- पूनम सिंह
अंतरास्ट्रीय स्तर पर होने वाली चित्रकारी प्रतियोगिता हेतु
देश - विदेश से कलाकार शिरकत कर चुके थे
और ज्वलंत विषय पर चर्चा
की गूंज थी।
वो चित्रकारी में हिन्दुस्तान का चेहरा था और राष्ट्रीय स्तर पर
अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका था। सब अपने मन मस्तिष्क
मे एक रूप रेखा खींच कर प्रतियोगिता के लिए तैयार थे...।
विषय मिला,- ‘माँ’
, सुनते ही उत्सुकता का तापमान एक दम से ठंडा पड़ गया।
सभी अपनी अपनी तूलिका व कैनवस लेकर तैयार हो गए। वो भी अपनी कैनवस
पर तूलिका और रंगों के सहारे माँ की छवि को उकेरने के
लिए बेचैन था। बचपन से लेकर अभी तक माँ के साथ बिताए
हर पल कि स्मृति उसके मनस पटल पर उतरती और उसे वो कागजों पर एक रूप रेखा खींच
देता। किन्तु जो भी रेखा खींचता उसे अधूरी लगती।
उसे मिटाता और दूसरी, तीसरी, चौथी कितनी ही रेखाएँ खींच दी पर सब अधूरी। फिर भी रंग और रेखाओं का
बादशाह आखिरी उम्मीद तक लड़ता रहा। ऐसा करते उसके भीतर
के चित्रकार के कई टूटते रूप
नीचे ज़मीन पर बिखर चुके थे। पर माँ की पूर्ण छवि और
रंग भरने में हर बार असफल रहा। अब उसकी तुलिका भी दम तोड़ चुकी थी। वही उसके
प्रतिद्वंदी साथी लगभग अपनी चित्रकारी बना कर पूरा कर चुके थे। ‘यह क्या हो गया है मुझे.. मैं क्यों बना नहीं पा रहा। मेरी बरसों की तपस्या का क्या असल सत्य यही है..?’ वह सर पकड़ कर बैठ गया। ‘मुझे माफ करना माँ! आज तेरा
बेटा हार गया... हार गया... ।’
...आँखों से बहते आँसुओं की एक बूंद टपक कर उसके पेंटिंग पर गिर
पड़ी ।
समय समाप्ति की घोषणा हुई और उसे वो अधूरी पेंटिंग ही जमा
करनी पड़ी..।
विजेता घोषित के
लिस्ट में अपना नाम सबसे ऊपर देख कर उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ।
नीचे उसने समीक्षा पढ़ा,- लिखा था ,- ‘माँ को उकेरना आसान नहीं.. आपकी पेंटिंग सब कुछ कह गई...।’
4 comments:
बहुत सुंदर!
शानदार रचना ! सच में माँ को उकेरना आसान नहीं !
सूंदर
बढि़या लघुकथा
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