(हे.न.ग.विश्वविद्यालय श्रीनगर (गढ़वाल) उत्तराखण्ड)
कोविड- 19 के इस समय में सम्पूर्ण मानव समाज, न केवल शारीरिक; अपितु गम्भीर मानसिक रोगों व समस्याओं से ग्रस्त और त्रस्त हैं। आज मनुष्य अवसाद आदि जैसी मानसिक समस्याओं से घिरा है; जो विकराल होने पर अनेक मनोरोगों में बदल जाती हैं। आपदा के इस गम्भीर व चुनौतीपूर्ण समय में हमें ऐसे साधनों की आवश्यकता है, जो शरीर के साथ ही मन का भी स्वस्थ रख सकें। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य मनोविज्ञान मनोरोगों को सतही ढंग से अध्ययन करते हुए मनोचिकित्सा द्वारा उनका सतही निदान ही प्रस्तुत करता है। अनेक बार मनोवैज्ञानिकों की शरण में जाने पर वे अच्छी नींद के लिए नींद की एलोपैथिक दवाएँ देने लगते हैं। एलोपैथी की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं; जिस पर विवाद नहीं होना चाहिए; किन्तु मनोरोगों के सन्दर्भ में योगाभ्यास तथा आयुर्वेद एलोपैथी से अधिक उपयोगी हैं।
अवसाद की स्थिति में मनोचिकित्सकों
द्वारा जब नींद की दवाओं का लम्बे समय तक सेवन करवाया जाता है,
तो व्यक्ति और भी अधिक गम्भीर मनोशारीरिक समस्याओं में घिर जाता
है। यहाँ यह स्पष्ट करना है कि योग एवं आयुर्वेद आदि जैसी भारतीय विधाएँ/
पद्धतियाँ इन मनोरोगों का गूढ़ विश्लेषण करते हुए इनके स्तरीय निदान भी प्रस्तुत
करती हैं। योग मनोविज्ञान भी है; जिसमें चित्तवृत्तिस्वरूप मनोविकारों का गूढ़ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण स्तरीय व
प्रायोगिक निवारण की दृष्टि से किया गया है। दैनिक योगाभ्यास शारीरिक व मानसिक
अनुशासन द्वारा मनोविकार नियन्त्रण का सर्वश्रेष्ठ साधन है। इससे व्यक्तित्व का
संतुलन व मनोस्वास्थ्य दोनों ही प्राप्त होंगे तथा व्यक्ति एक स्वस्थ जीवन जी
सकेगा। इस आलेख में हम जनसामान्य के लिए तनाव व अवसाद जैसी मानसिक समस्याओं के
यथोचित विवेचन के साथ ही इनके निदान हेतु योग के ही एक महत्त्वपूर्ण अभ्यास
‘त्राटक‘ को प्रस्तुत करेंगे। पहले मनोरोग के सम्बन्ध में भारतीय अवधारणा को संक्षेप
में जानेंगे।
मनोरोग के सम्बन्ध में भारतीय
अवधारणा
आधुनिक परिदृश्य में हम पूर्वयुगों से
अधिक स्वास्थ्य-विघटन का सामना कर रहे हैं। स्वास्थ्य में विघटन के अनेक कारणों
में से मानसिक समस्याएँ तथा मनोरोग भी प्रमुख कारण हैं। मनोरोगों के लिए दूषित
समाज,
रूढियाँ, कुरीतियाँ, आर्थिक समस्याएँ, असंतुष्ट वैवाहिक जीवन तथा अनेक अन्य कारण बाहरी रूप से उत्तरदायी हो सकते हैं; किन्तु इसके साथ ही मनोरोगों में आभ्यन्तर कारण भी प्रमुख हैं। इन
कारणों में से मोह, शोक, क्रोध,
हर्ष, लोभ, भय,
श्रद्धा, आवेश, लज्जा, शील, शौर्य,
आचार एवं ओजक्षय को प्रमुख माना गया है। ये कारण मानसिक तनाव,
अवसाद, भ्रम एवं विभ्रम, मद, मूर्च्छा एवं संन्यास, उन्माद, अपस्मार, योषापस्मार,
अतत्त्वाभिनिवेश, व्यसनप्रियता, मदात्यय, निद्राल्पता, स्मृतिनाश एवं तत्सम्बन्धी व्याधियों, हीनभावनाजन्य
स्नायुदौर्बल्य तथा मनोदैहिक विकृतियों आदि जैसे बाह्य लक्षणों के रूप में
दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ हम तनाव तथा अवसाद को समझने का प्रयास करेंगे।
तनाव
योगदर्शन मानता है कि त्रिगुणों अर्थात् सत्त्व,
रजस् एवं तमस् से ही सम्पूर्ण शरीर व मन आदि का अस्तित्व है। जब
तक ये त्रिगुण यथोचित संतुलित अवस्था में रहते हैं तब तक तो सबकुछ सामान्य रूप से
