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Sep 22, 2010

मासूम सिसकियां

- देवी नागरानी
'मां तुम भैया को लेकर कब आओगी? जल्दी आओ ना!' तीन साल की वो नन्हीं सी कली प्लास्टिक के फोन पर कहे जा रही है। हां! वह प्राची है।
और नील नम आंखों से शून्यता के उस पार देख रहा है जहां उसे अपना अस्तित्व, अपने आस पास का घर- संसार और उसमें बसने वाले लोग एक स्वप्न से लग रहे हैं। सिर्फ प्राची का लगातार फोन पर बात का सिलसिला जो अपनी मां को बार- बार आवाज देती रही, वही उसे हकीकत की दुनिया में ला रही है। सुनने वाला दर्द को जानता है, पहचानता है, पर उस दर्द को आंसुओं के साथ पी जाना अब उसके बस में नहीं।
'पापा मां को अस्पताल से ले आओ ना। मुझे मां पास जाना है पापा...पा...' और उसकी आवाज सुबकती सिसकियों की धारा बनकर आस पास के गूंजती रही पल पल, हर पल। आज चौथा दिन था, पर नील और उसके माता- पिता ख़ुद को असमर्थ पा रहे हैं, उस नन्हीं जान को यह बताते हुए कि स्नेहिल उसकी मां अब नहीं रही। वह हर बन्धन की डोर को तोड़ कर चली गई है और अपने पीछे छोड़ गई है एक बिलखता हुआ क्रंदन!!!
कितने खुश थे वो दोनों- नील और स्नेहिल सबके साथ अपने घर संसार में। प्राची उनकी बगिया की पहली कली, जिसको साढ़े तीन साल से अपने आंचल की ठंडी छांव में प्यार से सींचा, पाला और महकने का मौका दिया।
'प्राची अपने भाई को अगले साल राखी बांधेगी ना?' कहती हुई स्नेहिल खुशी से विभोर हो उठती थी। बस अब नौ महीने पूरे होने को थे और उन्हें पता था की आने वाला नया मेहमान लड़का है। एक सम्पूर्ण परिवार का स्वप्न और अपने आने वाले भविष्य से अनजान वे खुशी के सागर पिए जाते थे, सपनों के नए जाल बुनते जाते थे। बच्चे के जन्म की तारीख जुलाई 25 या 26 की मिली हुई थी, पर 23 तारीख को घर में तहलका सा मचा हुआ था। स्नेहिल बिन- जल मछली की तरह मचल रही थी, परिवार के सभी लोग उसे सहलाने की, पुचकारने की कोशिश में लगे थे। अस्पताल फोन लगाया, गाड़ी स्टार्ट हुई और स्नेहिल की जिंदगी की रफ्तार, गाड़ी की रफ्तार से मेल जोल न खाकर हिचकोले खाने लगी। पिछली सीट पर बेचैनियों से घिरी स्नेहिल को बीच राह में छाती में दर्द का अहसास हुआ, पर नील की माता जी को लगा कि वह प्रसव पीड़ा का अंश है, सो सहलाते पुचकारते अस्पताल पहुंचे, जहां वह तुरंत डाक्टरों के हवाले कर दी गई, जहां उसे अब आई.सी.यू. में ऑक्सीजन दिया जा रहा था। बस कुछ पलों में दुखद समाचार देते हुए डाक्टर ने समझाया' कार में उसे जो घुटन हो रही थी, वो लंग्स में ब्लाक आने के कारण थी और बच्चा उसी वक्त ऑक्सीजन न मिलने के कारण स्वांस न ले पाया और ...!!!'
