प्रत्येक 100 साल
में किसी महामारी का आना प्रकृति का एक संकेत है; क्योंकि हर बार यह संयोग तो हो नहीं सकता। ऐसे में इतना तो
समझ में आता है कि जब- जब इंसानी गलतियों की इंतेहा हो जाती है, तो प्रकृति उन्हें सबक सिखाने के लिए चेतावनी देती हुई आ जाती है कि देखा तुमने मेरी बात नहीं मानी न, तो अब भुगतो अपनी करतूतों की सजा। अफ़सोस की बात है कि बार-
बार मिल रही इन चेतावनियों के बाद भी हम सबक लेना नहीं चाहते। एक बात और समझने की
है पिछले 400 साल में जब प्लेग, फ्लू और
हैजा जैसी महामारियों ने दुनिया में तबाही मचाई थी, तब हमारे
पास न इतने संसाधन थे, न हमारे पास इन्हें रोक पाने के लिए इतनी अत्याधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ ही थीं और न ही हमने इतनी महारत हासिल की थी कि कुछ ही दिनों में इसका इलाज ढूँढ
पाएँ। आज तो हमारे पास सब कुछ है, फिर भी मनुष्य
बिना ऑक्सीजन, बिना दवाइयों के काल के
ग्रास में क्यों समाते जा रहा है!
सोचने वाली बात यह
भी है कि सब कुछ होते हुए भी हम असहाय हैं। प्रकृति हमें लगातार इशारा कर रही है
कि अपनी जीवन-शैली को सुधार लो; अन्यथा तबाही का जो मंजर हम एक के बाद एक देख रहे हैं, वह एक दिन प्रलय बनकर फट पड़ेगा और तब मनुष्य ने जग को जीतने के लिए
जितनी भी उपलब्धियाँ हासिल की हैं, वे
सब धरी की धरी रह जाएँगी।
अब तो सभी ने यह
बात जान ली है कि प्रकृति से छेड़छाड़ विनाश का कारण बनेंगी। यदि मनुष्य ने अपने फायदे के लिए प्रकृति
का दोहन करना बंद नहीं किया, तो विनाश निश्चित है। अनुभव यही
कहते हैं कि प्रकृति के करीब जाने का सबसे आसान रास्ता है- प्रकृति
को जीवन में अपनाना। जितनी आसान और सरल हमारी जिंदगी होगी, उतने
ही हम प्रकृति के करीब रहना सीख पाएँगे। भगवान ने जीव- जंतु, जमीन- जंगल, पेड़-
पौधे, पहाड़- नदियाँ सब कुछ नाप-तौलकर बनाया, न कुछ ज्यादा, न कुछ कम, पर मनुष्य ऐसा प्राणी है , जिसने ज्ञान के अपने
असीमित भंडार का गलत फ़ायदा उठाया,
जंगलों का सफाया किया, जंगली पशु- पक्षियों को मारा। प्रकृति
के पूरे वैज्ञानिक जीवन-चक्र को तहस-नहस किया। पहले तो कोई हल्ला नहीं करता था कि पेड़ बचाओ,
जंगल बचाओ। पहले न कोई पेड़ काटता था, न जंगलों के जंगली
जानवरों को अनावश्यक मारता था। सबके बीच एक संतुलन बना रहता था। जंगल अपने आप ही
बढ़ते चले जाते थे; क्योंकि पशु- पक्षी यहाँ
से वहाँ बीज फैलाने का काम प्रकृतिक रूप से करते थे। जिनका जो भोजन होता, उसे वह प्राकृतिक रूप से प्राप्त कर लेता था। कहने का तात्पर्य यही कि जीवन सबके लिए सहज और
सरल था।
दुःख की बात है कि
हमारे पूर्वजों ने हमें सरल जीवन जीने की जो सीख दी है, उसे हम दकियानूसीपन, अंधविश्वास और पिछड़ापन कहकर अपने से दूर करते जा रहे हैं। आज उसी जीवन शैली को अपनाने
की ज़रूरत है। वर्तमान पीढ़ी भले ही यह नहीं जानती कि गाँव की
जीवन- शैली कैसी होती थी, क्योंकि गाँव को हमने गाँव रहने ही
नहीं दिया है। पर पिछली पीढ़ी को यह भली-भाँति पता था कि ज्ञान
वैसा हासिल करो, जो सबके काम आए, तरक्की
करो; पर सिर्फ़ अपने फायदे के लिए नहीं,
जीवन- शैली ऐसी अपनाओ कि उस पर आधुनिकता हावी न होने पाए। कहने
का तात्पर्य यही कि जितने की ज़रूरत हो,
उतना ही अपने पास रखो; बाकी धरती और धरती के लोगों को लौटा
दो।
आजकल के बच्चे तो
ये भी नहीं जानते कि वास्तव में गाँव कैसे हुआ करते थे। हरे- भरे खेत, पानी से
लबालब तालाब, दूध देने वाली गाएँ , हल खींचते बैल। पानी की कमी न हो, इसके लिए तालाब खुदवाने की
परंपरा थी। तब आस्था को अभिव्यक्त करने का कितना सुंदर माध्यम हुआ करता था, तालाब
खुदवाओ और किनारे मंदिर बनवा दो। स्नान
करके तालाब से निकलो और अपने इष्ट को धन्यवाद स्वरूप प्रणाम करके दिनचर्या आरंभ
करो। कृषि ग्रामीण जीवन का प्रमुख व्यवसाय था और गाँव की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि
के इर्द-गिर्द ही घूमा करती थी। गाँव के प्रत्येक घर में साग-भाजी उगाने के लिए
अपनी छोटी बाड़ी हुआ करती थी। ऑरगेनिक सब्जियों के नाम पर
आजकल जो कुछ बेचा जा रहा है, उसे सब जानते हैं। इन दिनों जो
कुछ भी हम खा रहे हैं, उसमें कितना कीटनाशक मिला हुआ है और
कितना वह पौष्टिक है, सब जगजाहिर है।
तालाब के किनारे-
किनारे पीपल, नीम, वट, आदि छायादार वृक्ष के बगैर तो तालाब की सुंदरता पूरी नहीं
होती थी। तब पेड़ बचाने के लिए किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं होती थी। तब सब यह
जानते थे कि यदि पेड़ नहीं होंगे, तो हम भी नहीं होंगे, तभी तो उनकी प्रतिदिन पूजा- अर्चना करके धन्यवाद ज्ञापन किया जाता था। आज भी यह परंपरा कायम तो है,
पर शहरों में पूजा के लिए इन वृक्षों को तलाशना पड़ता है। हमने शहरों में कांक्रीट
की गगनचुम्बी भवन तो खड़े कर दिए गए हैं;
पर पौधे रोपने की परंपरा को
भूल गए हैं। पौधे रोपना अब एक औपचारिकता और खानापूर्ति करने का दिन बनकर रह गया है, जो बस साल में एक बार 5 जून को आता है। नतीजा प्रदूषण, बीमारी और
प्राकृतिक आपदाएँ बाढ़, भूकंप और सूखा...
।
हवा, पानी और भोजन
ही यदि हमें शुद्ध नहीं मिलेगा, तो खुशनुमा जीवन भला कैसे जी पाएँगे। आज एक महामारी ने आपदा बनकर लोगों
का सुख-चैन लूट लिया है। एक के बाद एक अपनों को खोते चले जाने से लोग अवसाद में डूबते चले जा रहे हैं।
अंदर ही अंदर एक भय सता रहा है कि न जाने कब मेरी बारी आ जाए... क्या अमीर और क्या
गरीब यह किसी से कोई भेदभाव नहीं करता ... लेकिन एक बात ज़रूर समझ में आई है- यदि आपके शरीर के भीतर इस भयानक
वायरस से लड़ने की ताकत है, तो यह आपको नहीं मार सकता। यह ताकत मिलती कहाँ से है? फिर वही बात दोहराने की ज़रूरत नहीं बेहतर जीवनचर्या और खान- पान के साथ शुद्ध प्राकृतिक वातावरण।
इसी ताकत को सबको अपने भीतर लाना होगा।
कहते हैं, भगवान समय-समय पर अपने
भक्तों की परीक्षा लेता है, यह जानने के लिए कि कहीं उसने
उसे भुला तो नहीं दिया है और शायद इसीलिए अलग- अलग रूपों में
इंसान के सामने मुसीबत खड़ी करता जाता है, कभी समुद्र में ऊँची-ऊँची
लहरें पैदा करके, तो कभी धरती में कम्पन पैदा करके, तो कभी महामारी रूपी काँटे बिछाकर... जिसने इन मुसीबतों
के झेल लिया, मानों वही सच्चा भक्त,
बाकी सबके लिए एक नसीहत... अतः इस कठिन समय में हमें चाहिए कि हम अपनी आस्था,
विश्वास को डिगने न दें। भगवान और विज्ञान दोनों पर आस्था रखते हुए प्रत्येक
मुसीबत का सामना धैर्य के साथ करें। जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ आज के संदर्भ
में कितनी सटीक बैठती हैं-
वह पथिक और पथिकता
क्या, जिसमें बिखरे कुछ शूल ना हों।
नाविक की धैर्य
परीक्षा क्या जब धाराएँ प्रतिकूल ना हों।।
4 comments:
हर बार की तरह सामयिक जानकारी देता सम्पादकीय। यह सच है प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए हमें प्रकृति को अपनाना होगा,बचाना होगा। वह सदा बचाव का अवसर देती है। यह विश्वास हर मन में जगाना आवश्यक होगा।
बहुत सुंदर रत्ना जी।
आदरणीया रत्नाजी
बिल्कुल सही कहा आपने. प्रगति की अंधी दौड़, स्वार्थ की यह होड़ निगल गई पर्यावरण तथा प्रकृति और अब इसे बचाये कौन जब कलियुग के कालिदास बैठे हैं मौन.
आदमी स्वयं अपना शत्रु है. काश अब आ जाए सदबुद्धि और रुक जाए यह वृत्ति. सादर
- धरती बंजर हो गयी बादल गए विदेश
- पर्यावरण बिगाड़ कर लड़ते सारे देश
चिंतन को दिशा देता सामयिक और सुंदर सम्पादकीय।ये विडम्बना ही है कि प्रकृति लगातार बार बार चेतावनी देती है और हम उसकी अनदेखी कर देते हैं।प्रकृति रहेगी तो हम रहेंगे।अब विचार करने का वक्त है कि प्रकृति संरक्षण हेतु हम क्या करें।सुंदर आलेख हेतु साधुवाद रत्ना जी।
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