31 जुलाई 1880 में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे मुंशी
प्रेमचंद ने प्रारंभ में उर्दू में लेखन
किया। कुछ एक वर्षों के बाद वे हिन्दी में आए और अपनी विलक्षण प्रतिभा के
दम पर युग निर्माता कथाकार, उपन्यास सम्राट
कहलाए। हिन्दी कथा संसार को विश्व साहित्य के समकक्ष ले जाने वाले विलक्षण प्रतिभा
के धनी मुंशी प्रेमचंद ने गोदान लिखकर भारतीय किसानों के जीवन का अविस्मर्णीय
महाकाव्य रच दिया। गोदान लेखन पथ से जुड़े सभी पीढिय़ों के यात्रियों के लिए दीप
स्तंभ बन गया। भारतीय समाज के अद्भुत चितेरे प्रेमचंद ने महज 56 वर्षों का जीवन पाया। मगर उन्होंने इतने कम समय में
ही हिन्दी कथा, उपन्यास साहित्य को
शिखर पर पहुँचा दिया। वे गोर्की, लू सुन और शरदचंद्र
की तरह जनमन में रच बस गये। कलम की सत्ता और महत्ता को स्थापित करने वाले वे
हिन्दी के प्रथम क्रांतिकारी और सर्वपूज्य कथाकार हैं।
सामंतशाही और जातीय विषमता से संचारित ग्रामीण जीवन का चित्रण
प्राय: सभी भाषाओं के रचनाकारों ने किया लेकिन उत्तर भारत के किसानों के जीवन पर
मुंशी प्रेमचंद ने जो कुछ लिखा उसका सच एक सदी के बाद भी आज जस का तस हमें
प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। समय आगे बढ़ गया है लेकिन स्थितियाँ यथावत हैं। परतंत्र
भारत में जो दशा गरीब, पिछड़े, दलितों और किसानों की थी उसमें आज भी कोई खास फर्क
नहीं पड़ा है। स्वतंत्र भारत में किसानों ने कहीं अधिक आत्महत्या की है। समाज पहले
से और अधिक कठोर हुआ है। खाप पंचायतों की निजी अदालतों में चमकती तलवारें आधुनिक
सोच का सर कलम करती चल रही हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं एक अमर
कहानी है। प्रस्तुत है यह मार्मिक कहानी।
ठाकुर का कुआँ
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना
मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू
कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर
गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढऩे देगा? दूर से लोग डांट
बताएंगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ कौन पानी भरने देगा? कोई कुआँ गाँव में
नहीं है।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो
मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना
जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है।
बोली- यह पानी कैसे पियोंगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए
देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लाएगी?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्यों, एक लोटा पानी न भरन
देंगे?
'हाथ-पाँव
तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पाँच
लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर
झांकनें नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार
पानी पीने को न दिया।
रात के नौ बजे थे। थके- मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर
दस- पाँच बेफिक्रे जमा थे मैदान में। बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी
बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमें
में रिश्वत दे दी और साफ निकल गए। कितनी अकलमंदी से एक मार्केट के मुकदमें की नकल
ले आए। नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांगता , कोई सौ। यहां
बे-पैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने का ढँग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुंची।
कुप्पी की धुंधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़
में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के
लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें
करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग
गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं। चोरी ये करें, जाल- फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये
करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में
मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो
घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस- किस बात में हमसे ऊचे
हैं?
हम
गली- गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस- भरी आँख से
देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि
हम ऊँचे हैं!

कुएँ पर दो स्त्रियाँ पानी भरने आयी थीं। इनमें बातें हो रही
थीं।
'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं
है।’
हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।’
'हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडिया ही
तो हैं।’
'लौंडिया नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी- कपड़ा नहीं पातीं? दस- पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और
लौंडियाँ कैसी होती हैं!’
'मत लजाओ, दीदी! छिन- भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के
घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते- करते
मर जाओं,
पर
किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।’
दोनों पानी भरकर चली गईं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास
आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे।
गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए
जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ- बूझकर न गया
हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दाएँ- बाएँ चौकन्नी दृष्टि
से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। अगर इस समय वह
पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती- भर उम्मीद नहीं। अंत में
देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा- सी आवाज न हुई। गंगी ने दो- चार
हाथ जल्दी- जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी
इतनी तेजी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब
का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से
पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनाई देती रही।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से
कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला गंदा
पानी पी रहा है।
No comments:
Post a Comment