बुनियादी शिक्षा
-डॉ. रत्ना वर्मा
शिक्षा मनुष्य के जीवन को सही दिशा देने का ऐसा माध्यम है जो उसे एक परिपक्व, समझदार और दुनिया को सही तरीके से देखने का नजरिया देता है। ऐसा नजरिया वह तभी प्राप्त कर सकता है जब प्राथमिक स्तर पर ही उसकी शिक्षा पर ध्यान दिया जाए। यह बहुत अफसोस की बात है कि हमारे देश में आजतक किसी भी शिक्षा मंत्री ने प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे के संदर्भ में समग्र रूप से कोई ठोस नीतिगत बात नहीं रखी है। सवाल गंभीर है कि मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा कर देने से ही क्या सर्वशिक्षा अभियान सफल हो जाएगा? जब तक आप बच्चों को सामान्य बुनियादी सुविधाएं जैसे स्कूल भवन, बैठने के लिए कुर्सी- टेबल, पढऩे के लिए कॉपी- किताबें, स्कूल यूनिफार्म और स्कूल आने- जाने के लिए पर्याप्त साधन मुहैया नहीं कराएंगे तब तक आप कैसे सोच सकते हैं कि उन्हें अच्छी शिक्षा मिल रही है। दोपहर का भोजन परोस कर आप स्कूल आने वाले बच्चो की संख्या में इज़ाफ़ा तो कर सकते हैं पर क्या उन्हें आप इतने काबिल शिक्षक भी दे रहे हैं जो उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने में सहायता कर सके। हम सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्राथमिक स्तर पर पढऩे वाला बच्चा अपने शिक्षक को आदर्श मानता है। वह अपने माता- पिता की आज्ञा का उल्लंघन एक बार भले कर दे पर अपने शिक्षक की बात वह कभी नहीं टालता।
-डॉ. रत्ना वर्मा
शिक्षा मनुष्य के जीवन को सही दिशा देने का ऐसा माध्यम है जो उसे एक परिपक्व, समझदार और दुनिया को सही तरीके से देखने का नजरिया देता है। ऐसा नजरिया वह तभी प्राप्त कर सकता है जब प्राथमिक स्तर पर ही उसकी शिक्षा पर ध्यान दिया जाए। यह बहुत अफसोस की बात है कि हमारे देश में आजतक किसी भी शिक्षा मंत्री ने प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे के संदर्भ में समग्र रूप से कोई ठोस नीतिगत बात नहीं रखी है। सवाल गंभीर है कि मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा कर देने से ही क्या सर्वशिक्षा अभियान सफल हो जाएगा? जब तक आप बच्चों को सामान्य बुनियादी सुविधाएं जैसे स्कूल भवन, बैठने के लिए कुर्सी- टेबल, पढऩे के लिए कॉपी- किताबें, स्कूल यूनिफार्म और स्कूल आने- जाने के लिए पर्याप्त साधन मुहैया नहीं कराएंगे तब तक आप कैसे सोच सकते हैं कि उन्हें अच्छी शिक्षा मिल रही है। दोपहर का भोजन परोस कर आप स्कूल आने वाले बच्चो की संख्या में इज़ाफ़ा तो कर सकते हैं पर क्या उन्हें आप इतने काबिल शिक्षक भी दे रहे हैं जो उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने में सहायता कर सके। हम सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्राथमिक स्तर पर पढऩे वाला बच्चा अपने शिक्षक को आदर्श मानता है। वह अपने माता- पिता की आज्ञा का उल्लंघन एक बार भले कर दे पर अपने शिक्षक की बात वह कभी नहीं टालता।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे महान आदर्शवादी शिक्षक के नाम पर एक दिवस मना कर हम चाहते हैं कि प्रत्येक शिक्षक उन जैसा आदर्शवादी बने और अपने प्रत्येक विद्यार्थी के सामने मिसाल पेश करे। पर कभी हमने बच्चों के जीवन की नींव तैयार करने वाले इन शिक्षकों के जीवन के दूसरे पहलू की ओर भी झांकने का प्रयास किया है- जिस वातारवण में वे पढ़ाते हैं, जितना वेतन उन्हें मिलता है, पढ़ाने के लिए जितनी सुविधा उन्हें दी जाती है क्या वह पर्याप्त है? ऐसे में एक आदर्श प्रशिक्षित शिक्षक की उम्मीद हम कैसे कर सकते हंै। यही नहीं अधिकांश राज्यों में संविदा नियुक्ति पर शिक्षकों की बहाली की जाती हैं और तो और जब चाहे तब सरकारी कार्यों में उन्हें इस तरह लगा दिया जाता है मानों वे दैनिक मजदूर हों, चाहे चुनाव का वक्त हो या फिर जनगणना का। इन परिस्थितियों के बावजूद हम चाहते हैं कि वे बच्चों के सामने आदर्श प्रस्तुत करें। यह कहां का इंसाफ है कि एक ओर तो हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक के बाद एक सुविधाएं बढ़ाते जा रहें हैं वहीं प्राथमिक स्तर पर सुविधाएं देने के नाम पर उनके साथ दोयम दर्जे के कर्मचारी की तरह पेश आते हैं। एक आदर्श शिक्षक बनने के लिए पहले उन्हें एक आदर्श माहौल तो दीजिए।
