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Apr 27, 2009

बस, अध्ययन की सुविधा के लिए


बीसवीं सदी में हिंदी व्यंग्य की समृद्ध परंपरा रही है जिसे अंतिम और निर्णायक रूप से परसाई युग माना गया। इस बीते युग ने हिंदी व्यंग्य की जो पुख्ता जमीन तैयार की है उस जमीन पर खड़े रहना भी बाद की पीढ़ी के व्यंग्य लेखकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। आज जब इक्कीसवी सदी का एक दशक निकलने को है तब आज के सक्रिय व्यंग्यकारों के लिए लिखने का मतलब है अपनी दमदार पुरखौती के सामने खड़े होना। कविता की ही तरह यह विकट चुनौती व्यंग्य लिखने वालों के सामने भी है। कुछ इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर व्यंग्य का यह स्तंभ '21 वीं सदी के व्यंग्यकार' शुरु किया जा रहा है, जिसमें हम आज के सक्रिय व्यंग्य कर्मियों को लगातार छापने के बहाने व्यंग्य की आगे की संभावनाओं को तलाशने का भी यत्न करेंगे। हर लेखक की रचना हमें चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव के सौजन्य से प्राप्त होगी, उनकी अपनी माकूल टिप्पणी के साथ। इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है गौतम सान्याल की व्यंग्य रचना।

