आँगन की गौरैया ( 20 मार्च -गौरैया दिवस )
-कालू राम शर्मा
गौरैया
के साथ मेरा रिश्ता बचपन से ही रहा है। गौरैया छत में लकड़ी व बाँस की बल्लियों के
बीच की जगह और दीवारों पर टंगे फोटो के पीछे दुबकी रहती और सुबह होते ही यहाँ-वहाँ
चहकती फिरती, गली-मोहल्ले में धूल में नहाती। आँगन
में झूठे बर्तनों में बचे हुए अन्न कणों को चुगना आम बात थी। कई बार तो खाना खाने
के दौरान इतना पास आ जाती कि बस चले तो थाली में ही चोंच मार दे। वे घर की दीवार
पर टंगे शीशे में अपने को ही चोंच मारती रहती। शाम होते अनेक गौरैया एक साथ मिलकर
कलरव मचाती।
बरसात के दिनों में हम बच्चों का एक
प्रमुख काम होता गौरैया को पकड़ने का। तकनीक का खुलासा नहीं करूँगा। गौरैया को
पकड़कर उसके पँखों को स्याही से रंगकर वापस छोड़ देते। उस रंगी हुई चिड़िया को
देखकर हम खुश होते रहते।
अब गौरैया की संख्या काफी कम हो चुकी है,
खासकर महानगरों व शहरों में। रहन-सहन व घरों की डिज़ाइन में बदलाव
के साथ गौरैया शहरी घरों से अमूमन विदा ले चुकी है। अनेक गाँवों-कस्बों में आज भी
गौरैया बहुतायत से दिखाई देती है। यह सही है कि गौरैया कम होती जा रही है लेकिन
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की जोखिमग्रस्त प्रजातियों की
रेड लिस्ट में गौरैया को अभी भी कम चिंताजनक ही बताया गया है।
मैं यहाँ यह बात करना चाहता हूँ कि इसने
कैसे और कब मानव के साथ जीना सीखा? माना
जाता है कि गौरैया ने मानव के साथ जीना तब शुरू किया था जब उसने कृषि की शुरुआत की
थी। जब गौरैया ने मानव के साथ जीना सीखा तो इसमें क्या बदलाव आया होगा? उसके खान-पान में बदलाव ज़रूर आए होंगे। इसके चलते इसकी शारीरिक बनावट में
क्या कोई अंतर आए होंगे?
गौरैया (पैसर डोमेस्टिकस) को अक्सर हम
पालतू चिड़िया की श्रेणी में रखने की भूल कर बैठते हैं। सच तो यह है कि वह मानव के
निकट रहती है मगर पालतू नहीं है। दरअसल, गौरैया
को कुत्ते, गाय, घोड़े, मुर्गी की तरह मानव ने पालतू नहीं बनाया है बल्कि इसने मानव के निकट जीना
सीख लिया है। सलीम अली ने अपनी पुस्तक ‘भारत के पक्षी’ में लिखा है कि यह मनुष्य
की बस्तियों से अलग नहीं रह सकती।
गौरैया एक नन्ही चिड़िया है जो पैसेराइन
समूह की सदस्य है। इसकी लगभग 25 प्रजातियाँ हैं जो
पैसर वंश के अंतर्गत आती हैं। घरेलू चिड़िया युरोप, भूमध्यसागर
के तटों और अधिकांश एशिया में पाई जाती है। ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका,
और अमेरिका व अन्य कई क्षेत्रों में इसे जानबूझकर पहुँचाया गया या
आकस्मिक कारणों से पहुँच गई।
जहाँ भी हो,
यह मानव बस्तियों के इर्द-गिर्द ही पाई जाती है। जहाँ-जहाँ मनुष्य
गए, गौरैया साथ गई! घने जंगलों, घास के
मैदानों और रेगिस्तान, जहाँ मानव की मौजूदगी नहीं होती वहाँ गौरैया नहीं पाई जाती।
यह अनाज और खर-पतवार के बीज खाती है। वैसे यह एक अवसरवादी भक्षक है, जिसे जो मिल जाए खा लेती है। कीट और इल्लियों को भी खाती है। इसके
शिकारियों में बाज, उल्लू जैसे शिकारी पक्षी और बिल्ली जैसे
स्तनधारी शामिल हैं।
पक्षियों की चोंच और इससे सम्बंधित लक्षण
विकास की विशेषताओं को समझने में कारगर रहे हैं। चोंच भोजन प्राप्त करने का प्रमुख
औज़ार है। पक्षियों के अध्ययन के दौरान अक्सर उनकी चोंच का अवलोकन करने को कहा
जाता है। चोंच के आधार पर पक्षी के भोजन का अनुमान लगाया जा सकता है।
डार्विन ने गैलापेगोस द्वीपसमूह पर फिंच
पक्षियों का अध्ययन कर बताया था कि वास्तव में पक्षियों की चोंच की शक्ल और आकृति
को प्राकृतिक चयन द्वारा इस तरह से तराशा जाता है कि वह उपलब्ध भोजन के साथ फिट
बैठ सके। डार्विन ने बताया था कि फिंच की अलग-अलग प्रजातियों में भोजन के अनुसार
चोंच का आकार विकसित हुआ है। गौरैया जब मानव के साथ रहने लगी तो खेती में उपलब्ध
बीजों को खाने के मुताबिक गौरैया की चोंच में परिवर्तन हुआ।
