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Nov 14, 2015

उदंती- नवम्बर- 2015

उदंती- नवम्बर- 2015
जलाओ दिएपर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा परकहीँ रह न जाए- गोपाल दास नीरज

पर्व-संस्कृति-विशेष-2


Nov 13, 2015

एक छोटी सी पहल...

एक छोटी सी पहल...
                        - डॉ. रत्ना वर्मा
उदंती का पिछला अंक छत्तीसगढ़ के लोक जीवन से जुड़े पर्व-संस्कृति विशेष पर केन्द्रित था। यह अंक उसी कड़ी में दूसरा अंक है।
पर्व- त्योहारों के इस मौसम में लोक जीवन में उल्लास और उत्साह का माहौल होता है, क्योंकि धान की फसल पक चुकी होती है और किसान उनकी मिंजाई कर खलिहानों में रख चुका होता है। किसी भी क्षेत्र की लोक संस्कृति उस क्षेत्र विशेष की पहचान होती है और हमारी संस्कृति को जीवंत बनाए रखने में हमारे पर्व त्योहारों की विशेष भूमिका होती है।
छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान प्रदेश है , तो यहाँ के पर्व उत्सव भी अधिकांशत: कृषि से जुड़े होते हैं।  थके -हारे किसान को तब अपने मेहनती जीवन को जीवंत बनाए रखने के लिए रोज की दिनचर्या से हट कर बदलाव भी जरूरी है, फिरवह बदलाव चाहे पर्व त्योहार के रूप में हो या नाच गाने के रूप में हो। छत्तीसगढ़में मेले- मड़ई की अपनी एक अलग ही परम्परा है। लोक जीवन में इस मेले मड़ई का इंतजार लोग साल भर करते हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में मेले मड़ई की धूम होती है, जिनका अपना एक विशिष्ट महत्त्व होता है।
                ऐसा ही एक मेला मेरे अपने गाँव पलारी के सिद्धेश्वर मंदिर में भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन भरता है। आस- पास के गाँव के लोग इस मेले में कार्तिक स्नान के बाद दिन भर मेले का आंनद लेते है। उदंती के सितम्बर 2015 के धरोहर अंक में केन्द्र सरकार भारत द्वारा देश के बहुमूल्य सांस्कृतिक विरासतों के संरक्षण हेतु आरंभ की गई हृदय नामक योजना का उल्लेख मैंने किया था। 'हृदयनामक इस योजना में यह कहा गया है  कि हमारी धरोहरों की रक्षा का दायित्व सिर्फ पुरातत्त्व विभाग के पास नहीं होगा, बल्कि धरोहरों से प्रेम करने वाले लोग भी इन्हें बचाने में सक्रिय भागीदारी निभा सकेंगे। इस योजना ने सरकारी स्तर पर कितना काम शुरू किया है, अभी इसकी जानकारी तो नहीं है परंतु इस योजना के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए पलारी के इस ऐतिहासिक धरोहर सिद्धेश्वर मंदिर में मेले के अवसर पर माटी समाज सेवी संस्था ने मंदिर की सुरक्षा के साथ मंदिर परिसर की स्वच्छता का अभियान चलाकर एक छोटा-सा प्रयास जरूर किया।
प्रति वर्ष होता यह था कि मेले के दिन प्रात: काल से ही श्रद्धालु स्नान के बाद शिव मंदिर में पूजा - अर्चना करने के बाद श्रद्धापूर्वक नारियल तो चढ़ाते थे, पर प्रसाद के रूप में नारियल वहीं मंदिर परिसर में फोड़कर कच्चे नारियल का पानी और उसका छिलका जहाँ -तहाँ बिखराकर चला जाते थे, इतना ही नहीं नारियल भगवान के पास ही तोडऩे की होड़ में लोग मुख्य मंदिर के सामने बैठे नंदी के ऊपर ही नारियल तोड़ कर अपनी भक्ति का परिचय देते नजऱ आते थे, और तो और मंदिर की परिक्रमा करतेसमय 9वीं सदी में ईंटों से बने इस ऐतिहासिक धरोहर के ऊपर ही नारियल तोड़कर अपनी पूजा सम्पन्न करते थे।
मंदिर परिसर के भीतर पॉलीथीन की थैलिया न फैलें, इसके लिए नारियल बेचने वालों से भी अनुरोध किया गया कि वे नारियल, फूल और अगरबत्ती हाथ में ही दें, और भक्तों से भी निवेदन किया कि कृपया वे सिर्फ नारियल और और फूल ही चढ़ाएँ, पॉलीथीन कचरे के डब्बे में डालें, पर जब इसमें सफलता नहीं मिली, तो संस्था के सदस्य मंदिर के मुख्य द्वार के पास खड़े हो गए और नारियल चढ़ाने वालों से वापसी में पॉलीथीन माँगकर स्वयं ही उसे कचरे के डब्बे में डालने लगे। यह देख कर बहुतों ने पॉलीथीन इधर- उधर फेंकना बंद किया।
लेकिन इस वर्ष माटी समाज सेवी संस्था द्वारा मंदिर परिसर में जगह -जगह स्वच्छता बनाए रखने की अपील करते हुए कुछ पोस्टर लगा कर लोगों को जहाँ -तहाँ नारियल तोडऩे से मना करने की अपील की गई थी। यद्यपि श्रद्धालुओं की भीड़ जैसे -जैसे बढ़ती गई वैसे -वैसे इन पोस्टरों की ओर लोगों का ध्यान ही नहीं गया और लोगों ने तालाब की सीढिय़ों से लेकर चारो तरफ नारियल तोडऩा और कचरा फैलाना शुरू कर दिया था, परंतु संस्था के सदस्यों की सक्रियता से इस पर भी नियंत्रण कर लिया गया। साथ ही बढ़ती भीड़ में सबको आराम से पूजा- अर्चना करने का अवसर मिले ; इसके लिए लाइन लगाकर उन्हें भीतर जाने का अनुरोध किया गयायह प्रयास भी सफल रहा। प्रशासन की ओर से तैनात पुलिस विभाग का भी इसमें पूरा सहयोग मिला और बगैर धक्का-मुक्की के बहुत आराम से सबने पूजा की। अगर इसी तरह का सहयोग स्थानीय नगर पालिका का भी मिले, तो मंदिर परिसर के बाहर जहाँ मेला भरता , उसे भी साफ सुथरा रखा जा सकता है। इससे होगा यह कि तालाब तो गंदा होने से बचेगा ही ,पॉलीथीन तथा अन्य कचरों से मंदिर के आस- पास जो गंदगी फैलती है उसे भी रोका जा सकेगा। जब तीन- चार लोग मिलकर, चार-छह पोस्टर लगा कर मंदिर परिसर को मेला खत्म होते तक साफ - सुथरा रख  सकते है ; तो पूरे मेले वाले स्थान में भी सफाई रखी जा सकती है। इस तरह हम मेले- मड़ई वाले पर्व-उत्सव के अवसर पर जागरूक रहकर अपनी संस्कृति और परम्परा का भी सम्मान रख सकेंगे और अपनी अमूल्य धरोहरों को भी नष्ट होने से बचा पाएँगे।
जरूरत सिर्फ कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति और दृढ़ निश्चय की है। हर कोई यदि इसी तरह सजग रहकर अपने अपने आस-पास के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों की स्वच्छता का ध्यान रखने लगे ,तो स्वच्छ भारत के सपने को पूरा होने से कोई नहीं रोक सकता। 

