पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी छत्तीसगढ़ के पहले हिन्दी साधक हैं
जिन्हें राष्ट्रीय ख्याति मिली। सरस्वती जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का उन्होंने
संपादन किया। भारत में कला एवं संगीत के तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात खैरागढ़
में 1894 में जन्में बख्शी जी की शिक्षा दीक्षा प्रारंभ में खैरागढ़ में ही हुई।
पंडित रविशंकर शुक्ल खैरागढ़ में उनके शिक्षक थे। बनारस से उन्होंने उच्च शिक्षा
प्राप्त की। वे संस्कृत और अंग्रेजी के शिक्षक भी रहे। कालान्तर में दिग्विजय
महाविद्यालय में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्राध्यापक हुए।
उन्होंने एमए नहीं किया लेकिन सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें
मानद डी लिट् की उपाधि देकर सम्मानित किया। वे हाईस्कूल में पढ़ते थे तभी
देवकीनंदन खत्री लिखित चंद्रकांता से कुछ इस तरह जुड़े कि जीवन भर न केवल स्वयं
पढ़ते रहे बल्कि बहुतों को उस ग्रंथ के वाचन हेतु उन्होंने उत्प्रेरित किया।
वे मानते थे कि कभी- कभी विशेष युग में साधारण रचना के प्रति
भी विज्ञजन अनुराग रखते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। पाठक अपनी मानसिक क्षमता
के आधार पर ही रस ग्रहण करते हैं। मास्टर जी के रूप में विख्यात बख्शी जी की कहानी
झलमला अनोखी कहानी है। बहुतों ने इसे हिन्दी की पहली मौलिक कहानी भी माना है। 1916
में लिखित यह कहानी सरस्वती की हीरक जयंती अंक में प्रकाशित हुई।
बख्शी जी आत्मकथात्मक निबंध लेखन के लिए याद किए जाते हैं।
उनके एक निबंध को आधारित कर लोकनाट्य ‘कारी’ का ताना - बाना दाऊ
रामचंद्र देशमुख ने बुना। इस मंचीय कृति को पर्याप्त यश मिला। उसी नाम से फिल्म भी
बनी। 28 दिसंबर 1971 को रायपुर के डी.के. अस्पताल में बख्शी जी का निधन हुआ।
प्रस्तुत है पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की यह चर्चित कहानी झलमला-
झलमला
मैं बरामदे में टहल रहा था। इतने में मैंने देखा कि विमला
दासी अपने आंचल के नीचे एक प्रदीप लेकर बड़ी भाभी के कमरे की ओर जा रही है। मैंने
पूछा, ‘क्यों री, यह क्या है ?’ वह बोली, ‘झलमला।’ मैंने फिर पूछा, ‘इससे क्या होगा ?’ उसने उत्तर दिया, ‘नहीं जानते हो बाबू, आज तुम्हारी बड़ी भाभी पंडितजी की बहू की सखी होकर आई हैं। इसीलिए मैं
उन्हें झलमला दिखाने जा रही हूँ।’
तब तो
मैं भी किताब फेंककर घर के भीतर दौड़ गया। दीदी से जाकर मैं कहने लगा, ‘दीदी,
थोड़ा
तेल तो दो।’ दीदी ने कहा, ‘जा, अभी मैं काम में
लगी हूँ।’ मैं निराश होकर अपने कमरे
में लौट आया। फिर मैं सोचने लगा- यह अवसर जाने न देना चाहिए, अच्छी दिल्लगी होगी। मैं इधर- उधर देखने लगा। इतने में
मेरी दृष्टि एक मोमबत्ती के टुकड़े पर पड़ी। मैंने उसे उठा लिया और एक दियासलाई का
बक्स लेकर भाभी के कमरे की ओर गया। मुझे देखकर भाभी ने पूछा, ‘कैसे आए,
बाबू?’ मैंने बिना उत्तर दिए ही मोमबत्ती के टुकड़े को जलाकर
उनके सामने रख दिया।
