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Oct 22, 2013

टेस्ट ट्यूब शिशु और ऑटिज़्म

टेस्ट ट्यूब शिशु और ऑटिज़्म
 -डॉ. अरविन्द गुप्ते

इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (आईवीएफ) से पैदा हुए बच्चों यानी टेस्ट ट्यूब शिशुओं के बारे में एक शंका यह व्यक्त की जाती रही है कि शायद उनमें स्वास्थ्य समस्याओं की आशंका ज़्यादा रहेगी। खास तौर से कई लोगों ने शंका व्यक्त की थी कि टेस्ट ट्यूब शिशुओं में ऑटिज़्म का खतरा ज़्यादा रहेगा। यह भी कहा जाता है कि आईवीएफ तकनीक से गर्भधारण करने पर जुड़वाँ बच्चे होने की संभावना भी ज़्यादा होती है और इसका असर बच्चों के स्वास्थ्य पर हो सकता है।
आज टेस्ट ट्यूब शिशु कोई अपवाद या असामान्य बात नहीं है। विश्व स्तर पर देखें तो हर 50 में से एक शिशु आईवीएफ तकनीक से पैदा होता है। 1978 में पहली बार इस तकनीक का उपयोग हुआ था और तब से दुनिया भर में 50 लाख टेस्ट ट्यूब शिशु जन्म ले चुके हैं।
उक्त आशंकाओं की जाँच करने के उद्देश्य से स्वीडन के कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के कार्ल-गोस्टा नायग्रेन के नेतृत्व में एक दल ने स्वीडन में 1982 से 2007 के दरम्यान पैदा हुए 25 लाख बच्चों के स्वास्थ्य का औसतन 10 साल निरीक्षण किया। इनमें से करीब 31,000 बच्चे आईवीएफ तकनीक से पैदा हुए थे।
गौरतलब है कि आईवीएफ तकनीकें भी कई प्रकार की होती हैं। जैसे उपरोक्त 31,000 टेस्ट ट्यूब शिशुओं में से 19,500 महज़ शुक्राणु और अंडाणु को एक तश्तरी में साथ-साथ रखने से विकसित हुए थे। करीब 10,500 के मामले में शुक्राणु स्वयं अंडाणु को भेदकर अंदर नहीं पहुँच पा रहे थे, इसलिए इन्हें कृत्रिम रूप से अंडाणु के अंदर इंजेक्ट किया गया था। शेष करीब 1000 मामलों में पिता के वीर्य में शुक्राणु नहीं थे, तो उनके वृषण में से शुक्राणु लेकर अंडाणु का निषेचन किया गया था।
इन सारे बच्चों के स्वास्थ्य सम्बंधी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि ऑटिज़्म के लिहाज़ से 31,000 टेस्ट ट्यूब बच्चों और 24 लाख 70 हज़ार सामान्य बच्चों के बीच कोई अंतर नहीं था। विश्लेषण इस बात को ध्यान में रखकर किया गया था कि आईवीएफ के ज़रिए संतानोत्पत्ति में जुड़वाँ बच्चे होने की संभावना सामान्य से अधिक होती है और इसके अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी असर होते हैं। मगर यह ज़रूर देखा गया कि जो आईवीएफ शिशु शुक्राणु को अंडाणु में इंजेक्ट करके पैदा किए गए थे, उनमें बौद्धिक क्षमता में कमी होने की आशंका 50 प्रतिशत तक अधिक रहती है। बौद्धिक क्षमता का पैमाना आईक्यू माना गया था। वैसे शोधकर्ताओं का मत है कि यह ज़ोखिम भी अत्यंत कम है हालाँकि उल्लेखनीय है।
अध्ययन में इस बाबत कुछ नहीं कहा गया कि ऐसे असर क्यों होते हैं। हो सकता है कि शुक्राणु को अंडाणु में इंजेक्ट करने की प्रक्रिया में ही कुछ होता हो या यह भी हो सकता है कि इसमें पिता के शुक्राणुओं की गुणवत्ता का कुछ हाथ हो। बहरहाल इससे इतना तो स्पष्ट है कि शुक्राणु इंजेक्ट करने की विधि का उपयोग ज़रूरी होने पर ही किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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