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Dec 19, 2015

उदंती- दिसम्बर 2015

उदंती- दिसम्बर 2015

जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। 
-प्रेमचंद 
              हिन्दी की यादगार कहानियाँ      
अनकही:  समाज का दर्पण   -डॉ. रत्ना वर्मा

Dec 18, 2015

बचपन की यादों में देशप्रेम का जज़्बा

    बचपन की यादों में देशप्रेम का जज़्बा

- डॉ. रत्ना वर्मा

यादों के झरोखों से यदि बचपन में झाँक कर देखने की कोशिश करूँ और उसमें भी अपने पढ़ाई के दिनों की तो देश प्रेम का ज़ज़्बा हमारे लिए गर्व और मस्तक ऊँचा उठाकर चलने वाली भावना से जुड़ा होता था। चाहे समय 26 जनवरी का हो या 15 अगस्त का तथा इन अवसरों पर रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाने वाले नृत्यनाटक या फिर गीत का हो।
   तब सुबह की प्रभात फेरी में शामिल होना आवश्यक होता थाया यह कहना अधिक उचित होगा कि छुट्टी मनाने जैसी बात तब मन में आती ही नहीं थी और उसकी तैयारी तो पूछि मत- सफेद यूनिफॉर्म के साथ पॉलिश किए हुए सफेद मोज़े और जूते। चार दिन पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती थी। कपड़ों के जूतों में सफेद पॉलिश के लिए तब चॉक जैसा बारकेक लाया जाता थाजिसे पानी में भीगोकर जूतों को चमकाया जाता था। हमारे पीटी शूज़ एकदम नए की तरह चमक जाते थे। दोस्तों और भाई- बहनों के बीच होड़ लगी होती थी कि मेरी यूनिफॉर्म और मेरा जूते तुम्हारे जूते से ज्यादा सफेद है। पर वह सब किसी विज्ञापन की तर्ज पर मात्र सफेदी की चमकार नहीं होती थीवह सब हम बच्चों की आपसी नोकझोंक के साथ देश के प्रति आदर का भाव भी होती थी।
   इस तरह सवेरे- सवेरे तिरंगा झंडा हाथों में लेकर जब- झंडा ऊँचा रहे हमारा.... गाते हुए कदम- ताल मिलाते हुए चलते थे तो भीतर से कहीं देशप्रेम का ज़ज़्बा हिलोरे लेते था।  प्रभात फेरी में बच्चों की आन- बान- शान देखते ही बनती थी।  कड़क कपड़ों और चमकते सफेद जूतों की आभा ओज़ बनकर सबके चेहरे पर भी चमकती थी।  जनवरी में तब कड़ाके की ठंड और अगस्त में बारिश का मौसम होता थापर बच्चों के उत्साह को न ठंड रोक पाती थी न बारिश। ( अब तो कब कौन -सा मौसम होता हैपता ही नहीं चलताहमने अपने पर्यावरण को भी तहस-नहस जो कर दिया है) देशभक्ति के गीतों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए यदि अपने घर के सामने से जूलूस निकलता था तो नज़रें स्वत: ही उधर घूम जाती थीं कि माता- पिता के साथ आस- पास के कितने लोग हमें अपने देश के लिए नारा लगाते देख रहे हैं।