देवारी

     जगमगावत हे दीया घर दुवारी 
      भाग जागे रे आगे देवारी
               -डॉ.परदेशीराम वर्मा
गुसाई तुलसीदास जी ने लंका विजय के बाद श्रीराम के अवध आगमन पर उल्लास का अद्भुत चित्र खींचा है।
नाना भाँति सुमंगल साजे, हरषि नगर निसान बहु बाजे।
छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के सभी प्रांतों में न केवल नगर बल्कि गाँव-गाँव दीपावली में उल्लास का ऐसा ही वातावरण रहता है। छत्तीसगढ़ में दीपावली त्योहार, विशेषकर गाँवों में देखते ही बनती है। यूँ समझिए कि दशहरे के बाद लगातार दीवाली की प्रतिदिन तैयारी चलने लगती है। घरों की छबाई, छुई से पुताई से लेकर सफाई का काम लगातार चलता है। एक दिव्य रोशनी जल उठती है, दियों के भीतर। यह रोशनी लगातार प्रकाशमान होकर सुरहुती अर्थात गौरा-गौरी पूजन के दिन पूरे प्रभाव के साथ परिव्याप्त होती है।
दशहरे के बाद गाँवों में अगासदिया (आकाश दीप) टाँगने की परंपरा आज भी यथावत है। मान्यता है कि भगवान श्रीराम जब रावण वध कर अयोध्या लौटे तो अवध में श्रीराम की विजय को दीपोत्सव के माध्यम से सबने अविस्मरणीय बनाने का प्रयास किया। एक दिव्य परम्परा इस तरह शुरू हुई। दिये न केवल जमीन पर जले बल्कि अगास (आकाश) में भी जलाकर टाँगे गए। बाँस के सहारे दिये को एक विशेष प्रकार के सज्जित बेदी में सजाकर ऊपर ले जाया गया। घर-घर में ऊपर बाँस की पुलगी पर टँगा यही आकाशदीप छत्तीसगढ़ी में अगासदिया कहलाता है। यह अगासदिया जठौनी अर्थात देव-उठनी तक उसी तरह रोज रात को ऊपर आसमान में जलता है।
अगासदिया दशहरा के दूसरे दिन से जलता है, उसी तरह इसी दिन से कार्तिक स्नान भी शुरू होता है। गाँव में कार्तिक स्नान 40 दिन तक चलता है। इसमें 5 दिन कुवाँर के, तीस दिन कार्तिक के एवं 5 दिन अगहन के होते हैं। यह 40 दिन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। ऋ षियों और पुरखों ने इसी ढंग से इन परम्पराओं को निर्धारित किया है।
इसी बीच में दीपावली का पर्व आता है। ठीक बीसवें दिन उसके बाद बीस और स्नान का समय रहता है।
दीपावली के तीनों दिन गाँवों में लगातार नाचने-गाने, मिलने-जुलने के होते हैं। दीपावली से जो महाउल्लास का वर्ष प्रारंभ होता है वह लगातार चलता है। होली तक इसी तरह उल्लासमय वातावरण बना रहता है। दीपावली फिर जेठौनी और फिर गाँव-गाँव मेला मड़ई।
इस दोहे में इसका सुन्दर वर्णन है.......
आवत देवारी लुहि लुहिया, जाबत देवारी बड़ दूर।
जा-जा देवारी अपन घर, फागुन उड़ावै धूर।।
देवारी तिहार: तीन दिन का महापर्व
दीवाली त्योहार को छत्तीसगढ़ी में देवारी तिहार कहते हैं।
छत्तीसगढ़ में दीवाली का त्योहार तीन दिनों का होता है। और यह महज रोशनी का त्योहार बनकर नहीं आता बल्कि यादों के चिराग को रोशन करने का अवसर बनकर आता है। परम्परा है कि छत्तीसगढ़ी व्यक्ति दीवाली में सौ योजन लाँघकर भी अपने गाँव जरूर पहुँचता है। शहर में जा बसा बड़ा से बड़ा व्यक्ति अगर दिवाली में अपने मूल गाँव में गैरहाजिर रहा तो समझिए साल भर उसे उलाहना किसी न किसी माध्यम से मिलेगा- 'अब तो तुमन बड़े आदमी हो गेव ग, गाँव ल भुला देवÓ। इस उलाहने के डर से भी शहरी मनुष्य गाँव जरूर पहुँचता है।
सुरहुत्ती अर्थात लक्ष्मीपूजन का पहला दिन गाँव के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होता है। शाम होते न होते गाँव के बेटे पहुँचने लगते हैं। अब तो हर गाँव में कारों से आने वाले सपूत भी पाये जाने लगे हैं। अलबत्ता हर गाँव में घर के आगे चौंरा बनाने और बढ़ाने की गंवइहा प्रवृत्ति के कारण उनकी कारें घरों तक नहीं पहुँच पा रही हैं। लेकिन गाँव का बेटा कार वाला हो गया है, इस सुख को वे लोग भी महसूस करते हैं जिनके घरों में बेकार जवान बेटे बैठे-बैठे बुढ़ा रहे हैं। शाम ढलते ही जगमग-जगमग माटी के गोड़ी दिये जलने लगते हैं।
सुरहुत्ती अर्थात दीप पर्व के प्रथम दिन गीत गूँज उठता है गाँव में...
करसा सिंगारौं मइया रिगबिग रिगबिग