कितने अफसोस की बात है कि हमारे आज के नीति- निर्धारक यह भूल जाते हैं कि कोई भी विश्वविद्यालय बगैर प्राथमिक शिक्षा के अधूरी है, वे विश्वविद्यालयीन शिक्षा का मतलब सिर्फ उच्च शिक्षा से लगाते हैं जबकि सच्चाई बिल्कुल इसके विपरीत है। महामना मदनमोहन मालवीय ने शिक्षा के क्षेत्र में जो उदाहरण बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बनाकर रखा वह किसी भी शिक्षण संस्था के लिए एक आदर्श है। ऐसे माहौल में जबकि उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बहुत अधिक प्रयास किए जा रहे हैं हमें यह गंभीरता से विचार करना होगा कि प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाए बगैर उच्च शिक्षा के बेहतर होने की बात बेमानी होगी। शिक्षा की नींव प्राथमिक स्तर पर ही बनती है यदि नींव मजबूत होगी तभी हम उसके ऊपर मजबूत भवन बनाने की बात सोच सकते हैं। परंतु हो इसके बिल्कुल उल्टा रहा है, नींव की गहराई को देखे बिना भवन की ऊंचाईंयां नापी जा रहीं हैं, ऐसे में एक बेहतर शिक्षित राष्ट्र की कल्पना भला हम कैसे कर सकते हैं।
यद्यपि राजनीतिक दांव- पेंच के चलते शिक्षा न्यायाधिकरण विधेयक पारित नहीं हो सका। उच्च शिक्षा के लिए लाए जा रहे इस विधेयक के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा पर इतना अधिक जोर देने के पहले हमारे आकाओं को प्राथमिक शिक्षा के हालात में सुधार की बात पहले करनी चाहिए। यद्यपि बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2009 (जिसके अंतर्गत छह से चौदह वर्ष की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने की बात कही गई है) पारित हो चुका है। इस बिल के पारित होने पर शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक ऐतिहासिक कदम करार दिया गया था, पर मात्र इतने भर से क्या राजनीतिक जिम्मेदारी पूरी हो जाती है? कागजों में पारित इस विधेयक में सबसे बड़ी खामी तो यही है कि इस बिल के प्रावधानों को अपने- अपने राज्यों में लागू करने की पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकारों के जिम्मे सौंप दी गई है। जबकि यह मानी हुई बात है कि शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मसले पर लिए गए किसी भी निर्णय को पूरे देश में लागू करने की अहम जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की ही होनी चाहिए। परंतु उसने तो विधेयक पारित करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।
अफसोस की बात है कि आजादी मिलने के बाद आज तक शिक्षा के नाम पर सरकार का पूरा ध्यान उच्च शिक्षा के प्रसार के ऊपर रहा है। इसके बावजूद जहां तक हमारी उच्च शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता का प्रश्न है तो इनकी भी स्थिति दयनीय है। इसी माह में प्रकाशित विश्व की उच्च शिक्षा संस्थाओं की गुणवत्ता की सूची में प्रथम दो सौ संस्थाओं में भारत की सिर्फ एक संस्था आईआईटी मुम्बई को 182वां स्थान मिला है। जबकि चीन की चार शिक्षा संस्थाएं प्रथम दो सौ संस्थाओं में स्थान पाती है। यह एक और प्रमाण है सरकार द्वारा शिक्षा की उपेक्षा का।
किसी भी राष्ट्र के समग्र विकास के लिए मजबूत आधारभूत ढांचे की आवश्यकता होती है जिसका सबसे महत्वपूर्ण अंग शिक्षित जनता होती है। सीधी बात ये है कि आज राष्ट्र की सबसे बड़ी जरुरत है शिक्षा के प्रसार को सर्वोच्च राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाना। शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता निश्चित होती है सभी संसाधनों से युक्त प्राथमिक शिक्षा विद्यालयों से। अतएव केंद्रीय सरकार को सबसे पहले 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए पूरे देश में सभी संसाधनों से युक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना को अपनी प्राथमिकता बनाना है। आशा है प्रधानमंत्री इस ओर वांछित ध्यान देंगे।
