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May 22, 2013

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बारिश के पानी को सहेजना होगा


अप्रैल अंक में अनकही के अंतर्गत जल संकट को लेकर कई सवाल उठाए गए हैं- जल संकट की चुनौती का सामना करना किसी एक के बूते की बात नहीं है। इसके लिए एक साधारण इन्सान से लेकर प्रशासन, स्वयं सेवी संगठन, मीडिया आदि के समन्वित प्रयासों की जरूरत है। ये सारे प्रयास जो गर्मी आने पर किए जा रहे हैं, पहले से लागू किये जाने चाहिए। अंतिम समय में सारे नियम-कायदे लागू करने का अर्थ यही है कि पूरे साल हमने/ सरकार ने क्या किया? जबकि हम देख रहे हैं कि हर साल बारिश से मिलने वाले पानी में लगातार कमी आ रही है। न तो हम और आप, न ही सरकार इन सभी परेशानियों का हल ढूँढ़ रही है। न तो बारिश में हम वृक्षारोपण करते हैं न बारिश के पानी को सहेजते हैं बल्कि विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई कर इन्हें कंक्रीट के जंगलों और सीमेंट की सड़कों में तब्दील करने में मस्त हैं।
 पानी का प्रबंधन नहीं कर पाना यानी आने वाली पीढ़ी के लिए सैकड़ों समस्याएँ छोड़कर जाना। पानी के लिए हो रही इस फजीहत का कारण इतना ही है कि इसके प्रबंधन के लिए वाकई गंभीरता से कोई प्रयास किए ही नहीं जा रहे। यदि ऐसा होता तो तो कंक्रीट के जंगलों और सीमेंटेड सड़कें बनाने से पहले कई सवाल उठाए जाते। सड़कों के किनारे खड़े घने छायादार पेड़ों की विकास के नाम कटाई नहीं होती और इनके बदले रोपी गई झाडिय़ों का हिसाब माँगा जाता। हमारे शहर के आस-पास तालाबों के किनारों मकान नहीं बन जाते और न ही कई जगह उन पर कालोनियाँ बस जाती।
क्या यही है 21वीं सदी का भारत
इस अंक में राम शिव मूर्ति यादव जी ने गाँवों की अर्थव्यवस्था पर प्रकाश डाला है-
भारत-निर्माण, अतुल्य-भारत तथा इंडिया विज़न- 2020 जैसे आकर्षक और लोकलुभावन नारों के बीच आज हमें 21वीं सदी में आये एक दशक से ज्यादा हो चुका है।  क्या वाकई हम अपने आपको उपयुक्त आदर्शवादी और आशावादी सपने को वास्तविक धरातल पर पाते है?
भारत गावों का देश, जहाँ क़रीब 6 लाख गाँव और गाँवों का भाग्य निर्माता, भारतीय ग्रामीण किसान। हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि तथा उसकी मजबूती का मूलाधार ग्रामीण कृषक। आज नयी सदी के भारत का ब्रिटिश नीति 'इंडियाअपने भाग्य निर्माता का मूल्याकन नहीं करना चाहता ...और करे भी क्यों?...क्योंकि गुलाम मानसिकता वाले राष्ट्र का मूल्यांकन करे कौन?
आज जब हम अपनी प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा का सिंहावलोकन करें तो पाते हैं कि इस सांस्कृतिक समृद्धि के पीछे एक मजबूत आर्थिक-सामजिक अवसंरचना (Infrastructure)  का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तभी हम संसार की प्राचीनतम सजीव सभ्यता एवं संस्कृतियों में से है।
वर्तमान परिदृश्य में हमारी समाजगत जटिलता के मूल में, सांस्कृतिक समन्वय एवं ग्रामीण सामाजिक अधोसंरचना तथा एक राष्ट्र की अवधारणा की केन्द्रीय भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता है।  फिर भी आज सबसे ज्यादा उपेक्षित और तिरस्कृत यही पक्ष भारत है।  हमारी दिव्आयामी मानसिकता तथा उससे उपजी द्विराष्ट्र की अवधारणा ...जिसमे पहला पक्ष 'भारतऔर दूसरा पक्ष 'इण्डिया
आज हमारे सामने की द्वन्द्व की स्थिति है, जिसमे यही दोनों पक्ष आमने सामने है और उसमे भी 'इण्डिया  का पक्ष 'भारतपर हावी है। निष्कर्ष सिर्फ इतना ही नहीं होगा की इण्डिया सिर्फ एक  Economic Hub  के रूप में विकसित होता एक बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार है ...बल्कि निष्कर्ष ये भी होगा कि भारत गरीबी भुखमरी और गुलामी की तरफ बढ़ रहा है। आज यह गुलामी हमारी मानसिक और बौद्धिक गुलामी का प्रतीक बन रही है।
आज हमारे हाँथों में मोबाइल फ़ोन तो है पर श्रम करने की ताकत नहीं, विकसित बनने की चाह तो है मगर चेतना दृढ़ संकल्पित नहीं, आज भारत साक्षरता प्रतिशत में तो वृद्धि कर रहा है पर सुशिक्षित समाज की अवकल्पना से मीलों दूर है ...क्या यही है 21 वीं सदी का भारत?
  -अमित वर्मा, लखीमपुर खीरी  avermaaa@gmail.com

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