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Sep 23, 2010

जनसंचार माध्यम द्वारा प्रदूषित होती हिन्दी

जनसंचार माध्यम द्वारा प्रदूषित होती हिन्दी
-गिरीश पंकज
और अब छीनने आए हैं। वे हमसे हमारी भाषा।
यानी हमसे हमारा रूप। जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है।
और जो इस जंगल में। इतना विकृत हो चुका है।
-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
जनसंचार माध्यम की हिन्दी-दुनिया पर सर्वेश्वर जी की उपयुक्त कविता कितनी सटीक बैठती है। जनसंचार माध्यम एक बड़ा फलक है। इसमें प्रिंट एवं चाक्षुस, दोनों माध्यमों के विविध आयाम समाहित हो जाते हैं। इन दोनों माध्यमों में हिन्दी की जो दुर्गति हो रही है, वह किसी से छिपी नहीं है। हिन्दी के मामले में इन दिनों अद्भुत उदारीकरण दिखाया जा रहा है। हिन्दी के साथ अंग्रेजी के शब्दों की घुसपैठ करके वाक्य-संरचनाएं हो रही हैं।
भाषाओं का आदान-प्रदान होना ही चाहिए। किसी भी भाषा की समृद्धि के लिए यह जरूरी उपक्रम है, लेकिन जब यह घुसपैठ भाषिक औदार्य न हो कर हीनता के बोध से उपजे तो चिंता स्वाभाविक है। हिन्दी के साथ यही हो रहा है। हिन्दी के साथ घुसने वाले अंग्रेजी के शब्दों के कारण एक नई भाषा- वर्ण विकसित हो रहा है, जिसे लोग हिंगरेजी या हिंग्लिश कहने लगे हैं। अंग्रेजी का ऐसा प्रभाव हमारे मानस पर हुआ है, कि हम लोग बौरा गए हैं। लार्ड मैकाले बड़ा चालाक था उसने भारतीयों के जेहन में इस सत्य को बिठाने की पुरजोर कोशिश की यह कहकर कि अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान की कुंजी है। यह पश्चिम की भाषाओं में सर्वोपरि है। उसने कहा कि अंग्रेजी भारत में वैसे ही पुनर्जागरण लाएगी, जैसे इंग्लैंड में ग्रीक अथवा लैटिन ले आई अथवा जैसे पश्चिमी यूरोपीय भाषाओं ने रूस को सभ्य बनाया। मैकाले ने जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शंस की मिनिट 1835 में साफ तौर पर यह कहा था, कि इस समय हमें अपनी सर्वोत्तम शक्ति का उपयोग कर एक ऐसे वर्ग की सृष्टि करनी है, जो हमारे और उन लाखों, जिन पर हम शासन करते हैं, के बीच दुभाषिए का काम कर सके। लोगों का एक वर्ग जो रक्त और रंग में भारतीय हो किंतु रुचि, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेजी हो। आज जो हालात हम देख रहे हैं, उस के हिसाब से कई बार लगता है, कि मैकाले जैसा चाहता था, वैसा तो हो चुका है।
पत्रकारिता के समकाल को देखता हूं तो गुप्त जी याद आते हैं। आपने कहा था- हम कौन थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी...। इस पीड़ा से भला कौन सहमत न होगा, कि देश से अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजी छोड़ गए। यह पूरे देश की पीड़ा है। भारत का स्वदेशीपन तो जैसे लापता हो गया है। अंग्रेजी तो एक उदाहरण भर है। इसे हमने इस कदर आत्मसात कर लिया है, कि मत पूछो। सोते- जागते, उठते- बैठते सिर्फ अंग्रेजी। यह हमारी जीवन- शैली में समा गई है। नतीजा सामने है। हिन्दी के अनेक तथाकथित राष्ट्रीय समाचार पत्र तक अंग्रेजी के व्यामोह में हैं। इन अखबारों के स्तंभों के नाम देखिए- हैलो दिल्ली, मैट्रो वार्ता, यूथ वुमन, सिटी हलचल, बैक कवर, एजुकेशन, पेज थ्री, मैनेजमेंड फंडा, कैरियर डायरेक्टरी, नॉलेज बैंक, एडमिशन एलर्ट, सिटी डायरी, क्राइम डायरी जैसे अनेक स्तंभों को देख कर हैरत होती है। लगता है कि