कितने अफसोस की बात है कि हमारे आज के नीति- निर्धारक यह भूल जाते हैं कि कोई भी विश्वविद्यालय बगैर प्राथमिक शिक्षा के अधूरी है, वे विश्वविद्यालयीन शिक्षा का मतलब सिर्फ उच्च शिक्षा से लगाते हैं जबकि सच्चाई बिल्कुल इसके विपरीत है। महामना मदनमोहन मालवीय ने शिक्षा के क्षेत्र में जो उदाहरण बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बनाकर रखा वह किसी भी शिक्षण संस्था के लिए एक आदर्श है। ऐसे माहौल में जबकि उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बहुत अधिक प्रयास किए जा रहे हैं हमें यह गंभीरता से विचार करना होगा कि प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाए बगैर उच्च शिक्षा के बेहतर होने की बात बेमानी होगी। शिक्षा की नींव प्राथमिक स्तर पर ही बनती है यदि नींव मजबूत होगी तभी हम उसके ऊपर मजबूत भवन बनाने की बात सोच सकते हैं। परंतु हो इसके बिल्कुल उल्टा रहा है, नींव की गहराई को देखे बिना भवन की ऊंचाईंयां नापी जा रहीं हैं, ऐसे में एक बेहतर शिक्षित राष्ट्र की कल्पना भला हम कैसे कर सकते हैं।
यद्यपि राजनीतिक दांव- पेंच के चलते शिक्षा न्यायाधिकरण विधेयक पारित नहीं हो सका। उच्च शिक्षा के लिए लाए जा रहे इस विधेयक के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा पर इतना अधिक जोर देने के पहले हमारे आकाओं को प्राथमिक शिक्षा के हालात में सुधार की बात पहले करनी चाहिए। यद्यपि बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2009 (जिसके अंतर्गत छह से चौदह वर्ष की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने की बात कही गई है) पारित हो चुका है। इस बिल के पारित होने पर शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक ऐतिहासिक कदम करार दिया गया था, पर मात्र इतने भर से क्या राजनीतिक जिम्मेदारी पूरी हो जाती है? कागजों में पारित इस विधेयक में सबसे बड़ी खामी तो यही है कि इस बिल के प्रावधानों को अपने- अपने राज्यों में लागू करने की पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकारों के जिम्मे सौंप दी गई है। जबकि यह मानी हुई बात है कि शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मसले पर लिए गए किसी भी निर्णय को पूरे देश में लागू करने की अहम जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की ही होनी चाहिए। परंतु उसने तो विधेयक पारित करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।
अफसोस की बात है कि आजादी मिलने के बाद आज तक शिक्षा के नाम पर सरकार का पूरा ध्यान उच्च शिक्षा के प्रसार के ऊपर रहा है। इसके बावजूद जहां तक हमारी उच्च शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता का प्रश्न है तो इनकी भी स्थिति दयनीय है। इसी माह में प्रकाशित विश्व की उच्च शिक्षा संस्थाओं की गुणवत्ता की सूची में प्रथम दो सौ संस्थाओं में भारत की सिर्फ एक संस्था आईआईटी मुम्बई को 182वां स्थान मिला है। जबकि चीन की चार शिक्षा संस्थाएं प्रथम दो सौ संस्थाओं में स्थान पाती है। यह एक और प्रमाण है सरकार द्वारा शिक्षा की उपेक्षा का।
किसी भी राष्ट्र के समग्र विकास के लिए मजबूत आधारभूत ढांचे की आवश्यकता होती है जिसका सबसे महत्वपूर्ण अंग शिक्षित जनता होती है। सीधी बात ये है कि आज राष्ट्र की सबसे बड़ी जरुरत है शिक्षा के प्रसार को सर्वोच्च राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाना। शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता निश्चित होती है सभी संसाधनों से युक्त प्राथमिक शिक्षा विद्यालयों से। अतएव केंद्रीय सरकार को सबसे पहले 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए पूरे देश में सभी संसाधनों से युक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना को अपनी प्राथमिकता बनाना है। आशा है प्रधानमंत्री इस ओर वांछित ध्यान देंगे।
-रत्ना वर्मा
1 comment:
शिक्षा के साथ तो इस देश में क्रूर मजाक किया जा रहा है। शिक्षकों से सरकार पढ़ाने के अलावा सारे काम कराती है। मेरे अनुभव रहा है सरकारी स्कूल में अध्यापन का। मैंने देखा कि मध्याह्न भोजन का बैलेंसे बनाने के लिए सरकार ने शिक्षक को मजबूरी में गड़बड़ करने पर मजबूर कर दिया। संविदा शिक्षक के नाते शिक्षकों का शोषण शासन कर रहा है। इतने कम पैसे पर किस शिक्षक का क्या मन लगता होगा पढ़ाने में भगवान जाने। जबकि प्राइमरी और मिडिल एजुकेशन से ही तो विद्यार्थी की नींव मजबूत होती है। सरकार उसी को कमजोर बनाने पर तुली हुई है। कमजोर नींव पर खड़ी इमारत का क्या भविष्य हो सकता है, हर कोई सहज अनुमान लगा सकता है।
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