यह करसा गौरा पूजा का करसा होता है जिसे इसर राजा अर्थात भगवान शिव की अभ्यर्थना के पर्व गौरा-गौरी पूजा के अवसर पर गोंड़ समाज की बहनें अपने भाई के घर आकर तैयार करती हैं। छत्तीसगढ़ में गौरा-गौरी की पूजा गाँव के गोंड़ पारा के गौरा चौंरा में सप्ताह भर पहले शुरू हो जाता है। वे बाजे-गाजे के साथ मिट्टी लाने जाते हैं। उसी मिट्टी से कलाकार शिव-पार्वती अर्थात गौरा-गौरी की मूर्ति बनाता है। इसमें मुखाकृतियाँ नहीं होती; बल्कि प्रतीक के रूप में गौरा-गौरी को पघराया जाता है। पन्नियों से सजी गौरा-गौरी की पिढु़ली देखते ही बनती है।
रात्रि के प्रथम प्रहर में गाँव भर के भक्तजन गौरा-गौरी को चौंरा में पघराते हैं। रात भर गीतों के माध्यम से आराधना की जाती है। अंतिम प्रहर में गौरा-गौरी भक्तों के सिर पर चढ़कर गाँव भर घूमते हैं। फिर उन्हें गाँव के तालाब में सिराया जाता है। दूसरा दिन राउतों का दिन होता है। साल भर जो राउत मालिकों के पशुओं को चराते हैं; उन्हें दीवाली के दिन मालिक स्वयं जाकर घर से निकालते हैं। पूरे सम्मान के साथ। बाजे- गाजे के साथ सभी राउतों को घरों से निकाला जाता है फिर, सब मिल-जुल कर गोबर-धन खुंदाने जाते हैं। गोबर के टीके लगाकर सभी छोटे बड़े एक दूसरे का जय-जोहार करते हैं और इस तरह पुन: अखाड़ची जवान अपना करतब दिखाते हुए वापस गाँव की ओर लौटते हैं।
तीसरा दिन ठेठवारों का होता है। यह मातर तिहार कहलाता है। गाँव भर के लोग मातर जमाने मैदान में जाते हैं। जहाँ पशुओं को डाँड़ खेलाया जाता है।
शाम को पुन: ठेठवारों का काछन निकलता है। मस्ती में झूमते ठेठवार मैदान की ओर जाते हैं। वहाँ ठेठवारों  और ग्वाल-बालों की ओर से मालिकों को दूध पिलाया जाता है। इसके बाद कृष्ण-लीला का अंश प्रस्तुत किया जाता है। रुष्ट इंद्र से गाँव की रक्षा करने वाले भगवान कृष्ण की लीला होती है। इन्द्र का मानमर्दन होता है और सभी मिलजुल कर गाँव लौटते हैं।
दीपावली त्योहार  में छत्तीसगढ़ अल्पवृष्टि और अतिवृष्टि की मार भी भूल जाता है। छत्तीसगढ़ विरागी जनों की धरती है। भाव में डूबे हुए संतों की धरती। लेकिन अब संतों की धरती भी अँगड़ाई ले रही है। कल तक के दोहों में मालिकों की स्तुतियाँ हुआ करती थीं; लेकिन अब राउतों के दोहों में उनकी जिन्दगी का संघर्ष और दु:ख भी प्रकट होने लगा है। व्यंग्य बने दोहे की एक झलक से हम परिवर्तन की आहट पा सकते हैं...
जेखर हाथ म लउठी भइया,
ओखर हाथ म भंइसा।
बघवा मन सब कोलिहा होगे,
देख तमाशा कइसा।
  हमारा यह रोशन प्रदेश
 छत्तीसगढ़ आपदाओं  और प्राकृतिक प्रहार से बचा रहता है। सुरक्षित शांत यह प्रदेश अपनी विशेषताओं के कारण सबको अपनी ओर खींचता है। यह सबको आगे बढ़कर गले लगाने वालों का प्रदेश है। संभवत: इसी लिए सब इसे भी भरपूर मान देते हैं। अगर नक्सल समस्या से हमारा प्रदेश मुक्त रहता तो देश के इस अनोखे प्रदेश की गतिशीलता नया इतिहास रचती।
तमाम अंतर्विरोधों और जकड़ के बावज़ूद छत्तीसगढ़ प्रगति की ओर लगातार अग्रसर है। दीपावली का पर्व छत्तीसगढ़ के लिए प्रति वर्ष नई आशा का संदेश लेकर आता है। दीपावली के ठीक बाद छत्तीसगढ़ का किसान फसल काटता है। फिर उसे खलिहान लाता है। इस तरह अपने घर की कोठी तक अन्न को लाकर सहेजने का क्रम शुरू हो जाता है। दीपावली मनाता हुआ किसान खेत में लहराते धान और पशु-शाला में पगुराते अपने संगी बैल और भैंसा का भी भरपूर मान -सम्मान करता है।
साल भर में एक फसल लेने की छत्तीसगढ़ में परम्परा रही है। अल्प-संतोषी छत्तीसगढिय़ा लगातार उपार्जन कर केवल आर्थिक सम्पन्नता के लिए प्रयास नहीं करता। आज प्रदेश में धान का रकबा तो नहीं बढ़ा है; लेकिन फसल उत्पादन बढ़ गया है। गाँवों के पास तक उद्योग चले आये हैं। गाँव वाले छोटे किसान मजदूर की कमी से त्रस्त हैं। फिर भी अपनी जिजीविषा के बल पर वे धरती का उसी तरह शृंगार कर रहे हैं।
दीपावली अँधेरे से उजाले की यात्रा का पर्व है। देखें यह अर्थपूर्ण लोकरंजक पद, जिसमें दीपों की जगमगाहट है...
भाग जागे रे आगे देवारी,
गँउरा चँवरा मा कुचरागे अँधियारी।
जगमगावत हे दीया घर दुवारी,
भाग जागे रे आगे देवारी। 
 सम्पर्क: एल.आई.जी.-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाई-490009, छत्तीसगढ़, मो.-9827993494