बस, अध्ययन की सुविधा के लिए
 - गौतम सान्याल
हिन्दी के आलोचकों को दो भागों में बांटा जा सकता है- धातु और अधातु।
भाई लोग अन्यथा न लें। बस, अध्ययन की सुविधा के लिए। तो दो भागों में बांटा जा सकता है।
 जो धातु हैं, वे प्राय: चमकीले और कीमती हुआ करते हैं। ये छूते ही टन्न से बोलते हैं। ये ताप और विद्युत के सुचालक हुआ करते हैं। दूसरों की ऊर्जा दूसरों तक पहुंचाने में इनका जवाब नहीं। कभी-कभी ये आपस में लड़कर फ्यूज उड़ा देते हैं, जैसा कि पिछले दिनों नई कहानी को लेकर हुआ।
धातु साधारणत: ठोस और कठोर हुआ करती है। कौन कितना कठोर है, इसे मोह जला की खुरचाऊ विधि से परखा जाता है। उदाहरण के लिए अगर दिल्ली का धातु 'क' भोपाल का धातु 'ख' को खुरच देता है तो देश की असंख्य लिटमैग प्रयोगशालाओं व प्रेस क्लबों में 'क' धातु 'ख' की तुलना में अधिक घनत्व की मान ली जाती है। ध्यान रहे कि इन लिटमैग कार्यशालाओं में ही अधिकतर स्क्रैप, चिप्स या चूरन खपते हैं। संक्षेप में- जो धातु जितनी खुरचाऊ है, वह उतनी ही ठोस मान ली जाती है।
धातुओं में लौह प्रकार सबसे ज्यादा पाया जाता है। इनमें से जो कीलें या बटखरे बनते हैं, उनकी हालत सबसे टै्रजिक होती है। अक्सर कीलों को दूरदर्शन या आकाशवाणी की किसी दीवार पर ठोंककर उस पर देश के महान नेताओं के चित्र टांग दिए जाते हैं। जब कमरों की पुताई होती है तब चित्रों को उतार
लेने के बाद कीलों को उखाड़कर बाहर फेंक दिया जाता है और गड्ढों में डिटो फिक्स भर दिया जाता है। फिर पुताई के बाद पता ही नहीं चलता कि वहां कोई गड्ढा था। बाहर फेंक दिए गए कीलों में जंग लग जाता है। तब ये कीलें घातक हो जाती है और अपने अंदर टिटनेस के अदृश्य जीवाणु संजोए सदैव किसी नंगे पैर की ताक में रहती हैं। जो बटखरे बनते हैं, वे अपने वजन से हल्के हो जाते हैं। दिल्ली में मैंने ऐसे कई बटखरे देखे जो अपने वजन से हल्के थे। हुआ यह है कि सेठजी ने इनके पीछे का मोम निकालकर इनको पीछे से ही घिस डाला है।
ये अक्सर तीन-पांच वाली कथा शिविरों की तराजू में चढ़ते हैं और आम पाठकों को भरमाते हैं। संक्षेप में, इन्हें चोरबट्टा कहा जा सकता है।
जो धातु जितनी कीमती होती है, वह उतनी ही लचीली होती है और उसके उतने ही लंबे सूक्ष्म तार खींचे जा सकते हैं। लेकिन तन्यता- सामथ्र्य से अधिक खिंच जाने पर ये टूट जाते हैं। आपको पिछला पूर्वाग्रह-प्रसंग याद होगा, भोपाल से सुदूर यूरोप तक और फिर फटाक।
एक धातु प्लेटिनम भी है जो अत्यंत चमकीली और कीमती होती है, किन्तु साधारणत: दिखती नहीं है। मैंने प्लेटिनम को कभी नहीं देखा है। प्लेटिनम मोटे-मोटे और जटिल-तकनीकी उत्पादन के काम आता है। उदाहरण के लिए, 'भारत के भाषा परिवार और हिंदी या 'माक्र्सवाद और पिछड़े हुए समाज' जैसा उत्पादन।
जो टीन हैं, उनके कनस्तर-डिब्बे आदि बनाए जाते हैं। ये खाली होने पर ठनठन और घी भर देने पर भद्भद् बजते हैं। ये दबाने पर पिचक जाते हैं। टीन विज्ञापित साज-सज्जा से युक्त होने पर आकर्षक हो उठते हैं। पैकिंग के बाद इन पर एगमार्क दाग दिया जाता है। डिब्बों पर एहतियात के तौर पर मेन्यूफैक्चरिंग और एक्सपायरी डेट साफ-साफ लिखी होती है। मजे की बात तो यह है कि ये डे्टस माल के संदर्भ में होते हैं, जिनके साथ टीनों की किस्मत जुड़ जाती है।
आजकल पीतल कम दिखते हैं। राष्ट्रपति के अंगरक्षकों की वर्दियों में, हकीम-हुक्काम के यहां पानदान, पीकदान या मंदिरों में दीपथाल-घंटाल-ये आज के जीवन में यदाकदा लुकपुकाते है। गांधी जी के जमाने के तमाम पीतल कहां लुप्त हो गए, यह शोध का विषय हो सकता है। कई पीतल हिंदी एकादमी, हिंदी प्रचारक संस्थान आदि के गेट पर बेबस ताले की शक्ल में देखे जा सकते हैं, जिनकी चाबी गुम हो गई है। पीतल के महाकाय भोंपू भी बनाए जाते हैं जो कि लंबी बैंड के पीछे की परित्यक्त-सी पंक्तियों में किन्ही कन्धों पर होता है और रुक-रुककर भों-भों बजता है। पीतलों का सबसे बड़ा नस्ली दोष यह है कि कुछ दिनों बाद ये द्युतिहीन हो जाते हैं। तब इन्हें चमत्कृत करने के लिए राख, इमली, ब्रासो इत्यादि से रगड़कर चमकाना पड़ता है।
कुछ धातुओं के सिक्के बनाए जाते हैं। जहां ये बनते हैं, उसे टकसाल कहा जाता है। देश के कुछ प्रमुख टकसाल इन स्थलों पर हैं- बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली, दादा भाई नौरोजी रोड, बंबई, प्र्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट, कलकत्ता, दरियागंज नई दिल्ली आदि। यहां के ढाले गए संविधान-सम्मत सिक्के देश-भर में चलते हैं। सिक्के तो बस वित्तीय संकेत हैं, जिसके दो पहलू हैं- सिक्कों के एक तरफ 'सत्यमेव जयते' तो दूसरी तरफ 'इति असत्या' अर्थात मूल्य अंकित होता है जो कि सिक्कों के धातव मूल्य से सदैव अधिक हुआ करता है। सिक्कों को कुछ दिनों तक बाजार में चलाने के बाद वापस ले लिया जाता है और तब इन्हें गला दिया जाता है।