दो गौरैया की तुलना
गौरैया की एक उप प्रजाति है: पैसर
डोमेस्टिकस बैक्ट्रिएनस। यह हमारी घरेलू गौरैया पैसर डोमेस्टिकस की ही तरह दिखती
है। बैक्ट्रिएनस गौरैया शर्मिली और मानवों से दूर रहने की कोशिश करती है। यह
प्रवासी पक्षी है। दोनों के डीएनए विश्लेषण से पता चला है कि लगभग 10 हजार वर्ष पहले गौरैया का एक उपसमूह मुख्य समूह से अलग होकर घरेलू गौरैया
बन गया।
गौरैया का मानव के साथ सहभोजिता का
रिश्ता रहा है। लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों ने जब मध्य-पूर्व में खेती
प्रारंभ की उसी समय गौरैया ने मानव के साथ रिश्ता बिठाना शुरू किया। लगभग चार
हज़ार वर्ष पूर्व खेती के फैलाव के साथ-साथ गौरैया भी तेज़ी से फैलती गई। हालाँकि घरेलू गौरैया की कई उपप्रजातियाँ हैं ; लेकिन
जेनेटिक विश्लेषण से पता चलता है कि ये हाल ही में अलग-अलग हुई हैं।
अलबत्ता, बैक्ट्रिएनस गौरैया ने आज तक अपने प्राचीन पारिस्थितिक गुणधर्म बचाकर रखे
हैं। बैक्ट्रिएनस मानव के साथ नहीं जुड़ी है; बल्कि मानव
बस्तियों से दूर प्राकृतिक आवासों में (जैसे नदी, झाड़ियों,
घास के मैदानों और पेड़ों पर) रहती है। इनकी तुलना करके हम घरेलू
गौरैया के मनुष्यों से रिश्ता बनने में हुए परिवर्तनों को देख सकते हैं।
शरद ऋतु में बैक्ट्रिएनस गौरैया अपने
प्रजनन स्थल मध्य एशिया से बड़ी तादाद में सर्दियाँ बिताने के लिए उड़कर
दक्षिण-पूर्वी ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी भागों में पहुँच जाती है।
गौरतलब है कि बैक्ट्रिएनस मुख्य रूप से जंगली घास के बीज खाती है जबकि मानव के साथ
रहने वाली गौरैया खेती में उगने वाली गेहूँ और जौं जैसी फसलों के बीज खाती हैं।
अध्ययन से पता चला है कि अस्थि संरचनाओं का विकास प्रवासी बैक्ट्रिएनस गौरैया की
तुलना में घरेलू गौरैया में संभवत: जल्दी हुआ क्योंकि प्रवासी व्यवहार के चलते
पक्षी पर वज़न सम्बन्धी अड़चनें ज़्यादा आएँगी, जबकि एक ही जगह पर रहने वाली गौरैया के लिए इस तरह की अड़चन बाधक नहीं
बनेगी क्योंकि उन्हें दूर-दूर तक उड़कर तो जाना नहीं है। इसीलिए
प्रवासी व्यवहार का परित्याग करने के साथ ही घरेलू गौरैया की चोंच और खोपड़ी
मज़बूत होने लगी।
गौरैया में प्रवास के परित्याग के
फलस्वरूप चोंच व खोपड़ी में होने वाले परिवर्तन एक प्रकार से अपने नए भोजन के साथ
अनुकूलन है। जंगली अनाज के दानों और खेती में उगाए गए अनाज के दानों के बीच कई
अंतर हैं। फसली बीजों का आकार बढ़ने लगा और ये बीज जंगली बीजों से कठोर व बनावट
में अलग थे। अत: बीजों के गुणधर्मों में परिवर्तन के चलते खोपडी और चोंच पर
प्राकृतिक चयन का दबाव बढ़ा।
खेती में उगाए जाने वाले अनाज के दाने
पौधे में एक डंडी (रेकिस) पर काफी पास-पास मज़बूती से बँधे होते हैं जबकि जंगली घास के पौधों में पकने पर रेचिस के टुकड़े-टुकड़े
हो जाते हैं। बैक्ट्रिएनस उप प्रजाति मानवों से दूर ही रही और उनकी चोंच व खोपड़ी
में कोई फर्क नहीं आया। यह भी देखा गया कि मानव के निकट रहने वाली गौरैया की उप
प्रजाति डील-डौल में भी थोड़ी बड़ी है।
गौरैया ने मानव सभ्यता के साथ रहते हुए
अपने आपको मानव-निर्भर पर्यावरण के अनुसार ढाल लिया है। प्राकृतिक चयन की
प्रक्रिया ने उन आनुवंशिक परिवर्तनों को सहारा दिया या उन्हें संजोया जिनके चलते
इनकी खोपड़ी के आकार में बदलाव के अलावा इनमें माँड या स्टार्च को पचाने की क्षमता भी विकसित होती गई।
आखिर कृषि ने कैसे गौरैया के जीनोम को
प्रभावित किया होगा? घरेलू गौरैया में ऐसे
जीन मिले हैं जो इसके करीबी जंगली रिश्तेदार में नहीं हैं।
घरेलू गौरैया में प्रमुख रूप से ऐसे दो जीन मिले हैं।
इनमें से एक जीन जानवरों की खोपड़ी की संरचना के लिए ज़िम्मेदार होता है और दूसरा
स्टार्च के पाचन में प्रमुख भूमिका अदा करता है। (स्रोत फीचर्स)
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