भाभी ने हँसकर पूछा, ‘यह क्या है ? ‘
मैने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, ‘झलमला।’
भाभी ने कुछ न कहकर मेरे हाथ पर पाँच रुपए रख दिए। मैं कहने
लगा, ‘भाभी, क्या तुम्हारे प्रेम के आलोक का इतना ही मूल्य है ? ‘
भाभी ने हँसकर कहा, ‘तो कितना चाहिए ?’ मैंने कहा, ‘कम-से-कम एक गिनी।’
भाभी कहने लगी,
‘अच्छा, इस पर लिख दो; मैं अभी देती हूँ।’
मैंने तुरंत ही चाकू से मोमबत्ती के टुकड़े पर लिख दिया-
मूल्य एक गिनी। भाभी ने गिनी निकालकर मुझे दे दी और मैं अपने कमरे में चला आया।
कुछ दिनों बाद, गिनी के खर्च हो
जाने पर मैं यह घटना बिलकुल भूल गया।
आठ वर्ष व्यतीत हो गए। मैं बी.ए., एल.एल.बी. होकर इलाहाबाद से घर लौटा। घर की वैसी दशा न
थी जैसे आठ वर्ष पहले थी। न भाभी थी और न विमला दासी ही। भाभी हम लोगों को सदा के
लिए छोड़कर स्वर्ग चली गई थीं, और विमला कटंगी में
खेती करती थी। संध्या का समय था। मैं अपने कमरे में बैठा न जाने क्या सोच रहा था।
पास ही कमरे में पड़ोस की कुछ स्त्रियों के साथ दीदी बैठी थीं। कुछ बातें हो रही
थीं, इतने में मैंने सुना, दीदी किसी स्त्री से कह रही हैं, ‘कुछ भी हो, बहन, मेरी बड़ी बहू घर की लक्ष्मी थी।’
उस
स्त्री ने कहा, ‘हाँ बहन ! खूब याद
आई, मैं तुमसे पूछने वाली थी।
उस दिन तुमने मेरे पास सखी का संदूक भेजा था न? ‘
दीदी ने उत्तर दिया, ‘हाँ बहन, बहू कह गई थी कि
उसे रोहिणी को दे देना।’
उस स्त्री ने कहा, ‘उसमें सब तो ठीक था, पर एक विचित्र बात
थी।’
दीदी ने पूछा,
‘कैसी
विचित्र बात? ‘
वह कहने लगी,
‘उसे
मैंने खोलकर एक दिन देखा तो उसमें एक जगह खूब हिफाजत से रेशमी रूमाल में कुछ बंधा
हुआ मिला। मैं सोचने लगी, यह क्या है।
कौतूहलवश उसे खोलकर मैंने देखा। बहन,
कहो
तो उसमें भला क्या रहा होगा? ‘
दीदी ने उत्तर दिया, ‘गहना रहा होगा।’
उसने हँसकर कहा,
‘नहीं, उसमें गहना न था वह तो एक अधजली मोमबत्ती का टुकड़ा था
और उसपर लिखा हुआ था ‘मूल्य एक गिनी।’
क्षण भर के लिए मैं ज्ञानशू्न्य हो गया, फिर अपने हृदय के आवेग को न रोककर मैं उस कमरे में घुस
पड़ा और चिल्लाकर कहने लगा, ‘वह मेरी है; मुझे दे दो।’ कुछ स्त्रियाँ मुझे
देखकर भागने लगीं। कुछ इधर- उधर देखने लगीं। उस स्त्री ने अपना सिर ढाँकते- ढाँकते
कहा, ‘अच्छा बाबू, मैं कल उसे भेज दूंगी।’
पर मैंने रात को एक दासी भेजकर उस टुकड़े को मँगा लिया। उस
दिन मुझसे कुछ नहीं खाया गया।
पूछे जाने पर मैंने कहकर टाल दिया कि सिर में दर्द है। बड़ी
देर तक मैं इधर- उधर टहलता रहा। जब सब सोने के लिए चले गए, तब मैं अपने कमरे में आया। मुझे उदास देखकर कमला पूछने
लगी, ‘सिर का दर्द कैसा है ? ‘ पर मैंने कुछ उत्तर न दिया; चुपचाप जेब से मोमबत्ती को निकालकर जलाया और उसे एक
कोने में रख दिया।
कमला ने पूछा,
‘यह
क्या है ? ‘
मैंने उत्तर दिया, ‘झलमला।’
कमला कुछ न समझ सकी। मैंने देखा कि थोड़ी देर में मेरे झलमले
का क्षुद्र आलोक रात्रि के अनंत अँधकार में विलीन हो गया।
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