सुआ नृत्य

 सुअना से संदेश भिजवाने की परम्परा

                   - श्यामलाल चतुर्वेदी

भारत में लोक साहित्य की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। आदि काल में जब प्रकृति के पालने में मनु के वंशजों ने, पुचकारने दुलारने के सिवाय अस्तित्व बनाये रखने के लिए जिन उपक्रमों को किया होगा तब से ही लोक साहित्य ग्रन्थों में लोक जीवन का वर्णन मिलना स्वंय सिद्ध करता है कि यह उनका अग्रज है। श्रुति और स्मृति ने लोक जीवन की चिरन्तम धारा को समय की सपाट मैदानी भूमि दी और व्यापक बनाया। मसि और कागद ने उसे बाद में संपादित किया और भावी पीढिय़ों के लिए पृष्ठ प्रदान किया। पृष्टाँकित पोथियों को पृष्ठभूमि प्रदान करने वाले लोक जीवन के अंगभूत ये लोक साहित्य, पर्वतों के सरिताओं के मानों समकालीन सहोदर हैं।
जन जीवन के दर्पण लोक साहित्य को गीत, कथा, नाट्य, नृत्य की प्राचीनता और अधिक मानी गई है। कहते हैं कि मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य में प्रकाशन के लिए शरीर के हाव भाव का आश्रय लिया होगा। भाव प्रकाशन की इन्हीं चेष्ठाओं के सार्थक मुद्राओं को भाषा ने नृत्य की संज्ञा दी है।
नृत्यु के आदि देव देवाधिदेव शंकर कहे जाते हैं। किंवदन्ती है कि त्रिपुरासुर-वद्य करने के पश्चात् शिवजी नाचने लगे इसी से नृत्य कला की सृष्टि हुई। कैलाश पर्वत पर वास करना पसन्द करने वाले शिव पार्वती के इन अनुयायी वनवासियों के जीवन में फक्कड़ पन, अल्पसंतोषी वृत्ति, निर्जन निवास, आशु तोषी स्वभाव, गम गलत करने के चाव के सिवाय नृत्य प्रियता सर्व विदित है।
मानव हृदय की, प्रकृत भावनात्मक तन्मयता की, तीव्रतम अवस्था को अभिव्यक्त करने में, लोक नृत्य का अपना विशिष्ट स्थान है। साधारणीकरण करने में इतना व्यापक है कि उसे समझने के लिए किसी बौद्धिक यत्न की आवश्यकता नहीं होती। इस साधारणीकरण का कारण मनुष्य के हृदय की रागात्मक प्रवृतियाँ है।
लोक नृत्य में वासना भी साधना बन जाती है। वासना को साधना में परिवर्तित करना, उसकी जीवन-गति और निश्छल-हृदय का द्योतक है। यह, प्रसिद्धि प्राप्त करने या धनापार्जन का जरिया नहीं, वरन जीवन के आनन्द को बनाये रखने का साधन है इससे लोक-जीवन की निष्काम प्रवृत्ति का परिचय मिलता है।
भारत की विविधता में एकता के दर्शन कहीं के भी अबूझें स्वरों में मार्मिक स्पर्शन, अनजाने होते हुए भी अपनत्व के आकर्षण ये सब लोक संगीत के प्रिय प्रसाद हैं। इस प्रसाद से आत्म तुष्ट छत्तीसगढ़ भी संजीवनी थाती से अपनी पहचान बनाये रखने का सामथ्र्य संजोये, विस्तीर्ण अंचल में कोकिल कंठ स्वरों मांदर की मदिर निनादों के साथ मस्ती में होने वाले झंकारों से गुंजित रहता है।
छत्तीसगढ़ भारत के हृदय-स्थल के विस्तीर्ण वनांचल में स्थित, अनेक नद- नदियों के कल-कल ध्वनियों से निनादित अपनी लोक परम्परा से आपूरित आदिवासयिों की भूमि है जहाँ ऐतिहासिक घटनाओं के साक्ष्य स्वरूप अनेक अवशेष अभी भी विद्यमान हैं। वनवासी बहुल इस अंचल में अपने आराध्य भोलेनाथ की अर्चना में अंगीकृत सुआ नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यह गउरा का एक अंग है।
गउरा याने गौरी और गौरा के विवाह का आयोजन प्रतिवर्ष किये जाने वाले इस समारोह के माध्यम से इन्होंने अपने आराध्य का मानवीकरण कर डाला है और सब मिलकर जैसे अपने किसी परिजन परन्तु पूज्य का वैवाहिक संस्करण कर पूजा में प्रसन्नता को पा लेते हैं। भोले के भक्तों को इसी में आनन्द है।
दिवाली या देवउठनी को प्राय: यह आयोजन किया जाता है। सात दिन पहले फूल कूचने की विधि होती है जिसमें सात प्रकार के फूलों को कुमार और कुमारी के हाथों कुचवा कर विवाह समारोह का शुभारंभ करते हैं। रात में एकत्रित होकर होम धूप देते और गौरा गीत गाते हैं। मांदर के मंदिर स्वराधान में शिव स्तवन श्रवणीय होता है जिसमें गउरी गउरा का मानवीकरण उनकी आत्मीयता की प्रेमिल अभिव्यक्ति के निदर्शक है।
गउरा सहकारी संस्करण का सांस्कृतिक स्वरूप है। परिवार जाति समाज तथा गाँव की स्त्रियाँ स्वेच्छा से एक में सुआ  (तोता) मृण्मयी मूर्ति लेकर अपने टोली में सुआ नाचने निकल पड़ती हैं। बनाव सिंगार कुछ खास नहीं, धान की बालियाँ या गेंदा के फूलों को कान्हों में खोंस लिया, बहुत हुआ तो अपने पास नहीं होने पर पास पड़ोसिन की ककनी, कड़ा  रूपिया, करधनी लेकर घर जानकर आँगन के बीच सुआ को रखकर मंडलाकार हो गीत के साथ ताली बजाती हुए नाचने लगती हैं। नृत्य के उपलक्ष्य में उस घर से चावल, तेल और यथाशक्ति कुछ पैसा प्रसन्नता पूर्वक प्रदान किया जाता है। संगृहीत इन वस्तुओं का उपयोग गउरा में किया जाता है। 'एक सबके लिए और सब एक के लिए इस बोध वाक्य का अनादिकालीन आचरण गौरा में देखने को मिलता है।
सुआ गीतों में विविध भावों की मर्मस्पर्शी महक मिलती है। नारी जीवन की विवशताएँ, सास ससुर के प्रताडऩा, ननंद के नखरे, हिंसक पशु के हृदय परिवर्तन, पति वियोग की व्यथा, राजा का भगवान का मानवीकरण पक्षियों के कलरव, मायके जाने की आतुरता आदि अगणित पहलुओं के वर्णन से इसका अगाध भंडार भरपूर है। कितना है कौन कह सकता है?