चलता है; किन्तु समस्या तब आरम्भ होती है जब ये असंतुलित
होकर शरीर, मन व बुद्धि को असामान्य रूप से विकृत कर देते
हैं। इसी मत का समर्थन करते हुए आयुर्वेद में रज एवं तम गुणों के असंतुलन को
मानसिक रोगों का कारण बताया गया है। माना जाता है कि सत्त्व गुण रोगोत्पत्ति नहीं
करता; इसलिए उसकी मनोदोषों में गणना नहीं की गई है। रज
एवं तम विकारी होने से इनकी मनोदोष संज्ञा भी है। वस्तुतः हमारी समस्त मानसिक
व्याधियों के लिए राजस या तामसिक प्रवृत्तियाँ ही उत्तरदायी हैं। राजस
प्रवृत्तियों में उच्च महत्त्वाकांक्षाएँ, यश-मान की
इच्छाएँ, पद-प्रतिष्ठा की अभिलाषाएँ, बनाव-शृंगार, राजसी रहन-सहन, वाद-विवाद, धन-साधन संग्रह आदि तथा तामसिक
प्रवृत्तियों में दूसरे का अहित, व्यसन, काम-वासनाएँ, मोह, मद,
आलस्य, अकारण द्वेष-शत्रुता आदि हैं।
प्रायः प्रत्येक मानसिक तनाव में इनमें से ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारण
विद्यमान रहता है।
उपर्युक्त कारण तो शास्त्रीय दृष्टिकोण
से मनोरोगों के आन्तरिक कारणों के रूप में बताये गए हैं;
परन्तु बाह्य या व्यावहारिक दृष्टिकोण से ये कारण स्वास्थ्य,
समाज, व्यवसाय, अर्थव्यवस्था, कानूनी, विवाह, प्रेम, शिक्षा,
नौकरी, मृत्यु, पुत्र अथवा संतान, आवास एवं कार्यालय आदि
सम्बन्धी गतिविधियों में मनोवांछित परिणाम प्राप्त न होने के रूप में दृष्टिगोचर
होते हैं। ये सारे कारण मिलकर मानसिक तनाव को जन्म देते हैं। परिणामस्वरूप चिन्ता,
निराशा, भय, उद्विग्नता,
मानसिक अस्थिरता, स्मृतिनाश, चिड़चिड़ापन, आत्महत्या की प्रवृत्ति, सिरदर्द, भूखनाश एवं महिलाओं में अनियमित मासिक चक्र के रूप में मानसिक तनाव के
लक्षण प्रकट होते हैं। तनाव एक ऐसा मनोरोग है, जो व्यक्ति
को मानसिक रूप से तो क्षीण करता ही है, इसके अतिरिक्त
शरीर को भी अत्यंत घातक रोगों का घर बना देता है। इसके अतिरिक्त आधुनिक युग में
अवसाद भी एक मुख्य मनोरोग के रूप में उभरकर आया है। अवसाद को हम निम्न प्रकार से
समझ सकते हैं।
अवसाद
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रायः मानसिक तनाव के
पश्चात् सर्वाधिक रोगी अवसाद के ही हैं। इसे हम सामान्य रूप से इस प्रकार समझ सकते
हैं कि जब तक व्यक्ति में संघर्ष की क्षमता रहती है, तब तक व्यक्ति मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है; किन्तु जब वह संघर्ष करने की स्थिति में नहीं रहता एवं उसकी
कार्यक्षमता धीरे-धीरे कम हो जाती है, तो वह अवसादग्रस्त
हो जाता है। वास्तव में यह निराशा से उत्पन्न मनोरोग है। जब हमें हमारी क्षमताओं व
परिश्रम के अनुसार कार्यफल नहीं मिलता है तो प्रायः हम निराशावादी हो जाते है,
यह स्थिति गहन मानसिक स्तर पर अवस्थित होकर अवसाद का कारण बनती
है। इसके अत्यंत घातक होने का कारण यह है कि यह व्यक्ति के आत्मविश्वास को समाप्त
कर देता है। आत्मविश्वास की समाप्ति जीवन की संघर्ष क्षमता को समाप्तप्रायः कर
देती है, जिससे व्यक्ति अनेक बार आत्महत्या भी करने को
उद्यत हो जाता है।
अवसाद के लक्षण- सिर का भारीपन,
सिरदर्द, निद्राल्पता, आलस्य, अनुत्साह, अंगों
में पीड़ा, अंगशैथिल्य, अरुचि,
अपच, बारम्बार मूत्र प्रवृत्ति, कब्ज, भयानुभूति, एकान्तप्रियता
एवं महिलाओं में अनियमित मासिकधर्म आदि हैं।
मानसिक परिवर्तन व विचलन ही तनाव तथा