   दिन भर रेडियो में देश भक्ति केगीतों की गूँज सुनाई पड़ती थी।  जहाँ डाल- डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा...ऐ मेरे वतन के लोगों.....ऐ मेरे प्यारे वतन....ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम..... जैसे ओज से भरे गीत सुनकर ही यह अहसास हो जाता था कि गुलामी के बाद की आजादी कितनी सुकून- भरी और आनंददायी होती है।
   देश प्रेम का ज़ज़्बा संभवत: इसी तरह बचपन से पने आप ही पैदा होता चला जाता था। न कुछ कहने की ज़रूरतन कुछ करने की। जीवन की चाल ही इस तरह चलो कि देश प्रेम अपने आप ही पैदा हो। आजादी के लिए अपने आपको कुर्बान कर देने वाले वीरों की कथाएँ तो पढ़ाए ही जाते थे।
   वीरों की कथाओं से मुझे याद आया मेरे बाबूजी जिन्होंने स्वयं आजादी की लड़ाई में भाग लिया था और नागपुर में वकालत की पढ़ाई करते समय भूमिगत रहने के कारण एक साल परीक्षा नहीं दे पाए। वे हमारे लिए आजादी के मतवालों की कथाओं वाली छोटी-छोटी पॉकेट बुक लाया करते थे-  जिसमें झाँसी की रानीभगतसिंहबिस्मिलचंद्रशेखर आजादराजगुरूसुखदेवमहात्मा गाँधीसरोजिनी नायडूनेहरूसरदार पटेल आदि न जाने कितनी महान विभूतियों की कहानियों के साथ नंदनपराग और मोटू- पतलू जैसी कॉमिक्स की किताबें साथ होती थीं, जिन्हें पढ़ते हुए हम बड़े हुए। पढऩे और लिखने की आदत बचपन में पढ़ी गई इन किताबों का ही नतीजा है। 
   समाज के प्रति एक जिम्मेदार नागरिक बनाने में तब अभिभावक के साथ शिक्षा और शिक्षक की जो भूमिका होती थी, वह आज की व्यावसायिक शिक्षा- व्यवस्था में कहीं गुम हो गई है। अब तो बच्चों को पूछो आजादी का दिन है स्कूल में कोई कार्यक्रम नहीं हैतो वे कहते हैं कल हो गया नआज तो छुट्टी है। यानी आजादी भी एक दिन पहले ही मना ली जाती है।
   कहने का तात्पर्य यही कि  बीज तो तभी बो दिया जाता है, चाहे वह देश के प्रति जिम्मेदारी का हो चाहे अभिव्यक्ति की आजादी का। इसके लिए अलग से किसी किताब की अलग से विचार या अलग से कोई प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती।
   देश की सुरक्षा के लिए सियाचिन ग्लेशियर में तैनात हनुमनथप्पा जैसे जवान की जब मौत होती हैतब आँखें सबकी नम हो जाती हैं और हाथ सैल्यूट के लिए उठ जाते हैं। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि देश के प्रति भक्ति को लेकर सवाल उठने लगेचूक कहाँ हो रही है कौन लोग हैं जो देश को कमजोर करने में लगे हैं?  बलिदानियों के लिए कुछ की आँख में न एक क़तरा आँसू हैन शर्म है। क्या आँख का पानी भी मर गया है ? देश को क्षति पहुँचाने वालोंशर्मनाक बयानबाजी करने वालों और भारत के संविधान तक को चुनौती देने वालों के समर्थन में ये कौन लोग खड़े हो रहे हैंक्या ये बुद्धिजीवी हैं या वे हैं जिनकी बुद्धि का दिवाला ही निकल गया हैआज इस ज्वलन्त प्रश्न पर विचार करना ज़रूरी है कि हम बड़े हैं या देश बड़ा है।

