे को नाम से सम्बोधित करते हैं।
कोई है उसके साथ। वह अकेला नहीं है। उसे लगा कि चलते समय जब हम किसी के बारे में सोचते हैं तो वह हमारे साथ हो जाता है। जैसे वह सड़क की बाईं ओर चल रहा है कोई चल रहा है उसके भी बाईं ओर। साड़ी के भीतर एक छोटा कद वाला भरा भरा जिस्म है। चौड़ा माथा जिस पर छोटी काली बिन्दी है। बिन्दी के नीचे उसकी हल्की -सी उठी हुई नाक है। शायद उठी हुई नाक के कारण चेहरा थोड़ी मासूमियत व रोमानीपन से भरा लगता है। उठी हुई नाकवाली लड़कियाँ उसे अच्छी लगती हैं। ज्यादातर इस तरह की लड़कियाँ दिखने में संध्या जैसी ही होती हैं। छोटे कद में भरा- भरा शरीर, चौड़ा चेहरा और उठी हुई नाक। जैसे संध्या जैसी लड़की बनाने का यही फार्मूला हो।                       
वह चलते समय बाईं ओर देख लेता है तब उसे संध्या का चेहरा दिखता है । उसके साथ वह उन सुरों में बात करता है जिसे केवल वह सुन सकती है रास्ते में चलने वाला कोई और नहीं। जैसे फोन पर बात करते समय उसकी आवाज को संध्या ने सुना था वहाँ कम्प्यूटर  पर काम कर रहे नौजवान ने नहीं।    
वह जब भी उसकी ओर देखता है तो कद छोटा होने के कारण उसे अपना सिर उठाकर उसकी ओर देखना पड़ता है। उसे अपने मुकाबले उसके कद का छोटा होना सुविधाजनक लगता है। उसके सिर उठाकर देखने से उसमें समर्पण-भाव ज़्यादा दिखलाई देता है। वह जब भी बाईं ओर देखता है तो उसे लगता है कि वह उसे निरंतर देखती हुई चल रही है। जैसे उसका चेहरा स्थायी रूप से मुड़ा हुआ है उसकी ओर हल्की मुस्कान के साथ।      
हुलाश को लगता है कि वे दोनों बातें करते चले जा रहे हैं। यह उसे तब पता चलता है जब चलते हुए वह उसके चेहरे पर कई प्रकार के भावों को देखता है। यह भाव संध्या के बोलने का भाव नहीं है ,यह उसके सुनने का भाव है। वह लगातार सुन रही है और केवल सुन रही है, बोल नहीं रही है। जैसे उसे बोलने की चाह नहीं केवल सुनने की चाह है। लगातार केवल वह बोल रहा है और जब संध्या के बोलने की बारी आती है ,तब वह हिन्दी माध्यम के स्कूल से पढ़ी किसी लड़की की तरह चुप हो जाती है। बस मुस्कराक रह जाती है। उसकी इस मुस्कराहट में उसे अपने पूरे सुने जाने और बातों को समझ लिए जाने के भाव स्पष्ट हैं। 
मोटर गाड़ियों का हॉर्न और कोलाहल उसे सुनाई दिया। वह एक म्यूजियम के पास पहुँच गया था। थोड़ी दूर में हाईवे था। यह प्रतिबंधित क्षेत्र जहां खत्म हो रहा था वहाँ फुटपाथ पर चाय का एक ठेला था। वह लगभग दो किलोमीटर चल चुका था और अब किलोमीटर भर की दूरी शेष थी। उसका रक्तचाप उसे सामान्य लगा। वह रोज आधी गोली सबेरे खा लिया करता है। डॉक्टर ने उसे रोज दो तीन किलोमीटर चलने को कहा है। आज भी उसने डॉक्टर की नसीहत मान ली थी।
     चाय के ठेले पर उसने बिना दूधवाली लेमन-टी देखी ,तो उसे ही उसने माँग लिया । काँच के गिलास में काले रंग की लेमन-टी पीना उसे वैसे ही लगता है जैसे वह रम पी रहा हो। अपने रक्तचाप को सामान्य मानकर उसने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी, जिसे दाएँ हाथ की दो उँगलियों के एकदम सामने फाँसकर वह इस तरह कश मारने लगा कि ठेले वाले ने कहा वाह! क्या स्टाइल है साब.. आपके सिगरेट पीने का। उसे अच्छा लगा यह सुनकर कि किसी मामले में वह थोड़ा हटकर तो है। यह सिगरेट पीने का उसका अपना ख़ास अन्दाज था उसकी किसी अप्रकाशित, अप्रसारित और मौलिक रचना की तरह। 
डेढ़ घण्टे में से एक घण्टे का समय उसने निकाल लिया था। बिताए हुए एक घण्टे का उसे पता ही नहीं चला। वह आश्वस्त था जितनी दूरी शेष है उसे वह आधे घण्टे में तय कर लेगा।
