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May 3, 2021

अनकहीः मैं अभी हारा नहीं हूँ...

- डॉ. रत्ना वर्मा

हमारे आस- पास लॉकडाउन का सन्नाटा तो है ही, पर जो सन्नाटा दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है वह बेहद डरावना है।  ऐसे समय में कोई अगर कहे कि बहुत हो गया कोरोना, कोरोना... किसी और विषय पर लिखो, तो क्या ऐसा संभव है? की- बोर्ड पर ऊँगली रखे दो दिन हो गए पर किसी और विषय पर उँगलियाँ चल ही नहीं पा रही हैं, क्या करूँ....

लोगों के सामने बड़ी- बड़ी आपदाएँ आईं; पर आज जैसी हताशा, निराशा  और इतनी लाचारी कभी महसूस नहीं की थी। देश के असंख्य लोग अपने घरों में कैद हैं, तो असंख्य अस्पतालों की भीड़ में कहीं गुम। रोज किसी अपने की मौत की खबर से लाचार।  दूर रह रहे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से बात करते हुए डरने लगे हैं कि कहीं कोई बुरी खबर न सुना दे, इसलिए फोन करना भी बंद कर दिया है, क्योंकि उन्हें मालूम है कि वे दूर से हौसला अफज़ाई तो कर सकते हैं, पर कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना के दो शब्द नहीं कह सकते। और तो और अपने माता- पिता और अपने भाई -बंधु  की अर्थी को न कंधा दे पा रहे हैं, न चिता को अग्नि। इससे बड़ा दुख और कुछ हो ही नहीं सकता।

इस जानलेवा माहामारी ने साहित्य, राजनीति, कला और स्वास्थ्य जैसे कई क्षेत्रों के प्रसिद्ध मनीषियों को हमसे छीन लिया है। जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार नरेन्द्र कोहली, कवि कुँअर बेचैन, पत्रकार रोहित सरदाना,  ....आदि के साथ लाखों लोगों ने किसी न किसी अपने को खोया है। उन सबके प्रति आदरांजलि के साथ यही प्रार्थना है कि इस दु:ख की घड़ी में उनके परिवार वालों को भगवान शक्ति और शांति प्रदान करे।

इस दूसरे तूफान के आने से पहले सबने यह मान लिया था कि हमने तो जंग जीत लिया है, पर यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी थी। पिछले साल पूरे देश ने सरकार के साथ मिलकर जोर- शोर से थाली बजाई, ताली बजाई और दीये जलाए फिर भूल गए कि दुनिया भर के कई देश इस समय भी कोरोना रूपी महामारी के दूसरे दौर से जूझ रहे हैं और वे लगातार चेतावनी दे रहे थे  कि सब इस दूसरे दौर के तूफान के लिए तैयार रहें;  लेकिन तब भी हम बेफिक्र होकर आराम से अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट गए थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं। अपनी जान की परवाह न करते हुए पार्टियाँ करने लगे, शादियों में सैकड़ों लोगों को आमंत्रित करके नियम कायदों को ताक पर रख दिया। न मास्क पहना, न दो गज की दूरी बनाकर रखने जैसी न्यूनतम चेतावनी की ओर ध्यान दिया। सड़कों पर फिर वैसी ही भीड़, बाजार में वही रेलम-पेल, नतीजा आज सबके सामने है। पूरा देश चिंता और चिता की आग में धू- धू करके जल रहा है... अस्पतालों में जगह नहीं हैं, इंजेक्शन की मारा-मारी मची है और ऑक्सीजन सिलेंडर का तो जैसे अकाल ही पड़ गया है।  हताश- परेशान लोग सरकार को कोस रहे हैं, अस्पताल प्रबंधन को गाली दे रहे हैं, डॉक्टरों से लड़ रहे हैं... कुल मिलाकर व्यवस्था चरमरा गई है, जिसपर सरकार का नियंत्रण नहीं रहा। 30 सीट वाली बस में यदि 150 लोग घुस जाएँगे, तो क्या होगा जरा कल्पना कीजिए, कुछ ऐसा ही हाल इन दिनों देश भर के अस्पतालों का है। हम सिर्फ सिस्टम को कोसते रहेंगे, तो हालात सुधर तो नहीं जाएँगे।