ठाकुर का कुआँ

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद
31 जुलाई 1880 में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे मुंशी प्रेमचंद ने प्रारंभ में उर्दू में लेखन  किया। कुछ एक वर्षों के बाद वे हिन्दी में आए और अपनी विलक्षण प्रतिभा के दम पर युग निर्माता कथाकार, उपन्यास सम्राट कहलाए। हिन्दी कथा संसार को विश्व साहित्य के समकक्ष ले जाने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मुंशी प्रेमचंद ने गोदान लिखकर भारतीय किसानों के जीवन का अविस्मर्णीय महाकाव्य रच दिया। गोदान लेखन पथ से जुड़े सभी पीढिय़ों के यात्रियों के लिए दीप स्तंभ बन गया। भारतीय समाज के अद्भुत चितेरे प्रेमचंद ने महज 56 वर्षों का जीवन पाया। मगर उन्होंने इतने कम समय में ही हिन्दी कथा, उपन्यास साहित्य को शिखर पर पहुँचा दिया। वे गोर्की, लू सुन और शरदचंद्र की तरह जनमन में रच बस गये। कलम की सत्ता और महत्ता को स्थापित करने वाले वे हिन्दी के प्रथम क्रांतिकारी और सर्वपूज्य कथाकार हैं।
सामंतशाही और जातीय विषमता से संचारित ग्रामीण जीवन का चित्रण प्राय: सभी भाषाओं के रचनाकारों ने किया लेकिन उत्तर भारत के किसानों के जीवन पर मुंशी प्रेमचंद ने जो कुछ लिखा उसका सच एक सदी के बाद भी आज जस का तस हमें प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। समय आगे बढ़ गया है लेकिन स्थितियाँ यथावत हैं। परतंत्र भारत में जो दशा गरीब, पिछड़े, दलितों और किसानों की थी उसमें आज भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। स्वतंत्र भारत में किसानों ने कहीं अधिक आत्महत्या की है। समाज पहले से और अधिक कठोर हुआ है। खाप पंचायतों की निजी अदालतों में चमकती तलवारें आधुनिक सोच का सर कलम करती चल रही हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं एक अमर कहानी है। प्रस्तुत है यह मार्मिक कहानी।

     ठाकुर का कुआँ

 जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा  जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढऩे देगा? दूर से लोग डांट बताएंगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ कौन पानी भरने देगा? कोई कुआँ गाँव में नहीं है।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है। बोली- यह पानी कैसे पियोंगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लाएगी?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्यों, एक लोटा पानी न भरन देंगे? 'हाथ-पाँव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकनें नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।
रात के नौ बजे थे। थके- मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस- पाँच बेफिक्रे जमा थे मैदान में। बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमें में रिश्वत दे दी और साफ निकल गए। कितनी अकलमंदी से एक मार्केट के मुकदमें की नकल ले आए। नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांगता , कोई सौ। यहां बे-पैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने का ढँग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुंची।
कुप्पी की धुंधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं। चोरी ये करें, जाल- फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस- किस बात में हमसे ऊचे हैं? हम गली- गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस- भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक् -धक् करने लगी। कहीं देख ले तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अँधेरे साए में जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?
कुएँ पर दो स्त्रियाँ पानी भरने आयी थीं। इनमें बातें हो रही थीं।
'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं है।
हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।
'हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडिया ही तो हैं।
'लौंडिया नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी- कपड़ा नहीं पातीं? दस- पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियाँ कैसी होती हैं!
'मत लजाओ, दीदी! छिन- भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते- करते मर जाओं, पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।
दोनों पानी भरकर चली गईं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ- बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दाएँ- बाएँ चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती- भर उम्मीद नहीं। अंत में देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा- सी आवाज न हुई। गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी- जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनाई देती रही।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला गंदा पानी पी रहा है।

