- श्यामलाल
चतुर्वेदी
भारत में लोक साहित्य की
परम्परा अत्यंत प्राचीन है। आदि काल में जब प्रकृति के पालने में मनु के वंशजों ने,
पुचकारने दुलारने के सिवाय अस्तित्व बनाए रखने के लिए जिन उपक्रमों
को किया होगा ,तब से ही लोक साहित्य ग्रन्थों में लोक जीवन
का वर्णन मिलना स्वयं सिद्ध करता है कि यह उनका अग्रज है। श्रुति और स्मृति ने लोक
जीवन की चिरन्तन धारा को समय की सपाट मैदानी भूमि दी और व्यापक बनाया। मसि और कागद
ने उसे बाद में सम्पादित किया और भावी पीढ़ियों के लिए पृष्ठ प्रदान किया। पृष्ठांकित
पोथियों को पृष्ठभूमि प्रदान करने वाले लोक जीवन के अंगभूत ये लोक साहित्य,
पर्वतों के सरिताओं के मानों समकालीन सहोदर हैं।
जन जीवन के दर्पण लोक साहित्य को
गीत,
कथा, नाट्य, नृत्य की
प्राचीनता और अधिक मानी गई है। कहते हैं कि मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य में
प्रकाशन के लिए शरीर के हाव -भाव का आश्रय लिया होगा। भाव -प्रकाशन की इन्हीं
चेष्ठाओं के सार्थक मुद्राओं को भाषा ने नृत्य की संज्ञा दी है।
नृत्य के आदि देव देवाधिदेव शंकर
कहे जाते हैं। किंवदन्ती है कि त्रिपुरासुर-वध करने के पश्चात् शिवजी नाचने लगे
इसी से नृत्य कला की सृष्टि हुई। कैलाश पर्वत पर वास करना पसन्द करने वाले शिव
पार्वती के इन अनुयायी वनवासियों के जीवन में फक्कड़पन,
अल्पसंतोषी वृत्ति, निर्जन निवास, आशु तोषी स्वभाव, गम गलत करने के चाव के सिवाय नृत्यप्रियता
सर्व विदित है।
मानव हृदय की,
प्रकृत भावनात्मक तन्मयता की, तीव्रतम अवस्था
को अभिव्यक्त करने में,लोक नृत्य का अपना विशिष्ट स्थान है।
साधारणीकरण करने में इतना व्यापक है कि उसे समझने के लिए किसी बौद्धिक यत्न की
आवश्यकता नहीं होती। इस साधारणीकरण का कारण मनुष्य के हृदय की रागात्मक प्रवृत्तियाँ
है।
लोक नृत्य में वासना भी साधना बन
जाती है। वासना को साधना में परिवर्तित करना, उसकी
जीवन-गति और निश्छल-हृदय का द्योतक है। यह, प्रसिद्धि
प्राप्त करने या धनापार्जन का जरिया नहीं, वरन् जीवन के
आनन्द को बनाए रखने का साधन है इससे लोक-जीवन की निष्काम प्रवृत्ति का परिचय मिलता
है।
भारत की विविधता में एकता के दर्शन
कहीं के भी अबूझें स्वरों में मार्मिक स्पर्शन, अनजाने
होते हुए भी अपनत्व के आकर्षण ये सब लोक संगीत के प्रिय प्रसाद है। इस प्रसाद से
आत्मतुष्ट छत्तीसगढ़ भी संजीवनी थाती से अपनी पहचान बनाये रखने का सामर्थ्य सँजोए,
विस्तीर्ण अंचल में कोकिल कंठ -स्वरों मांदर के मदिर निनादों के साथ
मस्ती में होने वाले झंकारों से गुंजित रहता है।
छत्तीसगढ़ भारत के हृदय-स्थल के
विस्तीर्ण वनांचल में स्थित, अनेक नद-नदियों
के कल-कल ध्वनियों से निनादित अपनी लोक परम्परा से आपूरित आदिवासियों की भूमि है
जहाँ ऐतिहासिक घटनाओं के साक्ष्य स्वरूप अनेक अवशेष अभी भी विद्यमान हैं। वनवासी
बहुल इस अंचल में अपने आराध्य भोलेनाथ की अर्चना में अंगीकृत सुआ नृत्य का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। यह गउरा का एक अंग है।
गउरा याने गौरी और गौरा के विवाह का
आयोजन प्रतिवर्ष किये जाने वाले इस समारोह के माध्यम से इन्होंने अपने आराध्य का
मानवीकरण कर डाला है और सब मिलकर जैसे अपने किसी परिजन परन्तु पूज्य का वैवाहिक
संस्करण कर पूजा में प्रसन्नता को पा लेते हैं। भोले के भक्तों को इसी में आनन्द
है।
दिवाली या देवउठनी को प्राय: यह
आयोजन किया जाता है। सात दिन पहले फूल कूचने की विधि होती है जिसमें सात प्रकार के
फूलों को कुमार और कुमारी के हाथों कुचवा कर विवाह समारोह का शुभारंभ करते हैं।