नील के पिता जो खुद एक बहुत ही बड़े पद पर नियुक्त एक तजुर्बेकार डॉक्टर थे ने सूचना पाते ही तुरंत आठ दस डॉक्टरों की टीम बुला ली, एक हेलीकाफ्टर भी एमरजेंसी के लिए तैयार करवा लिया। अब सभी डॉक्टर स्नेहिल को बचाने की कोशिश में जुट गए। शायद किसी अन्य अस्पताल ले जाना पड़स्नेहिल को, यही सोच कर सब तैयारियां हुई।
कितने खुश थे नील और स्नेहिल सबके साथ अपने घर संसार में। प्राची उनकी बगिया की पहली कली, जिसको साढ़े तीन साल से अपने आंचल की ठंडी छांव में प्यार से सींचा, पाला और महकने का मौका दिया। 'प्राची अपने भाई को अगले साल राखी बांधेगी ना?' कहती हुई स्नेहिल खुशी से विभोर हो उठती थी।

'पिताजी, मां को लेकर आप जल्दी आइये, स्नेहिल... ' और भारी आवाज में नील ने स्नेहिल के माता पिता को शिशु के दुखद समाचार के बारे में बताते हुए परिस्थिति से अवगत कराया। वे कैलिफोर्निया में थे और जल्द से जल्द जो फ्लाईट उन्हें मिली उसे लेकर न्यूयार्क के लिए रवाना हुए। आकुल व्याकुल मन मयूर नाना- नानी बनने के सुनहरे स्वप्न जो बुन चुके थे वे वहीं के वहीं बस निराशा के ढेर बनकर टूटकर बिखरते रहे।
'भगवान करे स्नेहिल यह सदमा बर्दाश्त कर पाये और संभल जाए ताकि वह अपनी प्राची को भरपूर प्यार के साथ संभाल सके।' यह प्राची की मां की फुसफुसाती आवाज थी जो शायद भगवान के कानों तक नहीं पहुंची।
स्नेहिल खुद एक रीसर्च साइंटिस्ट थी और 37 साल की उम्र में जो नाम और शोहरत उसने पाई वह पूरे परिवार के लिए गर्व की बात थी। पिता और ससुर दोनों डॉक्टर, नील कंप्यूटर प्रोफेशन का उच्च अधिकारी रहा। घर का माहौल सदा ही खुशियों से महकता रहा और प्राची की तोतली आवाजें और आने वाले बालक की सुखद किलकारियों के आगमन की आशा से सभी बहुत खुश थे और अब...!!
'मां का गर्भाशय निकालना पड़ा। जो नाल मां और बच्चे को जोड़ती रही वह टूट गई और खतरे का कोई अंश बाकी न रहे इसलिए यह कदम जरूरी था' कहते हुए डॉक्टर ललित फिर थियेटर में वापस चले गये। जिंदगी और मौत के झूले में झूल रही थी स्नेहिल और उसके साथ जुड़ी सब की आशाएं। नील साक्षी बना खड़ा है, चिंतन के धुंध में घिरा हुआ, सिर्फ आवाजें, आवाजें और उनकी गूंज थी आसपास।
'मैं भी चलूंगी आपके साथ' प्राची मां का पल्लू पकड़ कर कह रही थी। 'पापा मुझे भी ले चलो, मैं मां के साथ जाऊंगी।'
जब घर से निकल रहे थे तब स्नेहिल ने पुचकारते हुए अपनी जान प्राची से कहा 'बेटा तुम यहीं रहो घर पर, मैं अस्पताल से तुम्हारे भाई को ले आऊंगी।'
और अब प्राची का सामना कैसे होगा? स्नेहिल को कैसे संभाल पाऊंगा? उसके खाली दामन को किस आस से भर पाऊंगा? उलझनों का तांता और नम आंखों में तैरती हुई यादों की परछाइयां दिल की दहलीज पर रूककर भी नहीं रुकी। पत्थरों को शायद किसी ने रोते हुए नहीं देखा है, पर सच मानो उनमें भी धड़कन होती है पर वे खामोशियों से हर सदमे को झेलते हैं...!