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

मुक्तिबोध की
अविस्मणीय कहानी
 गजानन माधव मुक्तिबोध की अत्यंत चर्चित और अविस्मणीय कहानी ब्रह्मराक्षस का शिष्य1957 में नया खून में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर अब तक इस कहानी पर लगातार चर्चा हुई है। इस कहानी में फंतासी का प्रयोग युगांतकारी कवि कथाकार मुक्तिबोध ने खूबी के साथ किया है। ब्रह्मराक्षस का शिष्य में ही नहीं, उनकी लगभग अधिकांश कहानियों में उनकी महान कविताओं का अक्स उभर आता है। अँधेरे मेंउनकी प्रसिद्ध कविता है, इसी शीर्षक से उनकी चर्चित कहानी भी है। हिन्दी, संस्कृत एवं उर्दू की काव्य पंक्तियों का प्रयोग मुक्तिबोधजी ने अपनी कथाओं में खूब किया है। मध्यकालीन कवियों तुलसी और कबीर पर मुक्तिबोध ने शोधपरक लेखन के साथ समकालीन कवियों पर भी उन्होंने बेहद उदारतापूर्वक लिखा है। ब्रह्मराक्षस का शिष्यमध्यमवर्गीय समाज के संघर्षों की अनोखी कहानी है। मुक्तिबोध ने लिखा है, ‘हम केवल साहित्यिक दुनिया में ही नहीं, वास्तविक दुनिया में रहते हैं, इस जगत में रहते हैं।प्रखर माक्र्सवादी रचनाकार गजानन मुक्तिबोध ने इस संसार में रहने वालों के बारे में अपनी आस्था और दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में जो कुछ लिखा वह युगांतरकारी सिद्ध हुआ।
उन्हें मात्र 47 वर्षों का छोटा सा जीवन मिला। इसी जीवन काल के कुल 25-30 वर्षों का उपयोग उन्होंने लगातार लेखन के लिए किया। वे पल- प्रतिपल, सांस- सांस में संघर्षों और चुनौतियों को महसूस करते हुए जीते और लिखते रहे। ये गुएवाराने ठीक ही लिखा है- एक क्रांतिकारी चेतना वाले मनुष्य की नियति एक साथ बेहद गौरवशाली और यंत्रणादायिनी भी होती है।
1917 में श्योपुर (ग्वालियर) में जन्मे मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक वर्षों को राजनांदगाँव छत्तीसगढ़ में बिताया। वे 1964 में दिवंगत हुए। इस महान कवि का समस्त गद्य लगभग 1700 पृष्ठों में फैला है। प्रस्तुत है उनकी यह प्रसिद्ध कहानी ब्रह्मराक्षस का शिष्य’-