सुआ को संबोधित कर ये नर्तकियाँ या गायिकाएँ कहिए अपने मन के मलाल को बखान देती हैं। सुअना से संदेश भिजवाने की प्राचीन परम्परा रही है। चन्दा ग्वालिन मुगल बादशाह के बन्दीगृह से अपने शरीर के मैल से सुआ बनाकर संदेश भिजवाती है और लोरिक सन्देश पाकर शीघ्र पहुँचकर बादशाह को अपने शौर्य से ठिकाने लगाता है। छत्तीसगढ़ के लोक भावना को प्रसारित कराने में सुआ का सहयोग सदा से रहता आया है यो तो सुआ सार्वदेशिक संदेशिया है।
इस नृत्य-गीत में किसी वाद्य का प्रयोग नहीं किया जाता। आश्चर्य है गीत सब तालबद्ध हैं दीपचन्दी कहरवा और दादरा में न जाने कैसे बँध गये हैं निरक्षर भट्टाचार्य के अनगढऩ चाल में यह  तालबद्धता? क्या खूब है।
हाँ तो आइए सुआ गीतों में वर्णित भावनाओं की रस धारा का आस्वादन करें और देखें कि कितनी गहराइयों तक इनकी पैठ है?
एक गीत में नारी जीवन की व्यथा कथा, उनकी ही बोली में:
पइयां मैं लागौं चन्दा सुरूज के
 रे सुअना।
तिरिया जनम झनि देय।
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर
जहँ पठवय तहँ जाय।
अंगठिन मोरि मोरि घर लिपवावँय
फेर ननंद के मन नहि आय।
बांह पकड़ के सइयाँ घर लानय
फेर ससुर हर सटका बताय।
भाई ल दे हे रंगमहल दुमंजला
हमला तैं दिहे रे विदेस
पहली गवन करै डेहरी बइठारे
छोडि़ के चलय बनिजार।।
तुहूँ धनी जा था अनिज बनिज बर
कइसे के रइहौं ससुरार
सासे संग खाई बे ननद संग सोई बे
के लहुरा देवर मन भाय।
सासे डोकरिया मर हरजाही,
ननद पठोबौ ससुरार
लहुरा देवर मोर बेटवा बरोबर
कइसे रइहौं मन बाँध।
दिन के देवता सूरज और राज के देव चन्द्रमा से तिरिया जन्म न देने की अत्यन्त दीनता से प्रार्थना करते हुए गाय जैसे परवशता की उपमा सांगोपांग है।
हरही के संग मा कपिला के विनाश इस लोकोक्ति की अन्तरकथा भारत के अनेक भाषाओं में वर्णित है। लोक धारा के अन्तप्र्रान्तीय प्रवाह में यह मिलता है जो कि भारतीय एकात्मता का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिंसक व्याघ्र के हृदय परिवर्तन की प्रेरक पंक्तियाँ इस प्रकार है:
आगू आगू हरही
पाछू-पाछू सुरही रे सुअना।
चले जाथें कदली कछार
एक बन जइहें दुसर बन जइहें
तीसरे म सगरी के पार।
एक मुँह चरिन दुसर मुँह चरिन
के बघवा उठे घहराय
रहा रहा सिंघ मोर रहा रहा बघवा
पिलवा गोरस देहे जाँव।
कोन तोर सखी, कोन तोर सुमित्रा
कउन ला देबे तैं रे गवाह।
चंदा मोर सखी, सुरूज मोर सुमित्रा
धरती ल दे हौ रे गवाह।
एक बन अइहें दुसर बन अइहें
तिसरे म गाँवे के तीर।
एक गली नाहकै दुसर गली नाहकै
तिसरे म जाइ औल्हियाय।
पिले रे पिले रे मोर भाँवर लेवाई
मोर दुधवा दुलम होइ जाय
आन दिन अवास दाई होंकरन चोकरत
आज दाई बदन मलीन।
आन दिन भेटौं में गाँवे गँवरसा म
आज भेटेंव कदली कछार
हरही के संग मा कपिला बिनासे
आज मोर होइस नास।
आगू आगू हरही पाछू-पाछू सुरही
माँझे म पिलवा हर जाय।
एक बन नहक दुसर बन नहकैं
तिसर मा सगरी के पार।
सगरी के पारे म चन्दन के बिरछा
ओही मेर रहै रखवार।
रामे राम ममा जोहार मोर भाँचा
कइसे के मोर बहिनी खाँव।
इस अखिल भारत प्रचलित कथा को भादों बदि चौथ जिसे बहुला चौथ कहते हैं उसदिन उपवास करके श्रवण किया जाता हैं। उसमें यह भी उल्लेख मिलता है कि गाय के पीछे मालकिन मालिक अपने को गाय के साथ खा लेने की प्रार्थना करने वहाँ पहुँचते हैं। व्याघ्र के मन में गाय के वचन पालन की अनुपम घटना का गहरा प्रभाव पड़ता है कि ऐसे पुण्यात्माओं की अपनी पिपासा के लिए हत्या करना, महान पाप होगा। हिंसक पशु का हृदय परिवर्तन होता है और भाँजा बछड़े को अपने प्राण हरण का अनुरोध कर जीवन्मुक्त हो जाता है।
बुंदेलखंड में प्रचलित इस गाथा के पद इन शब्दों में बहुश्रुत है:
घरई से निकरी सुरहन गइया
चरन नंदन बन जायें हो माय
एक बन तांकी दुइज बन तांकी
तिज बन पोंची जाय।
चम्पा हो चरलई चमेली चरलई
चरलई सब फुलबार हो माय
जब मुख डारे नंदन बन बिरछा
सिंगा उठे हो गुंजारे हो माय
मोये जिन भकिये, सिंघ के बारे,
बछवा घर नादान हो माय
ओरी मैया,बछले दूध दिवांव हो माय।
इस कथा का कन्नड़ भाषा से प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक श्री राजाराव ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था जिसका पद्यानुवाद हिन्दी में करके श्री प्रभाकर माचवे ने महात्मा गाँधी को समर्पित किया। साने गुरूजी ने मराठी में इसके प्रचलन का उल्लेख सहायाद्रि में किया था। कथा यात्रा की भारतीय व्यापकता, एकत्व का सत्यं शिवं सुन्दरं स्वरूप है। एक पद्यांश देखिए:
सोने के मचिया म बइठे राजा दशरथ
कतर थे बंगला के पान।
कतरत कतरत अँगुरी कटागे।
बोहिगे रकत के धार
क्या कमाल है राजा दशरथ से पान कतर गाने का काम आखिर लोकाभिव्यक्ति के सिवाय और कौन करा सकता है? उनके जो हैं न?
दूसरे एक गीत में बहू द्वारा पानी भरते समय पैर फिसलने से गगरी फूटने पर ननंद नमक मिर्च लगाकर अपने माँ बाप और भाई से लिगरी लगाती है। पिटवाने में असफल रहने पर गेहूँ चना पीसने को देती है। उलझने से हार टूटने की बात को बढ़ाकर कितना निर्दय प्रयास है। नंनद के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया हैं। सीता स्वयंवर के गीत में बाइस कोस ले मंड़वा छवाने एक हजार कदली खंभ लगाने के सिवाय लक्ष्मण का यह कथन-  सिव के धनुस ला माखुर कस, मलिहौं, दिलस्चप है।
कतिपय गीतों में ऐतिहासिक घटनाओं की झलक भी मिलती है। सुआ नाचने वाली टोली, बिदाई देने के बाद आशीर्वाद इन पंक्तियों में देती है-
जइसे ओ मइला लिहे दिहे
 आना रे सुअना।
तइसे न दे बो असीस
अन धन लछमी म
 तोरे घर भरै रे सुअना
जियो जुग लाख बरीस।।

(छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री श्यामलाल चतुर्वेदी के निबंध संग्रह 'मेरे निबन्धसे साभार)

रावत नाच

शौर्य
और
संस्कृति
का
लोक संगम
छत्तीसगढ़ का रावत नाच अपनी बहुरंगी नृत्य छटा एवं नयनाभिराम छवि की वजह से छत्तीसगढ़ में नहीं अपितु देश भर में अपनी अलग पहचान बनाई है। यह महज पर्व ही नहीं अपितु जीवन की प्रमाणिक अभिव्यक्ति है जो वर्ष भर सपुत्र के रुप में बंधी रहती है और वर्षांत में अपने सामूहिक उल्लास का प्रकटीकरण गली-गली, घर-घर और बाजार के चौपालों में देख पाते हैं।
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में जहाँ टीवी प्रिंट मीडिया व सायबर युग में सिमटकर लोक संस्कृति अपनी अस्मिता व अस्तित्व के लिए संघर्षरत है वहीं अनेक लोक परम्पराएं अपने जीवंतरूप में आज भी विद्यमान हैं। वहीं लोकनृत्य में पंडवानी, गम्मत व राउत नाचा जीवन में नया प्राण फूंक रहा जिनमें रावत नाच, शौर्य और संस्कृति को अपने में समेट कलात्मकता का परिचय दे रहा है।
सिर में धोती का पागा उसमें लगा मोर पंख की कलगी मुंह में पीली मिट्टी, आंखों में काजल, गाल में डिठौनी माथे पर चंदन का टीका और कपड़े के रंगीन जूते मोजे बंधी गोटिस और घुंघरु घुटने के ऊपर तक कसा हुआ चोलना व उस पर फुंदरी कमीज की जगह पूरे आस्तीन का रंगीन सलमा सितार युक्त आस्किट जिसके ऊपर कौडिय़ों से बनी पेटी एवं बाहों में कौडिय़ां बांधे, तेंदू की लाठी एक हाथ में दूसरे हाथ में सुरक्षा रूपी लोहे या तांबे की फरी जब रावत चलता है तो ऐसा लगता है मानो युद्ध के लिए श्रीकृष्ण की सेना रथ पर चल पड़ी हो। उनके थिरकते पांव से सारा जहाँ रूक जाता है। वे नृत्य में अपनी लाठी द्वारा शौर्य प्रदर्शन करते हैं और अपने आंगन में देवउठनी एकादशी के दिन से दस्तक देते है।
राउत नाचा की उत्पत्ति का कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध है लेकिन पौराणिक गाथाओं के आधार पर जो धारणा प्रचलित है उसके अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन श्री कृष्ण ने कंस के अत्याचार से पीडि़त जनता को मुक्ति दिलाई तब से यदुवंशियों ने मुक्ति का पर्व मनाते हुए उत्सव का आयोजन किया। सम्भवत: तभी से रावत नाच का शुरुआत हुआ।
श्रीमदभागवत कथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने यमुना के तट पर बालुका लिंग की स्थापना के अवसर पर यदुवंशियों ने 7 दिन तक नृत्य किया, रावत नाच उद्भव के मूल में पुराण सम्मत यह घटना ही सर्वमान्य हैं रावत नाच अपने प्रारंभिक रूप से अब  तक जीवित है परंतु आधुनिक सभ्यता के प्रभाव से अछूता नहीं है। गाँव में जब गोवर्धन पूजा मनाते है उसी दिन रावत नाचा पर्व की शुरुआत होती है। इस अवसर पर सभी ग्रामवासी गोवर्धन पर्वत गाय बछड़े एवं रावत रौताइन की मूर्ति पवित्र गोबर से बनाकर उसमें सिलयारी घास गेंदाफूल व धान से सजाते संवारते हैं और पूजा अर्चना करते है जिस बात का प्रतीक श्रीकृष्ण ने नेतृत्व में अन्यायी शासक घमण्डी इन्द्र का विद्रोह कर पहाड़ मैदान व चारागाह की पूजा की अपनी इसी पशुधन पर्वत व चारागाह के लिए यादव ने इन्द्र व क्रूर शासक कंस से युद्ध किया। यह युद्ध किन्हीं दो शासकों के मध्य न होकर अन्यायी शासक के खिलाफ (विरुद्ध) सामाजिक युद्ध था जो कि शोषण व अत्याचार के विरुद्ध था।
यादव ही संघर्ष गाथा अनुत्पादक तथ्य और सामाजिक श्रम की उपयोगिता से जुड़ी है। यह संघर्ष किसी एक विशेष जाति का नहीं अपितु सभी वर्गों की मुक्ति के लिए था।