रात में एकत्र होकर होम धूप देते और गौरा गीत गाते हैं। मांदर
के मदिर स्वराधान में शिव स्तवन श्रवणीय होता है जिसमें गउरी- गउरा का मानवीकरण
उनकी आत्मीयता की प्रेमिल अभिव्यक्ति के निदर्शक है।
गउरा सहकारी संस्करण का सांस्कृतिक
स्वरूप है। परिवार जाति समाज तथा गाँव की स्त्रियाँ स्वेच्छा से एक में सुआ (तोता)
मृण्मयी मूर्ति लेकर अपने टोली में सुआ नाचने निकल पड़ती हैं। बनाव-सिंगार कुछ खास
नहीं,
धान की बालियाँ या गेंदे के फूलों को कानों में खोंस लिया, बहुत हुआ तो अपने पास नहीं होने पर पास पड़ोसिन की ककनी, कड़ा रूपिया, करधनी लेकर घर जानकर आँगन के बीच सुआ को रखकर मँडलाकार हो गीत के साथ ताली
बजाती हुए नाचने लगती हैं। नृत्य के उपलक्ष्य में उस घर से चावल, तेल और यथाशक्ति कुछ पैसा प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया जाता है। संगृहीत
इन वस्तुओं का उपयोग गउरा में किया जाता है। 'एक सबके लिए और
सब एक के लिए´ इस बोध वाक्य का अनादिकालीन
आचरण गौरा में देखने को मिलता है।
सुआ गीतों में विविध भावों की
मर्मस्पर्शी महक मिलती है। नारी जीवन की विवशताएँ, सास -ससुर के प्रताडऩा, ननद के नखरे, हिंसक पशु के हृदय -परिवर्तन,पति -वियोग की व्यथा,
राजा का भगवान का मानवीकरण पक्षियों के कलरव, मायके
जाने की आतुरता आदि अगणित पहलुओं के वर्णन से इसका अगाध भंडार भरपूर है। कितना है
कौन कह सकता है?
सुआ को सम्बोधित कर ये नर्तकियाँ या
गायिकाएँ कहिए अपने मन के मलाल को बखान देती हैं। सुअना से संदेश भिजवाने की
प्राचीन परम्परा रही है। चन्दा ग्वालिन मुगल बादशाह के बन्दीगृह से अपने शरीर के
मैल से सुआ बनाकर संदेश भिजवाती है और लोरिक सन्देश पाकर शीघ्र पहुँचकर बादशाह को
अपने शौर्य से ठिकाने लगाता है। छत्तीसगढ़ की लोक भावना को प्रसारित कराने में सुआ
का सहयोग सदा से रहता आया है यो तो सुआ सार्वदेशिक संदेशिया है।
इस नृत्यु-गीत में किसी वाद्य का
प्रयोग नहीं किया जाता। आश्चर्य है गीत सब तालबद्ध हैं दीपचन्दी कहरवा और दादरा
में न जाने कैसे बँध गये हैं निरक्षर भट्टाचार्य के अनगढ़न चाल में यह तालबद्धता?
क्या खूब है।
हाँ तो आइए सुआ गीतों में वर्णित
भावनाओं की रस धारा का आस्वादन करें और देखें कि कितनी गहराइयों तक इनकी पैठ है?
एक गीत में नारी जीवन की व्यथा -कथा,
उनकी ही बोली में:
पइयां मैं लागौं चन्दा सुरूज के रे
सुअना।
तिरिया जनम झनि देय।
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर
जहँ पठवय तहँ जाय।
अंगठिन मोरि -मोरि घर लिपवावँय
फेर ननंद के मन नहि आय।
बाँह पकड़ के सइयाँ घर लानय
फेर ससुर हर सटका बताय।
भाई ल दे हे रंगमहल दुमंजला
हमला तैं दिहे रे विदेस
पहली गवन करै डेहरी बइठारे
तुहूँ धनी जा था अनिज बनिज बर
कइसे के रइहौं ससुरार
सासे संग खाई बे ननद संग सोई बे
के लहुरा देवर मन भाय।
सासे डोकरिया मर हरजाही,
ननंद पठोबौ ससुरार
लहुरा देवर मोर बेटवा बरोबर
कइसे रइहौं मन बाँध।
दिन के देवता सूरज और राज के देव
चन्द्रमा से तिरिया जन्म न देने की अत्यन्त दीनता से प्रार्थना करते हुए गाय जैसे
परवशता की उपमा सांगोपांग है।
हरही के संग मा कपिला के विनाश इस
लोकोक्ति की अन्तरकथा भारत के अनेक भाषाओं में वर्णित है। लोक धारा के अन्तर्प्रान्तीय
प्रवाह में यह मिलता है जो कि भारतीय एकात्मता का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिंसक
व्याघ्र के हृदय परिवर्तन की प्रेरक पंक्तियाँ इस प्रकार है:
आगू -आगू हरही पाछू-पाछू सुरही रे
सुअना।
चले जाथें कदली कछार
एक बन जइहें दुसर बन जइहें
तीसरे म सगरी के पार।