   ब्रह्मराक्षस का शिष्य            
 उस महाभव्य  भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में आती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह कुछक्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!!
पांचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी- सूनी सीढिय़ों पर यह श्लोक गाने लगता है।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमै:
नक्तं भीरूरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह: केलय:।
इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने जाते समय, राधा- माधव की यमुना- कूल- क्रीड़ा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी! पिताजी! माँ! माँ! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किन्तु ज्यों- ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूँजता, घूमता गया त्यों- त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!
जब वह चिडिय़ों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों- भरे सूने ऊँचे सिँह- द्वार के बाहर निकला तो यकायक राह से गुजरते हुए लोग भूत- भूत कह कर भाग खड़े हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहाँ एक ब्रह्मराक्षस रहता है।
बारह साल और कुछ दिन पहले-
सड़क पर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लड़का, भूखा- प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊँचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर- दूर तक और इधर- उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुंथ- बिंध रही थीं। उसने पास में पड़ी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड़- तले लेट गया।
धीरे- धीरे, उसकी विचार- मग्नता को तोड़ते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?
उनमें से एक कह रहा था, अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे- कैसे दम्भी इकठ्ठे हुए हैं?
वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लड़का खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।
वह एकदम, बात करने वालों के पास खड़ा हुआ। हाथ जोड़े, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, हे विद्वानों! मैं मूर्ख हूँ। अनपढ़ देहाती हूँ किन्तु ज्ञान- प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा रखता हूँ। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह बताओ।
पेड़- तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर हँसने लगे; पूछा -
कहाँ से आया है?
दक्षिण के एक देहात से! ...पढऩे- लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूँगा। जंगल- जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुँचा हूँ। कृपा करके गुरू का दर्शन करवाइए।
अब दोनों विद्यार्थी जोर- जोर से हँसने लगे। उनमें- से एक, जो विदूषक था, कहने लगा-
देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल जायेगा। कह कर वह ठठाकर हँस पड़ा।
आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लड़के ने अपना डेरा- डण्डा संभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढ़ाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।
दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, तुमने अच्छा किया उसे वहाँ भेज कर? उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।
पहला बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना ही कहा, आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।
सिंहद्वार की लाल- लाल बर्रें गूं- गूं करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौड़ी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकने वाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आँगन के आस- पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये- विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे अभी- अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
आँगन से दीखने वाली तीसरी मंजिल की छज्जे वाली मुंडेर पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लम्बा- चौड़ा, साफ- सुथरा। उसकी सीढिय़ाँ ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढिय़ों पर उसके चलने की आवाज गूंजती; पर कहीं, कुछ नहीं!
वह आगे- आगे चढ़ता- बढ़ता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आँगन के चारो ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी गद्दियाँ दूर- दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य- यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं अगरबत्तियाँ जल रही थीं।
इतनी प्रबन्ध- व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी पग- ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।
उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद- सफेद गद्दियाँ, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियाँ। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता और वही मनुष्य- हीनता।
अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? वह कहाँ फँस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले जीने पर चढऩे लगा।
इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियाँ बिछी हुई थीं। कुछ तैल- चित्र टंगे थे। खिड़कियाँ खुली हुई थीं जिनमें- से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिड़की के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा- भरा ऊँचा- नीचा, ताल- तलैयों, पेड़ों- पहाड़ों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊंची है और कितनी निर्जन।
अब वह देहाती लड़का भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आँखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढऩा तय किया।
डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लड़का धीरे- धीरे अगली मंजिल का जीना चढऩे लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ़ की हड्डी में- से सर्द संवेदनाएँ गुजरने लगतीं।
जीना खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा- पुता और अगरू- गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार- दृश्य देखती, खिड़की के पास देव- पूजा में संलग्न- मन मुंदी आंखों वाले ऋषि- मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
लड़के को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आँसू आँखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।
ध्यान- मुद्रा भंग नहीं हुई तो मन- ही- मन माने हुए गुरू को प्रणाम कर लड़का जीने की सर्वोच्च सीढ़ी पर लेट गया। तुरन्त ही उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त- रूप दिया। ..वह विद्वान बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुँच गया है। उनके चरणों को पकड़े, उन्हें अपने आँसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और माँ आँचल से अपनी आँखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान- गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता का वात्सल्य- भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला हुआ है।