अवसाद आदि सभी मनोरोगों का मूल कारण हैं। मन के नियन्त्रण द्वारा ही इन पर विजय
प्राप्त की जा सकती है। जो एकाग्रता, मानसिक
स्वस्थता, शान्ति और प्रसन्नता के द्वारा ही सम्भव है;
यह सब योगाभ्यास द्वारा ही प्राप्य है। तनाव एवं अवसाद निवृत्ति
के उपरान्त मानसिक स्वस्थता में कुछ योगाभ्यास विशेष उपयोगी हैं; जिनमें से त्राटककर्म भी एक ऐसा ही अभ्यास है। आइए इस अभ्यास को
संक्षेप में समझते हैं।
त्राटककर्मः तनाव एवं अवसाद
निवारण हेतु एक श्रेष्ठ योगाभ्यास
त्राटक अर्थात् विशेष केन्द्र को
एकाग्रता के साथ देखना। इसके तीन प्रकार हैं- बहिर्त्राटक,
अन्तर्त्राटक तथा अधोत्राटक। तीनों प्रकार के त्राटक का क्रमवार
अभ्यास किया जाता है। सर्वप्रथम एक मोमबत्ती को जलाकर इतनी ऊँची मेज अथवा तल पर
लगाना चाहिए कि सीधे बैठने पर वह आँखों की ठीक सीध में रहे उससे एक या डेढ फुट की
दूरी पर; अब किसी
ध्यानात्मक आसन; जैसे- वज्रासन या पद्मासन में स्थिरता
पूर्वक बैठते हैं। ऐसा करने के पश्चात् आँखें बन्द करके अपने पूरे शरीर का ध्यान
करते हुए व पूरे शरीर को मूर्त्तिवत् होने देना चाहिए। जब
चित्त शान्त हो जाए, तो आँखें
खोलकर ज्योति के बीच में जो काले रंग की लौ होती है; उसे
एकटक देखना चाहिए। अन्य सभी वस्तुओं को भूलकर पूरा ध्यान इसी पर एकाग्र करना
चाहिए। यदि बीच में मन विचलित हो जाए, तो उसे पुनः ज्योति
पर ही स्थिर करना चाहिए। मोमबत्ती में अनेक प्रकार की लौ होती हैं, उन्हें उपेक्षित करके केवल काले रंग की बीच वाली लौ का ही ध्यान करना
है। सजगता के साथ एकाग्रता बनाए रखनी आवश्यक है।
जब आँखें थक जाएँ व अश्रु बहने लगें,
तो उन्हें बन्द कर लेना चाहिए। तत्पश्चात् अन्तःत्राटक के अभ्यास
हेतु पलकों को बन्द करके उसी ज्योति की प्रतिच्छाया को अपने मन के भीतर चिंतन करके
देखने का प्रयास करना चाहिए। हो सकता है प्रारम्भ में अभ्यास करते हुए छाया स्पष्ट
न दिखे, तो भी तनावरहित होकर अभ्यास करते रहना चाहिए।
धीरे-धीरे लौ की प्रतिच्छाया दिखना आरम्भ होगा। इस प्रकार मात्र इसका ही ध्यान
करना आवष्यक है। यदि कोई भी विचार मन में आ रहा हो, तो
उसे उठते हुए मात्र साक्षी भाव से देखते रहना चाहिए। जब तक थकान न मिटे व ज्योति
की प्रतिच्छाया दिखती रहे, आँखों को बन्द ही रखना चाहिए;
जब यह धुँधली हो जाए, तब आँखें खोलकर
पुनः उपर्यक्त प्रक्रिया को दोहराना चाहिए। बन्द नेत्रों के सामने अंधकार का विचार
बनाए रखना आवश्यक है।
समय, अवधि
एवं सावधानियाँ - प्रातः व रात्रि का समय ही इसके लिए उपयुक्त है। इसके लिए अवधि
शारीरिक लाभ हेतु पाँच मिनट पर्याप्त है; किन्तु
आध्यात्मिक दृष्टि से लाभान्वित होने के लिए इससे अधिक करना ध्यान के अभ्यास हेतु
लाभप्रद होता है। त्राटक चश्मा लगाकर नहीं करना चाहिए। विचारों को रोकने का प्रयास
नहीं करना चाहिए, मात्र साक्षी की भाँति उन्हें देखते
रहना चाहिए। केवल शारीरिक लाभ प्राप्त करना हो, तो पाँच
मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए। यह दृष्टि दोष दूर करने के लिए पर्याप्त समय है।
त्राटककर्म के वैज्ञानिक आधार
तथा लाभ
आँखें खोलने-बन्द करने पर मन-मस्तिष्क
प्रभावित होता है। त्राटक कर्म में एक ही बिन्दु को ध्यान से देखने व उसके बाद
पलकें बन्द करने पर उसी का ध्यान करने से साधक की मानसिक व्यग्रता,
चिंता एवं चंचलता समाप्त होती है। शीर्ष प्रदेश की समस्त