नील की सोच के सिलसिले को पिता के स्नेहिल छांव ने पुचकारा। बेटे के दर्द को, उसके अरमानों के घात को समझ पा रहा था वह, पर मजबूर था। डॉक्टर था, समझ रहा था, जो कभी किताब के पन्नों में पढ़ा, आज जमीन बन कर वही केस उसकी बहू स्नेहिल पर पूरा उतर रहा है रफ्ता रफ्ता। 'बेटा ऐसा आज तक नहीं सुना है, और न देखा है कि लंग्स के ब्लाक की वजह से शिशु को और मां को जान से हाथ धोना पड़ता है, पर पुस्तकों में पढ़ा है। अब दुआएं करो की हमारी स्नेहिल को कुछ न हो!' कहते हुए पिता फिर से थियेटर में अंदर चले गए, जहां अभी- अभी डॉ. ललित गए।
नील चौकन्ना हो गया। पिताजी यह क्या कह रहे हैं? और उसे एहसास होने लगा उस बेबसी का जो एक लहूलुहान छटपटाहट सी सिहरन बनकर उसके सीने के हर कोण में समा गई। इतने सारे डॉक्टर मिलकर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे, स्नेहिल को बचाने की हर मुमकिन कोशिश नाकाम हुई। हाथ जो दुआओं के दर पर उठ रहे थे अब छाती पीट रहे थे। आशा का दामन थाम कर इन्सान रेत पर घरौंदे बनाता है, उन्हें संवारता है, और फिर जब उन्हें बिखरता हुआ देखता है तो सहरा की तपती धूप सी जलन तड़प बन कर उसकी आत्मा के अधर को भी जला देती है। उससे भी ज्यादा पीड़ा दायक रेगिस्तान के बीचों बीच रेत के ढेर पर बनाया हुआ आशियां एक ऐसे टीले की तरह होता है, जो ढह तो जाता है पर मुट्ठी की पकड़ में नहीं आता। यही बेबसी की चरम सीमा है। आशाओं का दामन हाथ से छूटता चला जाता है, उम्मीदों की सभी किरणें जाने कहां लुप्त हो जाती हैं, और चारों तरफ से घेर लेता है मायूसी का अंधेरा। यही हालत थी उस वक्त नील और उसके माता- पिता की।
'बेटे तुम मां को लेकर घर जाओ और प्राची को जाकर संभालो, मैं एयरपोर्ट से तुम्हारे सास- ससुर को लेकर घर आता हूं।' नील के पिता ने उसे सहलाते हुए कहा। दर्द का सैलाब
जब- जब बहता है तो न जाने क्या क्या डूब जाता है। इन्तिहाये-ग़म अपना चलन नहीं बदलता, हां रुख जरूर बदल कर बस रुलाता चला जाता है। इस हकीकत को कोई झुठला नहीं सकता कि जिंदगी का अंत मौत है, पर ऐसा कठोर उसका मंजर, उफ! देखने पर तो पत्थर भी रो पड़े, दर्द भी सिसकियां लेता रहे।
जब प्राची के नाना- नानी आए तो लोगों का जमघट देखा। यह तो पता था शिशु नहीं रहा, पर देर न लगी यह जानने में कि किस बुरी तरह से जिंदगी ने उनके साथ छल करके उन्हें पछाड़ दिया है, आगे पांव धरते ही जो मंजर आंखों को दिखा... कास्केड में मां -स्वरूप स्नेहिल शांत चित सजी- धजी दुल्हन की वेश भूषा से और उसकी गोद में उसका शिशु जो ममता के बिना जी नहीं पाया, दोनों एक निश्चिंत निद्रा की गोद में विश्राम से लेटे थे। दिल को दहलाने वाला यह दृश्य हर सीने पर एक छाप छोड़ गया और आज दस दिन के बाद भी जब एक छटपटाहट मन को झिंझोड़ रही है तो कलम उठाकर अपनी पीड़ा से राहत पाने के लिए दर्द की परिभाषा की गहराइयों में झांकने की फिर से कोशिश कर रही हूं, जिससे आमना- सामना न जाने कितनी बार होता रहा है। कभी मुझे रुलाने में वो कामयाब रहती है, कभी तो खुद भी इस मानव मन की पीड़ा से परेशां होकर सिसकने लगती है।
'भगवान मेरी ही बेटी की जीवन डोर क्यों काट दी' यह क्रंदन स्नेहिल की मां का था जो वहीं पर बैठी अब अपनी बेटी की छाती पर सोये शिशु को सहलाते हुए अपने जख्म कुरेदने लगी।
आज फोन से पता किया, कि कैसे प्राची आज भी खिलौने वाले फोन से अपनी मां को आवाज दे रही है, बुला रही है। उसे कौन यह समझाए की जिंदगी को छीनने वाली मौत उसकी मां और भाई को उससे दूर, बहुत दूर ले गई है, जहां सिर्फ जाने की राह खुलती है, लौट आने की नहीं। वह तो इंतजार में अब भी आस लगाये कह रही है 'मां भैया को लेकर जल्दी घर आओ, मां आ जाओ, आओ...मां.!!!'
पता- 9, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा,
मुंबई- 50, मोबाइल- 9867855751

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