हिन्दी अचानक कितनी दरिद्र हो गई है कि उसके पास शब्दों का टोटा पड़ गया है इसलिए दूसरी भाषा से शब्द आयातित करने पड़ रहे हैं। दु:ख भी होता है।
मैं हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया में तीन दशक से हूं इसलिए इसके उत्थान को देखा है, लेकिन अब पतन के दौर को देख कर पीड़ा होती है। पत्रकारिता नैतिक-दृष्टि से गिरी है तो भाषाई- दृष्टि से भी नीचे गिरती चली गई है। कुछ लोग हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों की घुसपैठ को प्रयोजनमूलकता का नाम भी देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि प्रयोजन का प्रयोजन ही सिद्ध न हो सके। अंग्रेजी के ऐसे शब्द हिन्दी के पाठकों या दर्शकों के किस काम के जो आम पाठक समझ ही न सके। जैसे हेल्दी बेबी कैम्प, सिटी का क्राइम रेट बढ़ रहा, सीरियल अच्छा नहीं तो चैनल चैंज, सेंट्रल कमेटी ने बनाया प्लान, हेडमास्टर या फूड इंस्पेक्टर सस्पेंड, कॉलेज की सारी सीटें फुल, मिड डे मील पर एजिटेशन आदि ऐसे अनेक शीर्षक देखे जा सकते हैं, जो हिन्दी में भी होते तो अर्थ-ग्राह्यता में कोई दिक्कत नहीं थी। जगह भी ज्यादा नहीं घेरते। लेकिन पता नहीं कैसे धीरे- धीरे हिंग्लिश का भूत जेहन में सवार होता गया और हम लोग दोपहर के भोजन को मिड डे मील समझने में आसानी महसूस करने लगे। विरोध की जगह एजिटेशन आसान लगने लगा और हेल्दी बेबी कैंप सरल और स्वस्थ शिशु शिविर कठिन लगने लगा। हां, मैं हिस्टिरोस्कोपी से ऑपरेशन होगा आसान जैसे शीर्षक से सहमत हूं, क्योंकि ऑपरेशन सब लोग समझते हैं। हिस्टेरोस्कोपी का अनुवाद शायद हिस्टेरोस्कोपी से भी कठिन हो जाए। लेकिन संसद तो एक लोकप्रिय शब्द है, प्रधानमंत्री भी। पिछले दिनों दिल्ली के एक अखबार में मैंने संसद की जगह पार्लियामेंट और प्रधानमंत्री की जगह प्राइम मिनिस्टर लिखा देखा। एक नहीं अनेक बार। साधारण पढ़ा-लिखा पाठक भी संसद और प्रधानमंत्री जैसे शब्द समझ सकता है। इसे क्या कहें, भाषाई औदार्य या फिर अंग्रेजियत की गुलामी? अनेक ऐेसे शब्द हैं, जिनके सरल पर्यायवाची शब्द मौजूद हैं, लेकिन हिन्दी के अखबार उन शब्दों से परहेज करके उनकी जगह अंग्रेजी के शब्द ठूंसने की कोशिश कर रहे हैं। हिन्दी का रूप भी बिगाड़ रहे हैं। हिन्दी अखबारों में अब डॉक्टर्स, कलेक्टर्स, इंस्पेक्टर्स, इंजीनियर्स लिखा जा रहा है। जबकि हिन्दी में डॉक्टर का बहुवचन डॉक्टरों ही होगा। अंग्रेजी में डॉक्टर्स चलेगा। हिन्दी में शब्दों का इस्तेमाल हिन्दी की प्रकृति से होना चाहिए, लेकिन अब हिन्दी पत्रकारिता के पास अपना नया अतिवादी विवेक है। उसके आगे किसी की नहीं चलने वाली। हम केवल चिंता कर सकते हैं। जिनको सुधार करना है, उन्होंने कसम खा ली है, कि हम नहीं सुधरेंगे। सुधरना है तो तुम सुधर जाओ।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहीं कहा है कि जो भाषा गांव में, नगर में, घर में, सभा- समाज में और राज- दरबार में सब कहीं, काम आती है, वही देश- व्यापक भाषा है। इस वाक्य के बरक्स हिन्दी को देखें तो वह इस वक्त राष्ट्रभाषा की पूरी पात्रता रखती है। खैर यह तो बाद की बात है फिलहाल हिन्दी के जनसंचार माध्यम को तो यह बात समझ में आए, जो हिन्दी की रोटी खा कर अंग्रेजी की पालकी ढोने पर उतारू हैं। रेल, ट्रेन, स्कूल, बैंक जैसे