आज यह नाच छत्तीसगढ़ की संस्कृति का अभिन्न अंग है। जब भी कभी रावत नाच हमारे गली मुहल्ले से गुजरता है तब उनकी पारम्परिक वेशभूषा जो कि सिर से पैर तक आकर्षित नैनाभिराम वस्त्र धारण किये गुरदुम बाजा के  थाप पर उनके पैर थिरकते व एक लय में ऊपर उठते हैं। जिनके हाथों में ढाल सुरक्षा रूपी फरी तथा दूसरे हाथ में तेंदूसार की लाठी 40 या 80 के समूह में लोग रहते हैं के समूह में लोग रहते है तथा एक या दो नर्तक भी हाते है। बाजों की आवाज से संयुक्त रूप से जोश एवं आवेश साहस व उत्सव न केवल रावत के मन में अपितु दखने वाले के मन में उत्सव का संचार होता है।
रावत नाच के समय बोलने वाले दोहे हास्य व्यंग्य एवं विभिन्न रसों के अलावा सूर, तुलसी, कबीर के ज्ञानमार्ग शामिल हैं।
रावत नाचा के दोहे में नीति धर्म एवं ज्ञान से संबंधी दोहे शामिल हैं इसके अलावा इनके पारम्परिक एवं मौलिक दोहों की भी संख्या फिर भी कम नहीं है। इनके दोहों हास्य, व्यंग्य, करुण, रौद्र शांत तथा देवी देवताओं से संबंधित एवं देश प्रेम तथा जन सामान्य के प्रति विशेष नीति एवं ज्ञान से परिपूर्ण होता है। जिसके माध्यम से जनता को अपनी ओर आकर्षित करने तथा जोर से तेन्दुसार की लाठी ऊपर किये हुए दोहे को उच्चारित करके बोलते है।
इस प्रकार रावत नाच में इन विभिन्नप्रकार के दोहे का समन्वय कर नाच को रोचकता एवं चमत्कृत प्रदान करने के लिए रावत लोग  ने विभिन्नप्रकार के दोहे का सृजन किया है जिससे दर्शक के मन को उत्साह वर्धन कर रस मग्न कर दे साथ ही उसमें व्यंग्य के छींटे भी होते है जिसके माध्यम से बच्चों के मन में खुशी का संचार होता है और वे रावत नाच में अपनी भागीदारी का निर्वहन करते है।
दोहे के द्वारा व्यक्ति के एक नए ज्ञान का आभास होता है एवं मन में तर्क वितर्क भी पनपते है वास्तव में यदि गहराई से देखा जाए तो रावत नाच में दोहे  के माध्यम से नाच में सेाने पर सुहागा का कामकरती है जो जन सामान्य को अपनी ओर सहज ही ढंग से खिंचता चला जाता है इसकी प्रासंगिकता का वर्णन करना साहित्यकारों के बस की बात नहीं है।
गांव में अन्य जातियों की तरह रावत जाति संस्कृति की अपनी अलग विशेषता है, वेदों में उल्लेख होने के कारण इन्हें वैदिक जाति कहते है ये कला प्रेमी, लोकसंस्कृति के माध्यम से पौराणिक संस्कृति को जीवित रखे हुए है।
अहीरों के गौरवशाली परम्परा रीरिवाज के सुनहरे पन्ने के इतिहास में गो-पालन प्रमुख रहा, इनके अराध्य देव श्रीकृष्ण थे। यदुवंशी अपनी गाय भैंसों को विभिन्न रोग व बाधाओं से सर्वथा मुक्त रखने के लिए दूल्हा देव, ठाकुर देव, सड़हा देव, गोसाई देव व अपने पूर्वजों से जनित भूत प्रेत, बैताल, अखरादेव, छट कमानिय को प्रमुख श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। अहीरों में पूजा का विशेष प्रचलन है, पुत्र की शादी या संतान उत्पत्ति पर बकरे या मुर्गे की मान्य देवों की दुगुनी संख्या में बलि दी जाती है, घर की किसी कोने में गड्ढा खोदा जाता है जिसे सगरी कहते हैं किसी विशेष दिवस पर समाज के लोग एकत्रित होकर पूजा पाठ कर बलि देते हैं।
हरेली के दिन गाय भैंस को स्नान करा पूजा करते है रावत लोग जिनकी गाय-भैंस चरानी होती है उनके द्वारा देशमुख की शाख या नीम की पत्ती खोंच का प्रचलन है ये जन्माष्टमी को बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते है। श्रीकृष्ण की पूजा भक्ति भाव से विभोर होकर करते है। मटकी फोडऩा मंदिर जाना व दही व हल्दी एक दूसरे पर खुशियों से मस्त होकर डालते हैं। दीपावली के पर्व के पश्चात का कार्तिक एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा, कार्तिक पुत्री, देवउठनी, जेठानी, छेरछेरा, यदुवंशियों के संस्कृति के विशेष महत्व को प्रतिपादन करते हैं। देवारी शौर्य वीरता का प्रतीक है। देवारी के समय अपने कुल देवता को घर के भीतर पूजते हैं। देव उन लोगों को आशीर्वाद देने आते हैं तो उन पर काछन चढ़ता है सिर पर साज श्रृंगार की पगड़ी मोर पंख धारण करते हैं। रावत संस्कृति सिर्फ चरवाही और देवारी पर नाचने कूदने की संस्कृति मात्र नहीं है। राजनीति में राजा के बाद दूसरा राजा या सेना का सेनापति को रावत कहा जाता है। इन्हें चरवाहा बताकर व मदूर बताकर उनकी संस्कृति की गरिमा को आघात पहुंचाया जा रहा है।
रावत लोग अपनी ही बिरादरी में उत्सव व त्यौहार में खान-पान का प्रचलन चलता है। जिससे सामाजिक व्यवहार बना रहे। कृष्ण युगनी इतिहास में पशु बलि प्रथा का विधान मिलता है। इस प्रकार इनके खान-पान में सामाजिक सद्भावना जुड़ी रहती है। रावत समाज में मुख्यत: निम्न रिवाज व संस्कार है-  जन्म से क्षीर कर्म, ट्ठी मनाना, मुंडन, नामकरण, अन्नप्रासन, अक्षरज्ञान, स्कूल भेजना, अस्त्र-शस्त्र संचालन, नृत्य कला, विवाह, गौना कराना, धार्मिक पर्व, आरती पूजा, विवाह भोज, मृत्यु भोज इत्यादि प्रमुख रीति रिवाज व संस्कार है।
इस संस्कृति की गरिमा एवं स्वयं भगवान कृष्ण है जिसने गाय चराई, कंसवध, शिशुपाल किया महाभारत के द्वारा पूंजीवादी शासन का अंत और गीता के उपदेश द्वारा दिया। हर धर्म के बच्चे बड़ों में धार्मिक दार्शनिक व समाजवादिता का परिचय दिया ताकि भारत जैसा कृषि प्रधान देश फिर से समृद्ध हो सके।
ज्योति पर्व- सोहई बंधन