ठेले के पास फुटपाथ पर सिगरेट पीते तक खड़े होकर उसने हाईवे को देखा जिस पर ट्रैफिक का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह इस शहर का लगभग केन्द्र स्थल है। कई ओर से आती सड़कों का एक संगम स्थल जहाँ टावर पर एक बड़ी घड़ी लगी हुई है। इस कारण यह घड़ी चौक के नाम से जाना जाता है। जैसे जैसे शाम हो रही है ट्रैफिक बढ़ता जा रहा है। जैसे शाम का ट्रैफिक से कोई गहरा ताल्लुक हो। इस शाम का खुद उससे भी कोई गहरा ताल्लुक है। उसने टावर में लगी घड़ी की ओर देखा यह जानने कि शाम को छह बजने में अब कितना बाकी रह गया हैं।
प्रतिबन्धित क्षेत्र खत्म हो गया था। शाम हो चुकी थी। भरी दोपहरी का वैधव्य जा चुका था और सुहागन संध्या अपने पूरे शबाब पर  आने को थी। यह शहर भी नई- नई राजधानी बना है। किसी नई ब्याहता की तरह उसका भी यौवन अपने उफान पर है। जूनो लाइट की सफेद रोशनी से सड़कों में ऐसी जगमगाहट थीं जैसे कोई दुल्हन सम्पूर्ण शृंगार किए बैठी हो। ऐसे में उसकी आतुरता बढ़ती जा रही थी। उसने हाईवे को छोड़कर कोई छोटा रास्ता निकाल लिया था। हल्की थकान के बाद भी उसके कदम तेज हो चले थे।
हाईवे के इस पार एक अलग दुनिया थीं भीड़भाड़ वाली, जहाँ मुड़ी तुड़ी गलियाँ थीं। इनमें आते जाते रिक्शे, टाँगे और ठेले थे। जिनके गुजरते समय किसी मकान की दीवाल से सटकर चलना होता है। कई बार ऐसा हो जाता है जब किसी शहर की मुख्य सड़क दो सभ्यताओं के बीच विभाजक का काम करती हैं।  एक तरफ पॉश इलाका होता है तो दूसरी तरफ झुग्गी झोपड़ी।  पॉश इलाके के अनजानेपन से यह दुनिया भिन्न और आत्मीय लगती है। यहाँ चलते हुए उसे जमीनी आदमी होने का अहसास हो रहा था , जो साहित्य को अतिरिक्त गरिमा देता है। यह सोचकर वह मुस्करा उठा।              अब उसकी मंजिल करीब थी। रेलवे की लाइन की पटरियाँ दिखने लगी थीं। यही पता संध्या ने दिया था। रेलवे फाटक के करीब। पटरी के किनारे पेशाब करते लोग खड़े थे। उसे भी लगी थी। तीन किलोमीटर वह चल चुका था। फिर संध्या के घर में पता नहीं कितनी देर वह बैठेगा और वहाँ ऐसा करने में उसे संकोच होगा। पटरी के किनारे वह भी लाइन में लग गया। अब वह पहले से ज़्यादा सुविधाजनक महसूस करने लगा था।
ड्राइंगरूम छोटा लेकिन व्यवस्थित था। सामने किसी बुजुर्ग का क्लोजअप लगा हुआ था। चित्र में वे सौम्य लग रहे थे और उनके सिर के बाल कम थे। कुर्ते के ऊपर अपनी हाफ काली जैकेट में वे कोई परिचित राजनेता लग रहे थे ।
हुलाश एक सोफे पर पसर गया था। शरीर को भरपूर आराम देने का सुख वह प्राप्त कर रहा था। उसके सामने दीवार में बने आलमीरे पर टेराकोटा की कुछ मूर्तियाँ थीं। वहाँ प्राप्त ग्रीटिंगकार्डों को एक धागे में गूँथकर झालर की तरह डाल दिया गया था । शायद यह किसी बच्ची का शौक हो। वह यह सब देखते हुए बीच में अपनी आँखें बन्द कर लेता था । आराम चाहने के साथ वह अधीर भी होता जा रहा था।
    पानी किसी का स्वर गूँजा। सामने एक किशोर उम्र की सेविका थी। उसने पानी का गिलास लेकर थोड़ा पिया फिर उसे दो सोफों के बीच रखे स्टूल में रख दिया। गिलास रखते समय स्टूल पर रखी पत्रिका उसने उठा ली। वह तलाक विशेषांक थी, जिसके मुखपृठ पर अर्द्धवस्त्रों में लिपटे पुरुष और स्त्री की अलग अलग खाटें थीं। यह विरक्ति लाने वाला चित्र था।  किसी भी मिलन में बाधक होने वाला। उसने पत्रिका पलटकर यथास्थान रख दी।
नमस्तेकी हल्की आवाज आई। सामने एक भरीपूरी महिला थी ,जो हरे रंग के सलवार कुर्ते में दुपट्टा डाले खड़ी थी।        
'मैं हुलाश!