एक मुँह चरिन दुसर मुँह चरिन
के बघवा उठे घहराय
रहा- रहा सिंघ मोर रहा- रहा बघवा
पिलवा गोरस देहे जाँव।
कोन तोर सखी,
कोन तोर सुमित्रा
कउन ला देबे तैं रे गवाह।
चंदा मोर सखी,
सुरूज मोर सुमित्रा
धरती ल दे हौ रे गवाह।
एक बन अइहें दुसर बन अइहें
तिसरे म गाँवे के तीर।
एक गली नाहकै दुसर गली नाहकै
तिसरे म जाइ औल्हियाय।
पिले रे पिले रे मोर भाँवर लेवाई
मोर दुधवा दुलम होइ जाय
आन दिन अवास दाई होंकरन चोकरत
आज दाई बदन मलीन।
आन दिन भेटौं में गाँवे गँवरसा म
आज भेटेंव कदली कछार
हरही के संग मा कपिला बिनासे
आज मोर होइस नास।
आगू -आगू हरही पाछू-पाछू सुरही
माँझे म पिलवा हर जाय।
एक बन नहक दुसर बन नहकैं
तिसर मा सगरी के पार।
सगरी के पारे म चन्दन के बिरछा
ओही मेर रहै रखवार।
रामे राम ममा जोहार मोर भाँचा
कइसे के मोर बहिनी खाँव।
इस अखिल भारत प्रचलित कथा को भादों
बदि चौथ जिसे ‘बहुला चौथ’
कहते हैं उस दिन उपवास करके श्रवण किया जाता हैं। उसमें यह भी उल्लेख मिलता है कि
गाय के पीछे मालकिन मालिक अपने को गाय के साथ खा लेने की प्रार्थना करने वहाँ
पहुँचते हैं। व्याघ्र के मन में गाय के वचन पालन की अनुपम घटना का गहरा प्रभाव
पड़ता है कि ऐसे पुण्यात्माओं की अपनी पिपासा के लिए हत्या करना, महान पाप होगा। हिंसक पशु का हृदय परिवर्तन होता है और भाँजा बछड़े को
अपने प्राण हरण का अनुरोध कर जीवन्मुक्त हो जाता है।
बुंदेलखंड में प्रचलित इस गाथा के
पद इन शब्दों में बहुश्रुत है:
घरई से निकरी सुरहन गइया
चरन नंदन बन जायें हो माय
तिज बन पोंची जाय।
चम्पा हो चरलई चमेली चरलई
चरलई सब फुलबार हो माय
जब मुख डारे नंदन बन बिरछा
सिंगा उठे हो गुंजारे हो माय
मोये जिन भकिये,
सिंघ के बारे,
बछवा घर नादान हो माय
ओरी मैया,
बछले दूध दिवांव हो माय।
इस कथा का कन्नड़ भाषा से प्रगतिशील
लेखक संघ के संस्थापक श्री राजाराव ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था जिसका
पद्यानुवाद हिन्दी में करके श्री प्रभाकर माचवे ने महात्मा गाँधी को समर्पित किया।
साने गुरुजी ने मराठी में इसके प्रचलन का उल्लेख सहायाद्रि में किया था। कथा-यात्रा
की भारतीय व्यापकता, एकत्व का सत्यं शिवं
सुन्दरं स्वरूप है।
एक पद्यांश देखिए:
सोने के मचिया म बइठे राजा दशरथ
कतर थे बंगला के पान।
कतरत -कतरत अँगुरी कटागे।
बोहिगे रकत के धार
क्या कमाल है राजा दशरथ से पान कतर
गाने का काम आखिर लोकाभिव्यक्ति के सिवाय और कौन करा सकता है?
उनके जो हैं न?
दूसरे एक गीत में बहू द्वारा पानी
भरते समय पैर फिसलने से गगरी फूटने पर ननंद नमक मिर्च लगाकर अपने माँ -बाप और भाई
से लिगरी लगाती है। पिटवाने में असफल रहने पर गेहूँ -चना पीसने को देती है। उलझने
से हार टूटने की बात को बढ़ाकर कितना निर्दय प्रयास है। ननंद के चरित्र का सुन्दर
चित्रण किया गया हैं।
सीता स्वयंवर के गीत में बाइस कोस
ले मंड़वा छवाने एक हजार कदली खंभ लगाने
के सिवाय लक्ष्मण का यह कथन- सिव
के धनुस ला माखुर कस मलिहौं, दिलस्चप है।
कतिपय गीतों में ऐतिहासिक घटनाओं की
झलक भी मिलती है। सुआ नाचने वाली टोली, बिदाई
देने के बाद आशीर्वाद इन पंक्तियों में देती है-
जइसे ओ मइला लिहे दिहे आना रे
सुअना।
तइसे न दे बो असीस
अन धन लछमी म तोरे घर भरै रे सुअना
जियो जुग लाख बरीस।।
(छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार श्री श्यामलाल चतुर्वेदी के
निबंध संग्रह ‘मेरे निबन्ध’ से साभार)
सभी चित्र- बसंत साहू
सभी चित्र- बसंत साहू
2 comments:
उत्कृष्ट लेख। इसमे प्रयुक्त चित्र किन चित्रकार के हैं, बता सकते हैं?
सराहनीय लेख।
Post a Comment