तन्त्रिकाओं में सुचारू ढंग से रक्त परिसंचरण होने से वे स्वस्थ क्रियाशील बनती
हैं। आँखों पर इसका प्रभाव पड़ने से दूर एवं निकट दृष्टि दोष दूर होता है। यदि
आँखें स्वस्थ हैं, तो अधिक उम्र तक भी दृष्टि सही
रहेगी।
आँखों का सीधा सम्बन्ध चित्त की स्थिरता
एवं एकाग्रता से होता है। वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व से मानसिक अस्थिरता एवं अशान्ति
होती है;
जिससे अनेक मानसिक रोग होते हैं। आधुनिक युग में अत्यधिक
यान्त्रिक जीवन इसको और भी अधिक बढ़ा देता है। इन समस्याओं से बचने हेतु त्राटक एक
अच्छा अभ्यास है। इससे आँखें एवं मस्तिष्क दोनों स्थिर
एवं तनाव रहित हो जाते हैं। अनिद्रा एवं स्नायविक तनाव से ग्रस्त लोगों के लिए यह
बहुत उपयोगी है। साथ ही इससे आत्मबल भी बढ़ता है। मानसिक तरंगे व्यक्ति की शारीरिक,
मानसिक व भावनात्मक उत्तेजना से सम्बन्ध रखती हैं। त्राटक से
उनका लय होने लगता है व उनके कम्पन की आवृत्ति कम होने लगती है। इससे मस्तिष्क
शान्त एवं विकाररहित होता है। हिंसा, क्रोध, चिड़चिड़ापन तथा आक्रामकता धीरे-धीरे नियन्त्रित हो जाती है। तंत्रिका
तन्त्र जितना स्वस्थ व शांत होगा, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों
की क्रिया-प्रणाली भी सुचारू एवं नियमित होगी। पिनियल ग्रन्थि वृद्धिजनक (ग्रोथ),
यौन विकासक हार्मोन (गोनेडट्रॉपिक), स्तनयजनक
(प्रोलैक्टिन) ग्रैवकीय(थायट्रॉपिक) व अधिवृक्कीय(अॅडिनोट्रापिक) आदि को नियमित
करके व्यक्तित्व को स्वस्थ करती है। त्राटककर्म द्वारा शान्त एवं एकाग्र होने से
इस ग्रन्थि पर अत्यंत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप अन्तःस्रावी तन्त्र
के स्वस्थ होने से समस्त शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों में तारतम्यता बनती है।
यत्नपूर्वक आँखें खुली होने से शीर्ष
प्रदेश में तीव्र रक्तसंचार एवं बाद में आँखें बन्द होने पर शिथिलता होती है। इससे रक्तपरिसंचरण तन्त्र में एक लयबद्धता विकसित होती है;
इसलिए उच्च एवं निम्न रक्तचाप तथा हृदयरोगों
में लाभ प्राप्त होता है। शिथिलता की स्थिति में शरीर की क्रियाओें के मन्द होने
के कारण श्वसन धीमा होता है; इससे श्वसनांगों को आराम
मिलता है।
इसके अतिरिक्त पिनियल ग्रन्थि के सक्रिय
होने के फलस्वरूप त्राटक के द्वारा पाचन सम्बन्धी ग्रन्थियों के हार्मोन्स के
स्रावण में सुधार होने के कारण पाचन तन्त्र को भी लाभ प्राप्त होते हैं। हड्डियों
की मजबूती आदि को भी यह ग्रन्थि हॉर्मोन्स के द्वारा प्रभावित करती है। अतः इस
ग्रन्थि द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स में सुधार आने से कंकाल,
प्रजनन एवं उत्सर्जन आदि तन्त्रों को भी लाभ होता है। त्राटक में बैठने की विशेष स्थिति के कारण रीढ़
व गर्दन की हड्डी दृढ़ एवं मजबूत होती है। इससे स्पॉन्डिलायटिस, कमर व पीठ का दर्द आदि में भी लाभ प्राप्त होता है।
4 comments:
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बहुत महत्त्वपूर्ण आलेख।वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता और अधिक है।त्राटककर्म को इतनी सुगमता से स्पष्ट करने हेतु कविता जी को बधाई।
जीवन को बेहतर ढंग से जीने का मन्त्र सिखाने वाला लेख। पटनीय एवं अनुकरणीय
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