मैं पहचान गई! आप मुझे भी पहचान गए होंगे।थोड़ा रुककर उसने कहा।
पर हम कहीं और मिले होते तो एक दूसरे को शायद...
नहीं पहचान पातेवह हँस पड़ीं अपाइन्टमेंट लेने से यह फायदा है कि हम जिनसे मिलने जाते हैं, उन्हें पहचान लेते हैं।
‘.. और कैसे ! कहाँ हैं आजकल !उसने औपचारिक सवाल किया जो लम्बे समय बाद मिलते समय अक्सर किए जाते हैं।
मैंने तो एक स्टील प्लांट में अपनी नौकरी शुरू कर ली थी।
उसने कहा और आप भोपाल से कब लौटीं ?
तीन महीने हो गए।
अब तो और भी खूबसूरत हो गया है भोपाल।जैसे वह भोपाल की नहीं संध्या की बात छेड़ रहा हो।
बहुत खूबसूरत.. हाँ.. और मैंने उसे मिस किया।उसने ठंडी साँस भरी जैसे ज्रिन्दगी में केवल खूबसूरत होना ही कोई योग्यता नही है, प्रारब्ध पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। 
वे दोनों बातें करते हुए बीच में चुप हो जाते। जैसे उनके चुप होने की भूमिका हो। हुलाश को लगा कि जब कोई दूर होता है, तो अपने बहुत करीब होता है और जब वहीं इन्सान करीब हो जाता है, तो अपने से दूर चला जाता है। दूर पास के इस खेल को ख्रत्म करने की कोशिश उन्हें करनी थी यह चि़त्र उसने पूछा।                                                                
पिताजी का है.. जब पॉर्लियामेन्टरी सेक्रेटरी थे .. आप जानते तो होंगे।उसने आश्वस्त होकर देखा।
हाँ.. मैं इन्हें जानता हूँ ,पर आप इनकी बेटी हैं .. यह नहीं जानता था।
अरे..!
आपकी समृद्ध पृष्ठभूमि है!हुलाश के मुँह से निकला, यह सुनकर उसने निर्निमेष दृष्टि से देखा। थोड़ी देर फिर चुप्पी रही।
आप आए किससे हैं।उसने चुप्पी तोड़ी।
पैदल’              
अरे! अपने शहर से यहाँ तक पैदल हँसने की आवाज आई।
ओह! नई .. बस से आया हूँ। फिर.. यहाँ आकर पैदल आया।उसने हड़बड़ी में कहा। इस तरह की हड़बड़ाहट अक्सर अपनी हमउम्र महिला के सामने हो जाती है.. और तब जब महिला खूबसूरत हो। खूबसूरत स्त्री के साथ बात करने के अपने अलग तनाव होते हैं।
उसने सोचा।
     उसकी दशा देखकर संध्या के चेहरे पर मुस्कान बनी रही। तब उसने कहा पहले मोटरसाकल से यहाँ आ जाता था। जबसे रीढ़ की हड़डी में दर्द हुआ है .. बस से आता जाता हूँ।मानों उसने कैफियत दी।
तब यहाँ आकर इतनी दूर पैदल क्यों चले.. रिक्शे में आ गए होते।उसने ने तीसरा औपचारिक सवाल किया।
आपने समय ही डेढ़ घण्टे बाद का दिया था। मैंने यह समय आप तक पैदल पहुँचकर बिताया।उसने कहा।
रिक्शे से आकर जल्दी पहुँचकर यहाँ बैठ भी जाते। मैंने घर में आपके आने की सूचना दे दी थी।उसने लगातार औपचारिकताएँ बरती ,तो उसे लगा कि यह शायद हर महिला के किसी पुरुष से बातचीत आरम्भ करने से पहले की भूमिका होती है जैसे किसी साहित्यिक गोष्ठी की शुरुआत के लिए आधार वक्तव्य होते हैं।
     अपने शहर को छोड़कर दूसरे शहर में पैदल चलना अच्छा लगता है। जैसे कोई लम्बी कहानी लिखी जा रही हो.. और किसी लम्बी कहानी को पढ़ते समय पैदल चलने का भान होता है।हुलाश को लगा कि औपचारिकताओं को दबावपूर्वक खत्म करते हुए अब उन्हें सहज होना चाहिए।
       क्या आज भी कोई कहानी बनती है उसने हुलाश की ओर देखा।
