- अरुणेश दवे
छत्तीसगढ़ में इनकी दर्ज संख्या आठ है। जिन्हें अब छत्तीसगढ़ सरकार और वन्य प्राणी संस्थान देहरादून द्वारा सुरक्षित घेरे में रख कर उनका प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। लेकिन उसमें भी समस्या यह है कि मादा केवल एक ही है और उस मादा पर भी एक ग्रामीण का दावा है कि वह उसकी पालतू भैंस है। खैर ग्रामीण को तो मुआवजा दे दिया गया पर समस्या फिर भी बनी हुई है। यह मादा केवल नर शावकों को ही जन्म दे रही है, अब तक उसने दो नर बछड़ों को जन्म दिया है। पहले नर शावक के जन्म के बाद ही वन अधिकारियों ने मादा शावक के जन्म के लिये पूजा पाठ और मन्नतों तक का सहारा लिया और तो और शासन ने एक कदम आगे जाकर उद्यान में महिला संचालिका की नियुक्ति भी कर दी ताकि मादा भैंस को कुछ इशारा तो मिले, पर नतीजा वही हुआ मादा ने फिर नर शावक को जन्म दिया। शायद पालतू भैंसो पर लागू होने वाली कहावत कि 'भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुरावै' जंगली भैंसों पर भी लागू होती है।
मादा अपने जीवन काल में 5 शावकों को जन्म देती है, इनकी जीवन अवधि 9 वर्ष की होती है। नर शावक दो वर्ष की उम्र में झुंड छोड़ देते हैं। शावकों का जन्म अक्सर बारिश के मौसम के अंत में होता है। आमतौर पर मादा जंगली भैंसे और शावक झुंड बना कर रहते हैं तथा नर झुंड से अलग रहते हैं पर यदि झुंड की कोई मादा गर्भ धारण के लिये तैयार होती है तो सबसे ताकतवर नर उसके पास किसी और नर को नहीं आने देता। यह नर आमतौर पर झुंड के आसपास ही बना रहता है। यदि किसी शावक की मां मर जाये तो दूसरी मादायें उसे अपना लेती है। इनका स्वभाविक शत्रु बाघ है, पर यदि जंगली भैंसा कमजोर बूढ़ा या बीमार हो तो जंगली कुत्तों और तेंदुओ को भी इनका शिकार करते देखा गया है। वैसे इनको सबसे बड़ा खतरा पालतू मवेशियों से संक्रमित बीमारियाँ ही हैं, इनमें प्रमुख बीमारी फुट एंड माउथ है। रिंडरपेस्ट नाम की बीमारी ने एक समय इनकी संख्या में बहुत कमी लाई थी।
जब धोखा खा गये कथित एक्सपर्ट
भैंसों पर दूसरा बड़ा खतरा जेनेटिक प्रदूषण है। जंगली भैंसा पालतू भैंसों से संपर्क स्थापित कर लेता है। हालांकि फ्लैमैंड और टुलोच जैसे शोधकर्ताओं का मानना है कि आमतौर पर जंगली नर भैंसा पालतू नर भैंसे को मादा के पास नहीं आने देता पर स्वयं पालतू मादा भैंसे से संपर्क कर लेता है। इस विषय पर अभी गहराई से शोध किया जाना बाकी है। मध्य भारत के जिन इलाकों में यह पाया जाता है, वहां की पालतू भैंसे भी इनसे मिलती जुलती नजर आती हैं। इस बात को एक मजेदार घटना से समझा जा सकता है। कुछ वर्षो पहले बीजापुर के वन-मंडलाधिकारी रमन पंड्या के साथ बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की एक टीम जंगली भैंसों का अध्ययन करने और चित्र लेने के लिए इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान पहुंची। उन्हें जंगली भैंसों का एक बड़ा झुंड नजर आया और उनके सैकड़ों चित्र लिए गए। एक श्रीमान जो उस समय देश में जंगली भैंसों के बड़े जानकार माने जाते थे, बाकी लोगों को जंगली भैंसों और पालतू भैंसों के बीच अंतर समझाने में व्यस्त हो गये। तभी अचानक एक चरवाहा आया और सारी भैंसों को हांक कर ले गया।
अनुचित वृक्षारोपण