अधातु, ठोस, तरल व गैस- तीनों रूप में पाए जाते हैं। जो ठोस हैं, वे भंगुर होते हैं और हथौड़े से पीटने पर चकनाचूर हो जाते हैं। इस प्रकार की अधातु के सबसे अच्छे नमूने विश्वविद्यालयों में देखे जा सकते हैं। ठोस प्रकार की अधातु का घनत्व कम होता है। अधातु का संसार कार्बनमय है। इनमें विरल किस्म की अधातु जैसे कि हीरा इत्यादि यदाकदा दिखता है, लेकिन अधिकतर तो सब कोयला, ग्रेफाइट या चूना ही है। वैसे तो हीरा भी कार्बन का एक संशोधित रूप ही है।
तरल प्रकार की अधातुओं का अपना कोई निश्चित आकार नहीं हुआ करता। बर्तन बदलते ही ये झट से अपनी आकृति बदल लेते हैं, लेकिन इनका आयतन वही रहता है। गर्म करने पर ये गैस में परिणत होकर गायब हो जाते हैं। प्रत्येक तरल प्रकार की अधातु का गायबांक अलग-अलग होता है जोकि इनकी विशिष्ट पहचान है। उच्च-गायबांक वाले अधातु के विशिष्ट नमूने सरकारी संस्थानों में देखे जा सकते हैं। निम्न गायबांक वाले अधातु का प्रमुख विचरण-क्षेत्र प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की डेढ़ पेजी पुस्तकीय-समीक्षा के कालम हैं।
गैस प्रकार की अधातु बड़ी बेचैन और फुसफुस हुआ करती है। इनका न तो कोई निश्चित आकार होता है और न ही कोई निश्चित आयतन। इनमें से कई भारी होती हैं तो कई हल्की, कई गंधाती है तो कई गंधहीन हुआ करती है। प्रतिक्रिया के आधार पर इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- सक्रिय और निष्क्रिय गैसें। सक्रिय प्रकार की गैसों की प्रतिक्रिया- पद्धति के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। आपको पिछले दिनों का 'कामरेड का कोट' प्रसंग शायद याद हो कि बहस बड़ी बेचैनी से कहानी से पैदा हुई कि कहानी से बाहर चली गई और लौटकर कहानी में अभी तक वापस नहीं आई। कहानी वैसे भी काफी गैसयुक्त थी।
निष्क्रिय प्रकार की गैसें गांधी-टोपी पहनती हैं और रामधुन गाती हैं। ये इस देश और इस काल में रहती हुई एस्किमोज के इगलू के दरवाजों की डिजाइन या कि शिवशिष्य भंगोड़े नदी-भृंगी की लंगोट के कपड़ों की क्वालिटी जैसी महान् समस्याओं में उलझी रहती है। इनमें से कुछेक इस वायुमंडल में बस, यूं ही रहती हैं और उदास दंडायन की भांति सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणें सोखती रहती हैं। उदाहरण के लिए - विनम्र निवेदन है कि इन पंक्तियों के लेखक को देखें।
कुछ हैं - जो धातु हैं न अधातु। ये इधर-उधर डोलते रहते हैं। ये धातु की तरह चमकदार और अधातु की तरह तरल होते हैं, जैसे पारा, जैसे जादुई यथार्थवादी। अब अधिक और क्या कहें, बाकी आप समझदार हैं।
संपर्क - विभागाध्यक्ष (हिंदी विभाग), बध्र्दमान विश्वविद्यालय गुलाब बाग, बध्र्दमान (प. बंगाल) मो. 09434182184
गौतम सान्याल
गौतम सान्याल कम लिखते हैं पर बहुत कुछ लिखते हैं। वे व्यंग्य के अतिरिक्त कहानी और आलोचना में भी दखल रखते हैं। यद्यपि उन पर भ्रमित होने का आरोप लगता है पर वे जहां भी होते हैं अपने पूरे वजूद में होते हैं। गौतम सान्याल की व्यंग्य रचनाएं व्यंग्य के परम्परागत शिल्प को तोड़ती हैं। व्यंग्य लिखते समय उनके विषय का चुनाव भी व्यंग्य के चिरपरिचित मसाले और उनकी गंध से अलग आस्वाद देते हैं। अपनी अलग खुशबू बिखेरते हैं। गौतम जितना लिखते हैं उससे कई गुना ज्यादा वे पढ़ते है। वे अपनी तीन मातृ भाषाएं बतलाते हैं - बंाग्ला, भोजपुरी और हिंदी.. और उनकी रचनाओं में इन तीनों भाषाओं की विरासत की अनुगूंज को देखा जा सकता है। वे साठोत्तर हिंदी बांग्ला कहानियों पर शोधरत भी हैं। अपनी रचनाओं में उनमें हास्य पैदा करने की भी अद्भुत क्षमता है। परिहास की नई नई भंगिमाओं के जरिये वे अपनी रचना के रस में पाठक को डुबोए रखते हैं। अमूमन व्यंग्य की तल्खी उसके लिखने वाले के व्यवहार में भी दीख जाती है.. पर गौतम आहिस्ता बोलते हुए और शालीन दिखते हुए बड़ी विनम्रता से व्यंग्य कर जाते हैं। उनमें बांग्ला बौद्घिक पन है। यहां प्रस्तुत है उनकी एक व्यंग्य रचना 'बस, अध्ययन की सुविधा के लिए' जिसमें खेमेबंदी करने और उछाड़-पछाड़ में लिप्त आलोचकों पर निशाना साधा गया है। यह रचना विनोद कुमार शुक्ल की कहानी 'गोष्ठी' की याद दिलाती है।

1 comment:

राजेश उत्‍साही said...

वाह मजा आ गया। एक लेख में दो का आनंद। धातु के गुण भी जान लिए और आलोचकों के भी। बधाई गौतम जी और रत्‍नाजी आपको भी। ‍