शब्दों पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन दोपहर के भोजन की जगह मिड डे मील, स्वस्थ शिशु की जगह हेल्दी बेबी, केंद्रीय समिति की जगह सेंट्रल कमेटी पर चिंता होती है। आखिर ग्रामीण परिवेश वाला पाठक क्या मिड डे मील जैसे शब्द को आसानी से पचा सकता है? जब हिन्दी के पास सरल शब्दावली मौजूद है तो अंग्रेजी का सहारा क्यों लिया जाए? हां, जिन शब्दों के पर्यायवाची हमारे पास नहीं है और जिनके कारण सम्प्रेषण में दिक्कत आ सकती है, ऐसे शब्दों को लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। उसे हम सहर्ष लेंगे ही। जैसे बैंक, पोस्ट ऑफिस, रेल, ट्रेन, कलेक्टर से लेकर नए शब्द कम्प्यूटर, माउस, इंटरनेट आदि हमारे अपने शब्द ही नहीं हैं। ये बाहर से आए हैं। इन्हें हमने एक प्रचलित व्यवस्था के तहत स्वीकार ही कर लिया है। मीडिया में हो चाहे जीवन में। हमें इतना उदार तो होना ही होगा। वैसे पोस्ट ऑफिस का हिन्दी अनुवाद डाक घर प्यारा लगता है। यह सरल भी है। इसे प्रचलन में लाना चाहिए।
इंटरनेट के लिए अंतरजाल भी अच्छा है। एक भाषा तभी तो समृद्ध होगी जब वह नए-नए शब्द गढ़ेगी और उसका प्रचलन भी बढ़ेगा। वरना नए-नए शब्द तो केवल शब्दकोशों की शोभा बन कर ही रह जाएंगे और हम लोग चलाते रहेंगे अंग्रेजी से काम। किसे क्या फर्क पड़ता है, लेकिन दूरगामी नतीजे सामने आते हैं। जैसा हिन्दी के साथ हो रहा है वैसा व्यवहार दुनिया की किसी भी भाषा के साथ नहीं हो रहा। वैसे अंग्रेजी का प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं पर भी पडऩे लगा है, लेकिन वहां इतनी बुरी हालत नहीं है, जितनी हिन्दी प्रदेश में है। यहां सवाल केवल हिन्दी का ही नहीं है, वरन अन्य भारतीय भाषाओं की अस्मिता का भी है।
हिन्दी जनसंचार माध्यम अपने दोनों मोर्चों पर अंग्रेजियत का गुलाम होता जा रहा है। भाषा और व्यवहार दोनों स्तर पर। अनेक समाचार पत्रों में 'पेज थ्री' जैसे पृष्ठों पर नग्नता परोसने का सिलसिला-सा बन गया है। हिन्दी पत्रकारिता को अब अश्लीलता से परहेज ही नहीं रहा। इसीलिए खबरे भी अश्लील और चित्र भी अश्लील। यानी हिन्दी पत्रकारिता सामाजिक संरचना को विद्रूप तो कर ही रही है, वहीं भाषा को भी विद्रूपता का शिकार बना रही है। यह विकास नहीं, विनाश ही है।
इसे गहराई से समझने की जरूरत है। पत्रकारिता रंगीन तो बने, लेकिन वह रंगीन मिजाज न बने। मिशन की तरह काम करने वाली पत्रकारिता वैसे तो कमीशन तक जा पहुंची है, लेकिन अब वह भाषा के स्तर पर एक नए मिशन की ओर चल पड़ी है और वह मिशन है हिंग्लिश या हिंगरेजी। इस सोच को समकालीन हिन्दी पत्रकारिता प्रगति के सोपान समझने की भूल कर रही है, जबकि यह ऐसा सोपान है जिस पर चल कर एक भाषा अपने स्वरूप को खो रही है।
हिन्दी पत्रकारिता का वर्तमान दौर भाषाई हीनता का शिकार है। अंग्रेजी से उसका लगाव हद पार कर रहा है। केवल भारत में ही अंग्रेजी के प्रति यह दीवानगी देखने को मिलती है। माना कि हम अंग्रेज और अंग्रेजी के गुलाम रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं, कि हम आजाद होने के बावजूद उस अंग्रेजियत से मुक्त ही न हो पाएं। पत्रकारिता समाज को सूचित करती है वह शिक्षित भी करने की कोशिश करती है। लेकिन पिछले एक दशक से देखा जा रहा है, कि हिन्दी पत्रकारिता बाजारवाद की चपेट में है। वह अंग्रेजी को बाजार का