मध्य भारत में जंगली भैंसों के विलुप्तता की कगार पर पहुंचने का एक प्रमुख कारण उसका व्यवहार है, जहां एक ओर गौर बारिश में ऊंचे स्थान पर चले जाते हैं, वही जंगली भैंसे मैदानों में खेतों के आस पास ही रहते हैं और खेतों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इस कारण गांव वाले उनका शिकार कर लेते हैं। एक कारण यह भी है कि वन विभाग द्वारा प्राकृतिक जंगलों को काट कर उनके स्थान पर शहरी जरूरतों को पूरा करने वाले सागौन, साल और नीलगिरी जैसे पेड़ों का रोपण कर दिया है। इनमें से कुछ के पत्ते अखाद्य हंै, इनके नीचे वह घास नहीं उग पाती जिनको ये खाते हंै, वैसे भी जंगली भैंसे बहुत चुनिंदा भोजन करते हैं। इस कारण भी इनका गांव वालों से टकराव बहुत बढ़ गया है।
बेवार पद्धति और जंगल में सन्तुलन
टकराव बढऩे का एक कारण यह भी है कि पहले आदिवासी बेवार पद्धति से खेती करते थे। इसमें उनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। जंगल के टुकड़े जला कर उनमें बिना हल चलाये बीज छिड़क दिये जाते थे। राख एक बेहद उत्तम उर्वरक का काम करती थी। पैदावार भी बहुत अच्छी मिल जाती थी। इसके अलावा जंगलों में कंदमूल और फल भी प्रचुरता से मिल जाते थे। यदाकदा किए जाने वाले शिकार से भी उन्हें भोजन की कमी नहीं होती थी। वे खेती पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं थे। इसलिए वन्य प्राणियों द्वारा फसल में से कुछ हिस्सा खा लिये जाने पर इनमें बैर भाव नहीं आता था। हर दो या तीन साल में जगह बदल लिए जाने के कारण पिछली जगह घास के मैदान बन जाते थे। वन्य प्राणियों को चारे की कोई कमी नहीं होती थी। अत: यदाकदा किये जाने वाले शिकार से उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आती थी।
आदिवासियों के अधिकारों का हनन वन्य जीवों के लिए बना संकट
अब चूंकि आदिवासियों के पास स्थाई खेत हैं जिनकी उर्वरता उत्तरोत्तर कम होती जाती है और इनमें हल चलाना, खरपतवार निकालना और उर्वरक डालने जैसे काम करने पड़ते है जिसमें काफी श्रम और पैसा लगता है। इसके अलावा खेतों की घेराबंदी के लिये बास बल्ली और अन्य वन उत्पाद लेने की इजाजत भी नहीं है। इमारती लकडिय़ों के वनों में
आदिवासियों के लिये भोजन भी नहीं है अत: अब आदिवासी अपनी फसलों के नुकसान पर वन्य प्राणियों के जानी दुश्मन हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से जंगली भैंसे आज दुर्लभतम प्राणियों की श्रेणी में आ गये हैं।
एक प्राकृतिक स्वर्ग को नष्ट करने की साजिश
खैर यह सब हो चुका है और इस नुकसान की भरपाई करना हमारे बस में नहीं है। लेकिन एक जगह है जो आज तक विकास के विनाश से अछूती है। वह जगह वैसी ही है जैसा प्रकृति ने उसे करोड़ों सालों के विकास क्रम से बनाया है। जहां आज भी बेवार पद्धति से खेती होती है, वहां वनभैंसा बड़े झुंडों में शान से विचरता देखा जा सकता है। इस जगह बड़ी संख्या में बाघ, भालू, ढोल और पहाड़ी मैना अन्य वन्यप्राणी आदिवासियों के साथ समरसता से रह रहें हैं। यहां प्रकृति प्रदत्त हजारों किस्म की वनस्पतियां पेड़ पौधे जिनमें से अनेक आज शेष भारत से विलुप्त हो चुके हैं, फल- फूल रहे हैं।
करीब 5000 वर्ग किलोमीटर में फैले इस स्वर्ग का नाम है अबूझमाड़। ना यहां धुंआ उड़ाते कारखाने है ना धूल उड़ाती खदानें। और ना ही वे सड़के हैं जिनसे होकर विनाश यहां तक पहुंच सके। पर यह सब कुछ बदलने वाला है और कुछ तो बदल भी चुका है। यहां पर रहने वाले आदिवासियों को तथाकथित कामरेड बंदूकें थमा रहे हैं। हजारों सालों तक स्वर्ग रही इस धरती पर इन स्वयंभू कामरेडों ने बारूदों के ढेर लगा दिये हैं। इस सुरम्य धरती पर इन लोगों ने ऐसी बारूदी सुरंगे बिछा दी हैं जो सुरक्षा बलों, आदिवासियों और वन्य प्राणियों में फर्क नहीं कर सकती।