वह देहाती लड़का चल पड़ा और देखा कि उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी- अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरणें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।
ब्राह्मण ने कठोर होकर कहा, तुमने यहाँ आने का कैसे साहस किया? यहाँ कैसे आये?
लड़का आतंकित हो गया। मुँह से कोई बात नहीं निकली।
ब्राह्मण गरजा, कैसे आए? क्यों आए?
लड़के ने मत्था टेका, भगवन! मैं मूढ़ हूं, निरक्षर हूँ, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूँ।
ब्राह्मण कुछ हँसा। उसकी आवाज धीमी हो गयी किन्तु दृढ़ता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।
तूने निश्चय कर लिया है?
जी!
नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है। एक बार और सोच ले! ...जा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहँं जा और भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझ से मिलना।
दूसरे दिन प्रत्युष काल में लड़का गुरू से पूर्व जागृत हुआ। नहाया-धोया। गुरू की पूजा की थाली सजायी और आज्ञाकारी शिष्य की भांति आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उसके शरीर में अब एक नयी चेतना आ गयी थी। नेत्र प्रकाशमान थे।
विशालबाहु, पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरू की चर्या देखकर लड़का भावुक रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से-छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी की भांति जमीन पर पड़ा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरंत पकड़ सके!
गुरू ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख उसे डपट कर पूछा, सोच-विचार लिया?
जी! की डरी हुई आवाज!
कुछ सोच कर गुरू ने कहा, नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढ़ाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहँं से निकल नहीं सकते।
सोच-विचार लो। अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!
और गुरू व्याघ्रासन पर बैठकर पूजा-अर्चना में लीन हो गये। इस प्रकार दो दिन और बीत गये। लड़के ने अपना एक कार्यक्रम बना लिया था, जिसके अनुसार वह काम करता रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरू उससे सन्तुष्ट हैं।
एक दिन गुरू ने पूछा, तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?
नतमस्तक हो कर लड़के ने कहा, जी!
गुरू को थोड़ी हँसी आयी, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आँखें नहीं है? क्या यहाँ का वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया।
एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट, निश्छल ज्योति!
अपने चेहरे  पर गुरू की गड़ी हुई दृष्टि से किंचित विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुद्धिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।
गुरू का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि- आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहाँ बैठ।
और इस प्रकार गुरू ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परम्परा के अनुसार पहले शब्द-रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया।
गुरू ने मृदुता ने कहा, बोलो बेटे
राम:, रामौ, रामा: - प्रथमा
रामम् रामौ, रामान्- द्वितीया।
और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक नि:संग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूंज-गूंज उठती।
सारा भवन गाने लगा
राम: रामौ रामा: प्रथमा!
धीरे- धीरे उसका अध्ययन सिद्धान्तकौमुदी तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात् कर, वर्ष एक के बाद एक बीतने लगे। नियमित आहार- विहार और संयम के फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गयी और आँखों में नवीन तारूण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लड़का, जो देहाती था अब गुरू से संस्कृत में वार्तालाप भी करने लगा।
केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य- भवन में गुरू के समीप इस छोटी- सी दुनिया में यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरू-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किन्तु सुचारू भोजन मिलता। इस आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहाँ इस आठवीं मंजिल पर एक नयी दुनिया बस गयी।
जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूलविक्रीडि़त गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वीरान, निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
एक दिन गुरू ने शिष्य से कहा, बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अन्तिम तिथि है। स्नान- सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर आओ और अपना अन्तिम पाठ लो।
पाठ के समय गुरू और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गम्भीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अनन्तर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।
दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरू और शिष्य दोनों अपनी अन्तिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुँह में डालने ही वाले थे कि गुरू ने कहा, बेटे, खिचड़ी में घी नहीं डाला है?
शिष्य उठने ही वाला था कि गुरू ने कहा, नहीं, नहीं, उठो मत! और उन्होंने अपना हाथ इतना बढ़ा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर एक क्षण के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया लेकर शिष्य की खिचड़ी में घी उड़ेलने लगा। शिष्य काँप कर स्तम्भित रह गया। वह गुरू के कोमल वृद्ध मुख को कठोरता से देखने लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरू के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तम्भित रह गया।
गुरू ने दु:खपूर्ण कोमलता से कहा, शिष्य! स्पष्ट कर दूं कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव- जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विराजमान रहा।
तुम आये, मैंने तुम्हें बार- बार कहा, लौट जाओ। कदाचित् तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किन्तु मैंने तुम्हारी जीवन- गाथा सुनी। विद्या से वैर रखने के कारण, पिता-द्वारा अनेक ताडऩाओं के बावजूद तुम गंवार रहे और बाद में माता-पिता द्वारा निकाल दिये जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें ज्ञान- लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूँ, साधु नहीं। सैंकड़ों मील जंगल की बाधाएँ पार कर तुम काशी आये। तुम्हारे चेहरे पर जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।
शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।
अपने पिताजी और माँजी को प्रणाम कहना। शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आशीर्वाद का अन्तिम कर- स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहाँ से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो गया।
वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरू का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन ही मन गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गया।

