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May 22, 2013

मई दिवस

मजदूर महिलाएँ मूल्यहीन श्रम

- डॉ जेन्नी शबनम


उन दिनों सोचती थी कि आखिर मेहनत तो सभी करते हैं, फिर कौन किससे हिस्सा माँग रहा? ये दुनिया आखिर है किसकी? दुनिया है किसके पास? कोई एक जब पूरी दुनिया ले लेगा तो बाकी लोग कहाँ जाएँगे? अजीब-अजीब-से सवाल...पर सब मन में ही इकट्ठे होते रहे।
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जब से होश सँभाला तब से फैज़ की यह नज़्म सुनती और गुनगुनाती रही हूँ...
'हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे...
उन दिनों सोचती थी कि आखिर मेहनत तो सभी करते हैं, फिर कौन किससे हिस्सा माँग रहा? ये दुनिया आखिर है किसकी? दुनिया है किसके पास? कोई एक जब पूरी दुनिया ले लेगा तो बाकी लोग कहाँ जाएँगे? अजीब-अजीब-से सवाल...पर सब मन में ही इकट्ठे होते रहे।
 मई दिवस पर बैठक होती थी, मैं भी शामिल होती थी अपने माता-पिता के साथ। गोष्ठियाँ होती थी, बड़ी-बड़ी रैली होती थी जिसमें शहर के साथ ही गाँव के किसान और श्रमिक भी शामिल होते थे। झंडे, पोस्टर, बैनर आदि होते थे। पुरजोर नारे लगाए जाते थे- 'दुनिया के मजदूरों एक हो’  'जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ 'इन्कलाब जिंदाबाद पूँजीवाद मुर्दाबादआदि। उन दिनों मई दिवस जैसे जश्न का दिन होता था ।
 समय के साथ जब जि़न्दगी की परिभाषाएँ समझ में आई और अपने सवालों के जवाब, तब खुद पर हँसी आई और ढेरों सवाल उगाने लगे जिनके जवाब भी मुझे मालूम होते हैं। मेरे पैदा होने से बहुत पहले जब ये दुनिया बनी होगी तब स्त्री और पुरुष दो जाति रही होगी। श्रम के आधार पर पुरुषों की स्वत: ही दो जातियाँ बन गई होंगी। एक जो श्रम करते होंगे और एक जो श्रम नहीं करते होंगे। जो श्रम नहीं करते होंगे वे जीवन यापन के लिए बल प्रयोग के द्वारा जर, जोरू और ज़मीन हथियाने लगे होंगे। बाद में इनके ही हिस्से में शिक्षा आई, सुविधा और सहूलियत भी। और ये कुलीन वर्ग कहलाने लगे। स्त्री को पुरुषों ने अपने अधीन कर लिया क्योंकि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर होती है। धीरे-धीरे स्त्री ने भी अधीनता स्वीकार कर ली, क्योंकि इसमें जोखिम कम था और सुरक्षा ज्यादा थी। कितना वक्त लगा, कितने अ$फसाने बने, कितनी जि़न्दगी इन सब में मिट गई, कितनी जानें गई, कितनों ने खुद को मिटा दिया! और अंतत: सारी शक्तियाँ कुछ $खास के पास चली गईं। स्त्रियाँ और कामगार श्रमिक कमजोर होते गए और सताए जाने लगे, बँधुआ बन गए, उत्पादन करके भी वंचित रहे। वो वर्ग जिसके बल पर दुनिया के सभी कार्य होते थे सर्वहारा बन गए। इस व्यवस्था परिवर्तन ने सर्वहारा वर्ग को तोड़ दिया। धीरे-धीरे हक के लिए आवाजें उठने लगी, सर्वहारा के अधिकारों के लिए क्रांतियाँ होने लगी। मज़दूर-किसान और स्त्रियों के अधिकार के लिए हुई क्रांतियों ने कानूनी अधिकार दे दिए लेकिन सामाजिक ढाँचे में $खास बदलाव नहीं आया। आज भी मनुष्य को मापने के दोहरे माप दंड हैं।