जंगली भैंसों के भविष्य की एक सुनहरी किरण
हाल ही में वन विभाग ने जंगली भैंसों की संख्या बढ़ाने के लिये नई तकनीक का सहारा लेने का निर्णय लिया है जिसके तहत एक मात्र बची मादा के अंडाणु और नर भैंसों के वीर्य को निषेचित कर उन्हें बड़ी संख्या में पालतू मादा भैंसों के गर्भ में स्थापित किया जायेगा। आशा है कि इस तकनीक से जंगली भैंसों को बचाया जा सकेगा।
लेखक अपने बारे में:
स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक रखता हूं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में निवास है। इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से प्लाईवुड टेक्नालॉजी में डिप्लोमा किया है तथा इसे ही पेशे के रुप में अपनाया है। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता मेरे स्वभाव में है। वन्य जीवों व जंगलों से लगाव है अत: इन विषयों पर लिखता हूं। मेरा पता: रोहिणी प्लाइवुड इंडस्ट्री, न्यू इंडस्ट्रियल एरिया, गोगांव, रायपुर (छ.ग.)
एशियाई जंगली भैंसों की संख्या आज 4000 से भी कम रह गई है। एक सदी पहले तक पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में बड़ी तादाद में पाए जाने वाला जंगली भैंसा आज केवल भारत, नेपाल, बर्मा और थाइलैंड, पूर्वी भारत में काजीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान तथा मध्य भारत में छत्तीसगढ़ के रायपुर संभाग और बस्तर में पाया जाता है। कभी यह सरगुजा, बिलासपुर और रायगढ़ में भी बहुतायत से पाया जाता था।वन विभाग ने जंगली भैंसों की संख्या बढ़ाने के लिये नई तकनीक का सहारा लेने का निर्णय लिया है जिसके तहत एक मात्र बची मादा के अंडाणु और नर भैंसों के वीर्य को निषेचित कर उन्हें बड़ी संख्या में पालतू मादा भैंसों के गर्भ में स्थापित किया जाएगा।
छत्तीसगढ़ में इनकी दर्ज संख्या आठ है। जिन्हें अब छत्तीसगढ़ सरकार और वन्य प्राणी संस्थान देहरादून द्वारा सुरक्षित घेरे में रख कर उनका प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। लेकिन उसमें भी समस्या यह है कि मादा केवल एक ही है और उस मादा पर भी एक ग्रामीण का दावा है कि वह उसकी पालतू भैंस है। खैर ग्रामीण को तो मुआवजा दे दिया गया पर समस्या फिर भी बनी हुई है। यह मादा केवल नर शावकों को ही जन्म दे रही है, अब तक उसने दो नर बछड़ों को जन्म दिया है। पहले नर शावक के जन्म के बाद ही वन अधिकारियों ने मादा शावक के जन्म के लिये पूजा पाठ और मन्नतों तक का सहारा लिया और तो और शासन ने एक कदम आगे जाकर उद्यान में महिला संचालिका की नियुक्ति भी कर दी ताकि मादा भैंस को कुछ इशारा तो मिले, पर नतीजा वही हुआ मादा ने फिर नर शावक को जन्म दिया। शायद पालतू भैंसो पर लागू होने वाली कहावत कि 'भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुरावै' जंगली भैंसों पर भी लागू होती है।