      हाँ.. बनती है लेकिन आपका सहारा लेना होगा।उसने सहारा शब्द पर जोर दिया ।                                     
     सहारा!इस शब्द पर उसने भी जोर दिया। फिर थोड़ी हँसी। मानों इस शब्द में कहीं उसकी अहमियत छिपी हुई है मैं आती हूँ।वह उठकर अन्दर चली गई एक कुँआरी लड़की की तरह सीधे-सपाट ढंग से। उसे लगा जिन लड़कियों की शादी नहीं हो पाती वे प्रौढ़ हो जाने पर भी लड़कियाँ ही लगती हैं। उनका हावभाव गृहस्थ या दाम्पत्य जीवन जीने वाली नारी के समान जीवन्त नहीं लगता। वे हर पल इस तरह जी रही होती हैं जैसे जीवन में कहीं रिक्तता है और वे उसे भरने की चाह या न भर पाने की विवशता के बीच कहीं खड़ी हैं। 
     संध्या ने बिना पुरुष के जीवन जीने का निर्णय लिया था। इसे क्रांतिकारी कदम मानकर।  शायद यह उस दौर में उपजी नारी स्वाधीनता की लहर का प्रभाव था। खुद के दम पर एक अलग पहचान बनाने और दुनिया को दिखा देने की चाहत लिए। उसने सोचा।
     इस मामले में वह कुछ नहीं कर सकता था ; क्योंकि संध्या न उसकी पत्नी है, न कभी उसकी प्रेयसी रही। उसके साथ उसके सम्बन्ध केवल साहित्यिक हैं। वह खुद तो लेखक है और संध्या शुरू से ही राज्यशासन के प्रकाशन विभाग में रही है। इस विभाग से निकलने वाली पत्रिका के संपादन मंडल में उसका नाम वह देखता रहा है - संध्या चन्द्रवंशी।  मानो यह नाम संपादन मंडल में रखे जाने के लिए ही बना हो। उसकी पत्रिका के लिए वह अपने व्यंग्य और कहानियाँ भेजता रहा  है, जिसे वह छापती रही है। यह सब इसलिए ; क्योंकि वह उसके लेखन और विचारों से हमेशा प्रभावित रही, लेकिन इस वैचारिक साम्य ने उनके भीतर तरलता पैदा की थी। उनके सम्बन्धों को साहित्येतर भी बनाया है। वे अलग और दूर होते हुए एक दूसरे के प्रति आसक्त रहे हैं। कभी वह सोच लेता है अगर संध्या मेरी पत्नी होती तो
 ‘लीजिए। एक ठण्डी और नरम आवाज आई। उसके सामने चालीस साल की एक लड़की खड़ी थी ,जो साड़ी में नहीं सलवार सूट में दुपट्टा ओढ़े थी। कुछ झड़ आए बालों के कारण और भी चौड़ा हुआ माथा, माथे पर वही छोटी काली बिन्दी और बिन्दी के ठीक नीचे उठी हुई नाक। माथे के दाहिने हिस्से में लटकती हुई एक जु्ल्फ। यह संध्या थी ,जिसे उसने अभी ज्यादा गौर से देखा आज पूरे दस साल बाद। 
      दोनों सोफों के बीच रखी स्टूल पर रखी पत्रिकाओं को उसने उठाया और उस पर नाश्ते की ट्रे उसने रख दी। उसके चेहरे पर किसी समर्पित स़्त्री के भाव थे, जो किसी पुरुष के सान्निध्य से आ जाते हैं। ट्रे में गजक और ढोकला था। एक केटली में चाय थी। संध्या ने ढोकले की प्लेट उठाई और फिर कहा लीजिए।
       ये सब चीजें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं और भूख भी लगी है।उसने हाथ उठाया, प्लेट से लेते समय उसकी उँगली उन नर्म उँगलियों से छू गई थी। उसके भीतर झनझनाहट हुई, जैसे इस छुअन की उसे बरसों से प्रतीक्षा थी। शायद संध्या को भी, उसने सोचा।
      आप! आप भी लीजिए ना..उसने संध्या की तरह औपचारिकता बरती।
      मैंने फिस में लंच लिया है। अभी कुछ नहीं ले पाउँगी।उसने उसकी प्लेट पर सॉस डालते हुए कहा। उसे परोसते समय उसके चेहरे पर एक अलग किसम के अहसास का भाव था।