 पुरुषों के दो वर्ग हैं शासक और शोषित लेकिन स्त्रियों का सिर्फ एक वर्ग है शोषित। दुनिया की तमाम स्त्रियाँ आज भी अपने अधिकार से वंचित है, भले ही कई देशों ने बराबरी का अधिकार दिया हो। कोई भी स्त्री हो उत्पादन का कार्य करती ही है। चाहे खेत में अनाज उपजाए या पेट में बच्चा। शिक्षित हो या अशिक्षित; घरेलू कार्य की जवाबदेही स्त्री की ही होती है। फिर भी स्त्री को कामगार या श्रमिक नहीं माना जाता है। खेत, दिहाड़ी, चौका-बर्तन, या अन्य जगह काम करने वाली स्त्रियों को पारिश्रमिक मिलता है; भले पुरुषों से कम। लेकिन एक आम घरेलू स्त्री जो सारा दिन घर का काम करती है, संतति के साथ ही आर्थिक उपार्जन में मदद करती है; परन्तु उसके काम को न सिर्फ नज़रंदाज़ किया जाता है बल्कि एक सिरे से यह कह कर खारिज कर दिया जाता है कि 'घर पर सारा दिन आराम करती है, खाना पका दिया तो कौन-सा बड़ा काम किया, बच्चे पालना तो उसकी प्रकृति है, यह भी कोई काम है।एक आम स्त्री के श्रम को कार्य की श्रेणी में रखा ही नहीं जाता है; जबकि सत्य है कि दुनिया की सारी स्त्री श्रमिक है, जिसे उसके श्रम के लिए कभी कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है।
 मजदूर दिवस आते ही मजदूरों, श्रमिकों या कामगारों की जो छवि आँखों में तैरती है उनमें खेतों में काम करने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, रिक्शा-ऑटो चालाक, कुली, सरकारी गैर सरकारी संस्था में कार्यरत चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी आदि होते हैं। हर वो श्रमिक है जो दूसरे के लिए श्रमदान करता है और बदले में पारिश्रमिक का हकदार होता है। लेकिन एक आम स्त्री को श्रमिक अब तक नहीं माना गया है और न श्रमिक कहने से घर में घरेलू काम-काज करती बच्चे पालती स्त्री की छवि आँखों में उभरती है।
 मई दिवस आज भी वैसे ही मनेगा जैसे बचपन से देखती आई हूँ। कई सारे औपचारिक कार्यक्रम होंगे, बड़े-बड़े भाषण होंगे,
उद्घोषणाएँ की जाएँगी, आश्वासन दिए जाएँगे, बड़े-बड़े सपने दिखाए जाएँगे। कल का अखबार नहीं आएगा। और इन सबके बीच श्रमिक स्त्री हमेशा की तरह आज भी गूँगी बहरी बनी रहेगी, क्योंकि माना जाता है कि यही उसकी प्रकृति और नियति है।
 समय आ गया है कि स्त्रियों के श्रम को मान्यता मिले और इसके लिए संगठित प्रयास आवश्यक है। इसमें हर उस इंसान की भागीदारी आवश्यक है; जो स्त्रियों को इंसान समझते हैं, चाहे वो किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत के हों। स्त्रियों के द्वारा किए गए कार्य का पारिश्रमिक देना तो मुमकिन नहीं है और न यह उचित है; क्योंकि फिर स्त्री अपने ही घर में श्रमिक और उसका पिता या पति मालिक बन जाएगा। अत: स्त्री के कार्य को श्रम की श्रेणी में रखा जाए और उसके कार्य की अवधि की समय सीमा तय की जाए। स्त्री को उसके श्रम के हिसाब से सुविधा मिले और आराम का समय सुनिश्चित किया जाए। स्त्री को उसके अपने लिए अपना वक्त मिले; जब वो अपनी मर्जी से जी सके और अपने समय का अपने मन माफिक उपयोग सिर्फ अपने लिए कर सके। शायद फिर हर स्त्री को उसके श्रमिक होने पर गर्व होगा और कह पाएगी 'मजदूर दिवस मुबारक हो’!
संपर्क: द्वारा/श्री राजेश कुमार श्रीवास्तव द्वितीय तल, 5/7 सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली 110016,फोन नं.-011-26520303

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