मादा अपने जीवन काल में 5 शावकों को जन्म देती है, इनकी जीवन अवधि 9 वर्ष की होती है। नर शावक दो वर्ष की उम्र में झुंड छोड़ देते हैं। शावकों का जन्म अक्सर बारिश के मौसम के अंत में होता है। आमतौर पर मादा जंगली भैंसे और शावक झुंड बना कर रहते हैं तथा नर झुंड से अलग रहते हैं पर यदि झुंड की कोई मादा गर्भ धारण के लिये तैयार होती है तो सबसे ताकतवर नर उसके पास किसी और नर को नहीं आने देता। यह नर आमतौर पर झुंड के आसपास ही बना रहता है। यदि किसी शावक की मां मर जाये तो दूसरी मादायें उसे अपना लेती है। इनका स्वभाविक शत्रु बाघ है, पर यदि जंगली भैंसा कमजोर बूढ़ा या बीमार हो तो जंगली कुत्तों और तेंदुओ को भी इनका शिकार करते देखा गया है। वैसे इनको सबसे बड़ा खतरा पालतू मवेशियों से संक्रमित बीमारियाँ ही हैं, इनमें प्रमुख बीमारी फुट एंड माउथ है। रिंडरपेस्ट नाम की बीमारी ने एक समय इनकी संख्या में बहुत कमी लाई थी।
जब धोखा खा गये कथित एक्सपर्ट
भैंसों पर दूसरा बड़ा खतरा जेनेटिक प्रदूषण है। जंगली भैंसा पालतू भैंसों से संपर्क स्थापित कर लेता है। हालांकि फ्लैमैंड और टुलोच जैसे शोधकर्ताओं का मानना है कि आमतौर पर जंगली नर भैंसा पालतू नर भैंसे को मादा के पास नहीं आने देता पर स्वयं पालतू मादा भैंसे से संपर्क कर लेता है। इस विषय पर अभी गहराई से शोध किया जाना बाकी है। मध्य भारत के जिन इलाकों में यह पाया जाता है, वहां की पालतू भैंसे भी इनसे मिलती जुलती नजर आती हैं। इस बात को एक मजेदार घटना से समझा जा सकता है। कुछ वर्षो पहले बीजापुर के वन-मंडलाधिकारी रमन पंड्या के साथ बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की एक टीम जंगली भैंसों का अध्ययन करने और चित्र लेने के लिए इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान पहुंची। उन्हें जंगली भैंसों का एक बड़ा झुंड नजर आया और उनके सैकड़ों चित्र लिए गए। एक श्रीमान जो उस समय देश में जंगली भैंसों के बड़े जानकार माने जाते थे, बाकी लोगों को जंगली भैंसों और पालतू भैंसों के बीच अंतर समझाने में व्यस्त हो गये। तभी अचानक एक चरवाहा आया और सारी भैंसों को हांक कर ले गया।
अनुचित वृक्षारोपण
मध्य भारत में जंगली भैंसों के विलुप्तता की कगार पर पहुंचने का एक प्रमुख कारण उसका व्यवहार है, जहां एक ओर गौर बारिश में ऊंचे स्थान पर चले जाते हैं, वही जंगली भैंसे मैदानों में खेतों के आस पास ही रहते हैं और खेतों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इस कारण गांव वाले उनका शिकार कर लेते हैं। एक कारण यह भी है कि वन विभाग द्वारा प्राकृतिक जंगलों को काट कर उनके स्थान पर शहरी जरूरतों को पूरा करने वाले सागौन, साल और नीलगिरी जैसे पेड़ों का रोपण कर दिया है। इनमें से कुछ के पत्ते अखाद्य हंै, इनके नीचे वह घास नहीं उग पाती जिनको ये खाते हंै, वैसे भी जंगली भैंसे बहुत चुनिंदा भोजन करते हैं। इस कारण भी इनका गांव वालों से टकराव बहुत बढ़ गया है।
बेवार पद्धति और जंगल में सन्तुलन
टकराव बढऩे का एक कारण यह भी है कि पहले आदिवासी बेवार पद्धति से खेती करते थे। इसमें उनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। जंगल के टुकड़े जला कर उनमें बिना हल चलाये बीज छिड़क दिये जाते थे। राख एक बेहद उत्तम उर्वरक का काम करती थी। पैदावार भी बहुत अच्छी मिल जाती थी। इसके अलावा जंगलों में कंदमूल और फल भी प्रचुरता से मिल जाते थे। यदाकदा किए जाने वाले शिकार से भी उन्हें भोजन की कमी नहीं होती थी। वे खेती पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं थे। इसलिए वन्य प्राणियों द्वारा फसल में से कुछ हिस्सा खा लिये जाने पर इनमें बैर भाव नहीं आता था। हर दो या तीन साल में जगह बदल लिए जाने के कारण पिछली जगह घास के मैदान बन जाते थे। वन्य प्राणियों को चारे की कोई कमी नहीं होती थी। अत: यदाकदा किये जाने वाले शिकार से उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आती थी।