     आप दूसरों को तो छापती रहती हैं। आपने खुद अपना कोई संग्रह निकलवाया?’ उसने  गजक का एक टुकड़ा उठाते हुए पूछा।
      कहाँ निकलवा पाई देखो ना.. वक्त कैसे निकल जाता है।उसने वक्त को अपना संग्रह न दे पाने पर जैसे खेद व्यक्त किया।
    लेकिन कुछ तो कोशिश होनी चाहिए।अपनी चार छह किताबों के छप जाने के दर्प से शायद वह बोल उठा।                 
     संपादन का काम ऐसा होता है जिसमें दूसरों को छापने, कुछ की रचनाओं को लौटा देने और उनकी रचनाओं में काट- छाँट करने का अधिकार पा लेने के दम्भमिश्रित सुख से भरा होता है। यदि कोई लेखक संपादक बन गया , तो इस खुशफहमी में उसका लेखक खत्म भी हो सकता है।अबकी बार उसने लम्बे वाक्य कहे जो उसकी वाक्शैली में नहीं थे।
     आपने कुछ व्यंग्य-कथाएँ अच्छी लिखी हैं। इस क्षेत्र में महिला रचनाकार कम हैं। यदि व्यंग्य-कथाओं का कोई संग्रह आपका आ जाए तो वह चर्चा में होगा।उसने बातों को समेटते हुए कहा।     
       चर्चा!उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। क्या अब भी उसे चर्चा या चर्चित होने की जरूरत है। एक अकेली लड़की के लम्बे जीवन में यह शब्द तो ऐसे चस्पा होता है ,जैसे वह उसका उपनाम हो। बल्कि कभी- कभी उन्हें अपने आपको चर्चा से बचाए रखने की जरुरत भी आ पड़ती है। उसने चाय का कप आगे बढ़ाया- चलिए आप कह रहे हैं ,तो ये कोशिश जरूर होगी। कोई किताब छपकर आ जागी इस साल। इससे आगे के लिए एक सहारा तो मिलेगा।उसने सहारा शब्द पर जोर दिया। यह शब्द उन दोनों के बीच दूसरी बार आया था। अब हुलाश को लगा कि उनकी बातचीत चाय पीते तक ही है। चाय खत्म होने के बाद इसे बढ़ा पाना मुश्किल होगा।
मुझे चलना चाहिए।अब उसे केवल यही कहना बाकी था।
फिर आइए।संध्या का मद्धिम व औपचारिक स्वर गूंजा।
शीशे के दरवाजे से शहर की भीड़भरी ट्रैफिक दिखाई दे रही थी। जिससे बाहर के शोर का अन्दाजा हो रहा था। पर भीतर निस्तब्धता थी आपका मकान तो साउण्डप्रूफ है।उसने दरवाजा खोलते हुए कहा।
हाँ.. दरवाजों पर शीशे की दोहरी दीवाल है।जवाब आया।  यह सुनकर उसे लगा कि संध्या के मन में भी कोई शीशों वाला दरवाजा है जिसकी दोहरी दीवाल है। जिसमें बाहर का दिखता सब कुछ है पर भीतर निस्तब्धता है उसके मकान की तरह।
अब वे दोनों घर के बाहर खड़े थे। बाहर सड़क का शोरगुल था लेकिन उनके भीतर सन्नाटा था। संध्या की वही निर्निमेष दृष्टि थी ,जो उसकी रिक्तता से उपजती थी। वह  आगे बढ़ चला अपने शहर जाने वाली बस को पकड़ने के लिए और अपने पीछे छोड़ गया था वह चालीस साल की एक लड़की को। 
सम्पर्क : मो. 9009884014

1 comment:

Unknown said...

किसी व्यंगकार की रचना को पढ़ते वक्त एक अतिरिक्त इंद्रिय जागृत रखनी होती है कि कब वह कहाँ क्या कह जाये। विनोद साव जी की अधिकतर रचनाओं को पढ़ते पढ़ते आप कब मुस्कुराने लगते हैं ये आप ही नहीं जानते पर ये रचना कुछ अलग हटकर है । सारा चित्रण और संवाद इतने जीवंत बन पड़े हैं कि चलचित्र सा चलता हुआ महसूस होता है ।
कमाल की लेखनी है आपकी । जब चलती है तब ऐसा ही प्रभाव छोड़ती है ।