वैदिक दर्शन में तिथि त्यौहारों की सुनिश्चित व्यवस्था हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता का प्रमाण है। गंगा की लहरों पर प्रज्वलित दीपों का अर्पण झिलमिलाते मूलतत्व आत्मा का स्वरूप है। त्यौहार जहां एक ओर धार्मिक संदर्भ सुनिश्चित करते हैं वहीं वैज्ञानिक परिशोध की व्याख्या भी अभिनिष्ट करते हैं। दीपावली तम पर सत की विजय का पर्व है। तिमिशच्छादित अमावस्या को दीप पर्व मनाने के पीछे भारतीय मनीषी का कितना गहन चिंतन रहा होगा। वह हालांकि स्थायी नहीं रहता है फिर भी कलेशों को अनायास आमंत्रण लोग देने लगे हैं। गोवर्धन पूजा लक्ष्मीपूजा के दूसरे दिन होता है। अहीर द्वारा सोहई बंधन की यह प्रक्रिया काफी पुरानी है और ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। द्वापर में श्रीकृष्ण के समय से कौडिय़ों एवं मोर पंख का प्रयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता था। गोप-गोपी गौ सेवा हेतु सदैव तत्पर रहते थे यही परंपरा आज भी विद्यमान है। यह जाति अपने आराध्य देवों की पूजा अर्चना करने के बाद अपने कृषकों के यहां सोहई बांधने निकल जाती है।
छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन पूरे देश में यादवों की अपनी अलग संस्कृति है। उनके रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान एवं रीति-रिवाज भी भिन्न हैं। इस अंचल के राउत समाज दीवाली का बेसब्री से प्रतिक्षा करते हैं। गोवर्धन पूजा एवं जेठौनी (देवउठनी) इनका प्रमुख त्यौहार है जिसे मिलजुल कर पारंपरिक रुप से मनाते हैं। सोहई पशुधन का रक्षा कवच है। उनके स्वास्थ्यवद्र्धन एवं निरोग रहने के निमित्त बांधा जाता है। इस दल के साथ ग्रामीण वाद्य, गुदूम, मोहरी, दफड़ा, टिमकी, मंजीरा ढोल होता है। इनके मनमोहक नृत्य एवं लयबद्ध दोहा इस रस्म का अनिवार्य अंग हैं। अहीर मोर पंख, एवं कौड़ी के आभूषणों से सुसज्जित नृत्य करते हैं तो यह मनमोहक झांकी देखते ही बनती है। किसानों को जोहार बंदगी करने के बाद पशुधन के गले में सोहई बांधना एवं दान स्वरुप धान या रुपिया ठाकुरों के यहां मिलता है। प्राय: प्रत्येक घरों में प्रवेश करते समय यह दोहा उच्चारित करते हैं-
उठ रहे मालिक नव दस लगगे बासे।
भीतर दुलरवा दूध पिये, धुले रहे रनवासे।
आंचलिक बोली के महत्व को जानने समझने वालों के लिए इस दोहे में कितना ममत्व प्यार दुलार छुपा हुआ है। अहीर किसानों के यहां आया कि सोहई बंधन का कार्य शीघ्र पूर्ण कराने को तत्पर रहता है। पशुधन के रंगरुप का वर्णन कुछ इस प्रकार किया जाता है-
एक सींग तोर ऐसे तैसे, एक सींग तो डूंड़ा।
गींजर-गींजर आबे रे, खरिका डांड़ तोर मुड़ा।।
पशुधन अपने चरवाहे को देखकर रंभाने लग जाती है। पशु एवं मानव का प्रेम कितना सुरक्षित है। आज मानव-मानव में दुराग्रह की स्थिति निर्मित हो गई है। गायों के लिए सजे-धजे सोहई और बैलों के लिए गैंठा सोहई बांधते हैं। मौलिक दोहा बरबस इनके मुंह से निकल पड़ता है-
येसो के बन बरसा धरसा परगे हिले।
गाय के हेंवरे लाली संगे रेंगाले पिले।
पशुधन की कामना हेतु कहे गए दोहे में असीम आत्मीयता है इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है तभी तो यादवों को गौ-सेवक कहा जाता है। गायों के रंग रुप  एवं सेहत का अधिक ख्याल किसानों से ज्यादा यादव लोग करते हैं। गायों को लाली, पिंवरी, धंवरी, कबरी के नाम से बुलाते हैं। अपने वार्षिक पर्वों का गुणगान इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
बर तरि बांधेव बछरु, साल भर माढग़े गाई। हंसि-हंसि बांधेव सोहई संगी, पारन राम दोहाई।।
सावन फुले सावन करेलिया, भादो फुले कुसियार रे। राति पियारी मैहर फुले, गरब टूटे ससुरार रे।
गायों के साथ अपने मालिकों की मंगल कामनाएं की जाती हैं ठाकुर यहां के धान को गोबर में मिलाकर कोठी में लगाया जाता है। इसी दिन अहीर पत्नियां सांध्य को महावर और भेंगरा रंग सुंदर हाथा सुख समृद्धि के प्रतीक दरवाजे एवं कोठी पर बनाते हैं इस परिप्रेक्ष्य का दोहा द्रष्टव्य है-
हरियर चक चंदन हरियर गोबर अबिना।
 गाय-गाय कोठा भरे भरदा गय सौकिना।।
जइसे मालिक लिये दिये तइसे देबो असीस।
रंग महल म बइठो मालिक जियो लाख बरिस।।
इसके साथ ही यादव दल दूसरे किसानों के यहां निकल पड़ता है। सोहई पलाश वृक्ष के तना (बांस)मोर के पंख और कौडिय़ों से बनाया जाता है। बांख पर लाल और हरा रंग लगाकर सोहई बनाया जाता है। सोहई अर्थात् सोहना जो अच्छा लगे उसे पशुओं में धारण कराना। सोहई का हर पहलू पर पशुधन की मंगल कामनाएं गुंथी रहती हैं। उक्त अवसर पर किसी एक व्यक्ति विशेष को दोहा बोलना जरुरी नहीं होगा। दल का कोई भी सदस्य दोहा कह सकता है। सोहई बंधन की क्रिया ग्रामीण परिवेश में कौतुहल एवं मनोरंजन का दृश्य बन जाता है। डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार राउतों द्वारा धारण किये जाने वाली कौड़ी लक्ष्मी का प्रतीक है और मोर पंख मंत्र-तंत्र अभिचार या अन्य विपत्तिरुपी सर्पों के प्रतिकार का प्रतीक है। इस प्रकार मनुष्य पास संपत्ति आये और विपत्ति से दूर रहे।
इनके मौलिक दोहों में कुछ दोहे जाति परक भी होते है साथ ही उपदेशपूर्ण भी-
बाघ-बाघ कहे संगी बाघ कहां से आई।
बाघ ढिलागे सइगोना के कच्चा दूध पिलाई।
चंदा छुवय चंदैनी अउ दियना छुवय बाती।
गाय छुवय सोहई संगी-भरे देवारी राती।
सूर, कबीर एवं तुलसी के दोहों का भी प्रयोग यह जाति बखूबी करती है। डॉ. रुद्रदत्त तिवारी के शब्दों में राउत अपनी चरवाहा संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये हुए देश की मुख्य धारा से जुड़ गए हैं-
पूजा करय पुजेरी संगी धोवा चाऊर चढ़ाई।
पूजा होवत लक्ष्मी के सेत धजा फहराई।
श्रीराम एवं श्रीकृष्ण के चरित्र पर इन्हें बड़ा गर्व है। नृत्य के समय थिरकते पांव, फड़कती भूजा अपना जाति गौरव समझते हैं। अंत में विदा देते समय शुभकामनाएं स्वरुप यह दोहा कहते हैं-
दया-मया बने रहय पान सुपारी कोरा।
रंग महल म बैठो किसान राम-राम लव मोरा।
साभार-  रऊताही 2000