आदिवासियों के अधिकारों का हनन वन्य जीवों के लिए बना संकट
अब चूंकि आदिवासियों के पास स्थाई खेत हैं जिनकी उर्वरता उत्तरोत्तर कम होती जाती है और इनमें हल चलाना, खरपतवार निकालना और उर्वरक डालने जैसे काम करने पड़ते है जिसमें काफी श्रम और पैसा लगता है। इसके अलावा खेतों की घेराबंदी के लिये बास बल्ली और अन्य वन उत्पाद लेने की इजाजत भी नहीं है। इमारती लकडिय़ों के वनों में
आदिवासियों के लिये भोजन भी नहीं है अत: अब आदिवासी अपनी फसलों के नुकसान पर वन्य प्राणियों के जानी दुश्मन हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से जंगली भैंसे आज दुर्लभतम प्राणियों की श्रेणी में आ गये हैं।
एक प्राकृतिक स्वर्ग को नष्ट करने की साजिश
खैर यह सब हो चुका है और इस नुकसान की भरपाई करना हमारे बस में नहीं है। लेकिन एक जगह है जो आज तक विकास के विनाश से अछूती है। वह जगह वैसी ही है जैसा प्रकृति ने उसे करोड़ों सालों के विकास क्रम से बनाया है। जहां आज भी बेवार पद्धति से खेती होती है, वहां वनभैंसा बड़े झुंडों में शान से विचरता देखा जा सकता है। इस जगह बड़ी संख्या में बाघ, भालू, ढोल और पहाड़ी मैना अन्य वन्यप्राणी आदिवासियों के साथ समरसता से रह रहें हैं। यहां प्रकृति प्रदत्त हजारों किस्म की वनस्पतियां पेड़ पौधे जिनमें से अनेक आज शेष भारत से विलुप्त हो चुके हैं, फल- फूल रहे हैं।
करीब 5000 वर्ग किलोमीटर में फैले इस स्वर्ग का नाम है अबूझमाड़। ना यहां धुंआ उड़ाते कारखाने है ना धूल उड़ाती खदानें। और ना ही वे सड़के हैं जिनसे होकर विनाश यहां तक पहुंच सके। पर यह सब कुछ बदलने वाला है और कुछ तो बदल भी चुका है। यहां पर रहने वाले आदिवासियों को तथाकथित कामरेड बंदूकें थमा रहे हैं। हजारों सालों तक स्वर्ग रही इस धरती पर इन स्वयंभू कामरेडों ने बारूदों के ढेर लगा दिये हैं। इस सुरम्य धरती पर इन लोगों ने ऐसी बारूदी सुरंगे बिछा दी हैं जो सुरक्षा बलों, आदिवासियों और वन्य प्राणियों में फर्क नहीं कर सकती।
जंगली भैंसों के भविष्य की एक सुनहरी किरण
हाल ही में वन विभाग ने जंगली भैंसों की संख्या बढ़ाने के लिये नई तकनीक का सहारा लेने का निर्णय लिया है जिसके तहत एक मात्र बची मादा के अंडाणु और नर भैंसों के वीर्य को निषेचित कर उन्हें बड़ी संख्या में पालतू मादा भैंसों के गर्भ में स्थापित किया जायेगा। आशा है कि इस तकनीक से जंगली भैंसों को बचाया जा सकेगा।
लेखक अपने बारे में:
स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक रखता हूं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में निवास है। इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से प्लाईवुड टेक्नालॉजी में डिप्लोमा किया है तथा इसे ही पेशे के रुप में अपनाया है। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता मेरे स्वभाव में है। वन्य जीवों व जंगलों से लगाव है अत: इन विषयों पर लिखता हूं। मेरा पता: रोहिणी प्लाइवुड इंडस्ट्री, न्यू इंडस्ट्रियल एरिया, गोगांव, रायपुर (छ.ग.)
मो.- 0942503045 E-mail - aruneshd3@gmail.com
1 comment:
VERY NICE.......
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