झलमला

बख्शी जी की अद्वितीय कहानी
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी छत्तीसगढ़ के पहले हिन्दी साधक हैं जिन्हें राष्ट्रीय ख्याति मिली। सरस्वती जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का उन्होंने संपादन किया। भारत में कला एवं संगीत के तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात खैरागढ़ में 1894 में जन्में बख्शी जी की शिक्षा दीक्षा प्रारंभ में खैरागढ़ में ही हुई। पंडित रविशंकर शुक्ल खैरागढ़ में उनके शिक्षक थे। बनारस से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। वे संस्कृत और अंग्रेजी के शिक्षक भी रहे। कालान्तर में दिग्विजय महाविद्यालय में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्राध्यापक हुए।
उन्होंने एमए नहीं किया लेकिन सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद डी लिट् की उपाधि देकर सम्मानित किया। वे हाईस्कूल में पढ़ते थे तभी देवकीनंदन खत्री लिखित चंद्रकांता से कुछ इस तरह जुड़े कि जीवन भर न केवल स्वयं पढ़ते रहे बल्कि बहुतों को उस ग्रंथ के वाचन हेतु उन्होंने उत्प्रेरित किया।
वे मानते थे कि कभी- कभी विशेष युग में साधारण रचना के प्रति भी विज्ञजन अनुराग रखते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। पाठक अपनी मानसिक क्षमता के आधार पर ही रस ग्रहण करते हैं। मास्टर जी के रूप में विख्यात बख्शी जी की कहानी झलमला अनोखी कहानी है। बहुतों ने इसे हिन्दी की पहली मौलिक कहानी भी माना है। 1916 में लिखित यह कहानी सरस्वती की हीरक जयंती अंक में प्रकाशित हुई।
बख्शी जी आत्मकथात्मक निबंध लेखन के लिए याद किए जाते हैं। उनके एक निबंध को आधारित कर लोकनाट्य कारीका ताना - बाना दाऊ रामचंद्र देशमुख ने बुना। इस मंचीय कृति को पर्याप्त यश मिला। उसी नाम से फिल्म भी बनी। 28 दिसंबर 1971 को रायपुर के डी.के. अस्पताल में बख्शी जी का निधन हुआ। प्रस्तुत है पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की यह चर्चित कहानी झलमला-