हिस्सा समझ रही है। जबकि उसके अधिकांश पाठक आज भी हिन्दी वाले हंै। गांव के हैं। दिल्ली की तथाकथित राष्ट्रीय पत्रकारिता जब से दिग्भ्रमित हुई और अंग्रेजी की गोद में जा बैठी है, तब से छोटे-छोटे शहरों के समाचार पत्र भी उसी भेड़ चाल के शिकार हैं। लगभग वैसे ही शीर्षक, वैसे ही समाचार सारे अखबारों में नजर आने लगे हैं। क्या इसी का नाम वैश्विकता या ग्लोबलाइजेशन है? अगर हां, तो कम से कम मेरे जैसा पाठक इससे कतई इत्तफाक नहीं रखता और वह पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता और विचारों की पवित्रता को ही अब तक मिशन मान कर चलना पसंद करता है।
कांतिकुमार जैन बिल्कुल ठीक फरमाते हैं कि रक्तचाप को जैसे साइलेंट किलर कहा जाता है वैसे ही हिन्दी के संदर्भ में अंग्रेजी को हम साइलेंट चेंजर कह सकते हैं। मैं भी अकसर कहता हूं, कि जीवंत भाषाएं उदारता के रथ पर सवार हो कर चलती हंै, लेकिन यह उदारता अपनी मां को बेदखल करके दूसरे की मां को स्थापित करने की इजाजत नहीं दे सकती। हिन्दी के जनसंचार माध्यम इस वक्त अपनी मां की उपेक्षा कर रहे हैं और पराई मां से ज्यादा लाड़-प्यार दिखा रहे हैं। जबकि होना यह चाहिए कि अपनी मां का सम्मान बनाए रखते हुए हम दूसरे की मां का भी सम्मान करें। हर भाषा प्यारी है, लेकिन जब बात राष्ट्रभाषा और अपनी मां की अस्मिता की आएगी, तो हमें विचार-मंथन करना ही होगा। हिन्दी का सवाल केवल कुछ लोगों का सवाल नहीं है, यह समूचे राष्ट्र की पहचान का भी सवाल है। जो अपनी स्वतंत्रता के बाद से अब तक अनेकानेक संक्रमणों से गुजरता जा रहा है। फिर चाहे वह भाषा का संकट हो, चाहे विचार का संकट या कुछ और। क्या हम ये सारा संक्रमण देखते रहेंगे? इसी प्रत्याशा में कि बाजार के दबाव के कारण चलने वाला हिन्दी जनसंचार माध्यम का ये हिंगरेजी-एपिसोड एक दिन तो खत्म होगा और फिर ब्रेक के बाद जो एपिसोड उर्फ धारावाहिक शुुरू होगा, वह विशुद्ध हिन्दी का ही होगा? या फिर ऐसी हिन्दी का होगा, जिसमें अंग्रेजी तो समाहित रहेगी, मगर अंग्रेजियत बिल्कुल नहीं। मैं आशावादी भी हूं। हो सकता है कल हम जनसंचार माध्यम में एक नई हिन्दी के दर्शन भी करें लेकिन अभी जो स्वरूप दिख रहा है, वह आश्वस्ति कारक तो नहीं है।
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गिरीश पंकज रायपुर में रहते हैं। वे भारतीय एवं विश्व साहित्य की अनुवाद- पत्रिका सद्भावना दर्पण के प्रकाशन के साथ बच्चों के लिए बालहित का संपादन- संचालन बरसों से कर रहे हैं। वे पिछले 35वर्षों से साहित्य एवं पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय हैं। उनकी 32 पुस्तकें जिसमें 3 व्यंग्य- उपन्यास, 8 व्यंग्य संग्रह, 14 किताबें नवसाक्षरों के लिए, 4 बच्चों के लिए तथा एक हास्य चालीसा व गज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं। वे साहित्य अकादेमी दिल्ली के सदस्य हैं। उनका पता है - जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर-492001,मोबाइल- 094252-12720 ईमेल- girishpankaj1@gmail.com

1 comment:

girish pankaj said...

मेरे लेख को इतने सुन्दर ढंग से छापने के लिये धन्यवाद छोटा शब्द है. सोच रहा हूँ क्या कहू. फिर भी फिलहाल धन्यवाद ही. कुछ तो कहना ही है धन्यवाद, आभार बहरहाल, अंक हमेशा की तरह सुन्दर है....प्यारा है....न्यारा है. दिल से बधाई...