       झलमला
मैं बरामदे में टहल रहा था। इतने में मैंने देखा कि विमला दासी अपने आंचल के नीचे एक प्रदीप लेकर बड़ी भाभी के कमरे की ओर जा रही है। मैंने पूछा, ‘क्यों री, यह क्या है ?’ वह बोली, ‘झलमला।मैंने फिर पूछा, ‘इससे क्या होगा ?’ उसने उत्तर दिया, ‘नहीं जानते हो बाबू, आज तुम्हारी बड़ी भाभी पंडितजी की बहू की सखी होकर आई हैं। इसीलिए मैं उन्हें झलमला दिखाने जा रही हूँ।तब तो मैं भी किताब फेंककर घर के भीतर दौड़ गया। दीदी से जाकर मैं कहने लगा, ‘दीदी, थोड़ा तेल तो दो।दीदी ने कहा, ‘जा, अभी मैं काम में लगी हूँ।मैं निराश होकर अपने कमरे में लौट आया। फिर मैं सोचने लगा- यह अवसर जाने न देना चाहिए, अच्छी दिल्लगी होगी। मैं इधर- उधर देखने लगा। इतने में मेरी दृष्टि एक मोमबत्ती के टुकड़े पर पड़ी। मैंने उसे उठा लिया और एक दियासलाई का बक्स लेकर भाभी के कमरे की ओर गया। मुझे देखकर भाभी ने पूछा, ‘कैसे आए, बाबू?’ मैंने बिना उत्तर दिए ही मोमबत्ती के टुकड़े को जलाकर उनके सामने रख दिया।
भाभी ने हँसकर पूछा, ‘यह क्या है ? ‘
मैने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, ‘झलमला।
भाभी ने कुछ न कहकर मेरे हाथ पर पाँच रुपए रख दिए। मैं कहने लगा, ‘भाभी, क्या तुम्हारे प्रेम के आलोक का इतना ही मूल्य है ? ‘
भाभी ने हँसकर कहा, ‘तो कितना चाहिए ?’ मैंने कहा, ‘कम-से-कम एक गिनी।
भाभी कहने लगी, ‘अच्छा, इस पर लिख दो; मैं अभी देती हूँ।
मैंने तुरंत ही चाकू से मोमबत्ती के टुकड़े पर लिख दिया- मूल्य एक गिनी। भाभी ने गिनी निकालकर मुझे दे दी और मैं अपने कमरे में चला आया। कुछ दिनों बाद, गिनी के खर्च हो जाने पर मैं यह घटना बिलकुल भूल गया।
आठ वर्ष व्यतीत हो गए। मैं बी.ए., एल.एल.बी. होकर इलाहाबाद से घर लौटा। घर की वैसी दशा न थी जैसे आठ वर्ष पहले थी। न भाभी थी और न विमला दासी ही। भाभी हम लोगों को सदा के लिए छोड़कर स्वर्ग चली गई थीं, और विमला कटंगी में खेती करती थी। संध्या का समय था। मैं अपने कमरे में बैठा न जाने क्या सोच रहा था। पास ही कमरे में पड़ोस की कुछ स्त्रियों के साथ दीदी बैठी थीं। कुछ बातें हो रही थीं, इतने में मैंने  सुना, दीदी किसी स्त्री से कह रही हैं, ‘कुछ भी हो, बहन, मेरी बड़ी बहू घर की लक्ष्मी थी। उस स्त्री ने कहा, ‘हाँ बहन ! खूब याद आई, मैं तुमसे पूछने वाली थी। उस दिन तुमने मेरे पास सखी का संदूक भेजा था न? ‘
दीदी ने उत्तर दिया, ‘हाँ बहन, बहू कह गई थी कि उसे रोहिणी को दे देना।
उस स्त्री ने कहा, ‘उसमें सब तो ठीक था, पर एक विचित्र बात थी।
दीदी ने पूछा, ‘कैसी विचित्र बात? ‘
वह कहने लगी, ‘उसे मैंने खोलकर एक दिन देखा तो उसमें एक जगह खूब हिफाजत से रेशमी रूमाल में कुछ बंधा हुआ मिला। मैं सोचने लगी, यह क्या है। कौतूहलवश उसे खोलकर मैंने देखा। बहन, कहो तो उसमें भला क्या रहा होगा? ‘
दीदी ने उत्तर दिया, ‘गहना रहा होगा।
उसने हँसकर कहा, ‘नहीं, उसमें गहना न था वह तो एक अधजली मोमबत्ती का टुकड़ा था और उसपर लिखा हुआ था मूल्य एक गिनी।
क्षण भर के लिए मैं ज्ञानशू्न्य हो गया, फिर अपने हृदय के आवेग को न रोककर मैं उस कमरे में घुस पड़ा और चिल्लाकर कहने लगा, ‘वह मेरी है; मुझे दे दो।  कुछ स्त्रियाँ मुझे देखकर भागने लगीं। कुछ इधर- उधर देखने लगीं। उस स्त्री ने अपना सिर ढाँकते- ढाँकते कहा, ‘अच्छा बाबू, मैं कल उसे भेज दूंगी।
पर मैंने रात को एक दासी भेजकर उस टुकड़े को मँगा लिया। उस दिन मुझसे कुछ नहीं खाया गया।
पूछे जाने पर मैंने कहकर टाल दिया कि सिर में दर्द है। बड़ी देर तक मैं इधर- उधर टहलता रहा। जब सब सोने के लिए चले गए, तब मैं अपने कमरे में आया। मुझे उदास देखकर कमला पूछने लगी, ‘सिर का दर्द कैसा है ? ‘ पर मैंने कुछ उत्तर न दिया; चुपचाप जेब से मोमबत्ती को निकालकर जलाया और उसे एक कोने में रख दिया।
कमला ने पूछा, ‘यह क्या है ? ‘
मैंने उत्तर दिया, ‘झलमला।
कमला कुछ न समझ सकी। मैंने देखा कि थोड़ी देर में मेरे झलमले का क्षुद्र आलोक रात्रि के अनंत अँधकार में विलीन हो गया।