समय की माँग तो यही है कि सरकार पूरे देश में स्वास्थ्य आपात्काल घोषित करके सभी कोरोना के मरीजों को मुफ्त में इलाज उपलब्ध करवाए और निजी अस्पताल जो इस मुश्किल घड़ी में भी गरीबों को लूटने में लगे हैं, अपने दरवाजे सबके लिए खोल दें। कुछ समय के लिए कमाई करना बंद करके सेवा के जिस धर्म की प्रतिज्ञा लेकर उन्होंने शिक्षा ली थी, उसका पालन करने का यही समय है, जीवन रहा तो पैसा तो आ ही जाएगा।

साथ ही सभी राजनीतिक दल एक साथ आएँ और मिलजुलकर इस आपदा का सामना करने के उपाय के बारे में सोचें।  यह समय राजनैतिक फायदा उठाने का नहीं है, न धरना- प्रदर्शन और आंदोलन करके एक दूसरे की टाँग खींचने का है;  बल्कि सभी दलों के करोड़ों कार्यकर्ता अगर मैदान में उतर जाएँ, तो न सेवाकर्मियों की कमी रहेगी, न जनता में ऐसा हाहाकार मचेगा। चुनावी रैलियों में जो शक्ति प्रदर्शन नजर आता है, वही प्रदर्शन दिखाने का यह सही समय है, जब हम सच्चे भारतीय होने का फर्ज अदा कर सकते हैं। जिंदगी रही तो लडऩे- भिडऩे के लिए बहुत समय रहेगा।

हताशा और निराशा के बीच कुछ ऐसी मर्माहत कर देने वाली खबरें भी आती है, जो यह सोचने पर बाध्य कर देती हैं कि इंसानियत और मानवता इस रुप में भी हमारे सामने आ सकती है- कोरोना की दूसरी लहर में जहाँ लोगों को, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर और जरूरी दवाएँ नहीं मिल रही हैं, ऐसे में एक बुजुर्ग ने ऐसी मिसाल पेश की है, जिसे हर कोई याद रखेगा। महाराष्ट्र नागपुर के क नारायण भाऊराव दाभाडकर ने एक 40 साल के व्यक्ति के लिए यह कहते हुए अपना बेड छोड़ दिया कि मैंने अपनी जिंदगी जी ली है। मेरी उम्र अब 85 साल है जबकि इस महिला का पति युवा है,  उसपर परिवार की जिम्मेदारी है। इसलिए उसे मेरा बेड दे दिया जाए।  इसके बाद वे घर आ गए और 3 दिन बाद उनका निधन हो गया। दाभाडकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे और उन्होंने माधव गोलवरकर जी के साथ काम किया था। दाभाडकर कुछ दिन पहले ही कोरोना से ग्रसित हुए थे। उनका ऑक्सीजन लेवल 60 तक गिर गया था और बड़ी मुश्किल से उन्हें बेड मिला था। यह घटना मानवता की ऐसी मिसाल है, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएगा।

यही सब कुछ जीने का हौसला देती हैं। जहाँ बुराइयाँ है, अव्यवस्था है, कमजोरियाँ हैं तो कुछ लोगों द्वारा की जा रहीं अच्छाइयाँ भी हैं,  सहायता के बढ़े हजारों हाथ भी हैं- देश के कई गुरुद्वारों और अन्य स्वयं सेवी संस्थानों ने न सिर्फ भोजन के बल्कि आक्सीजन के लंगर भी खोल दिए हैं।  सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के स्टील प्लांटों से देश में ऑक्सीजन की कमी दूर की जा रही है। कहने का तात्पर्य है कि एक ओर जहाँ मुनाफाखोरों की कमी नहीं है तो दूसरी ओर स्वेच्छा से सेवा करने वालों की भी कमी नहीं है।  पिछले एक साल से देशभर के डॉक्टर और सेवाकर्मी 24 घंटे अपनी परवाह न करते हुए हमारे लिए लड़ रहे हैं,  दिन रात लोगों की सेवा में लगे हैं, हालात के आगे वे भी असहाय महसूस कर रहे हैं, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है। वे अपने कर्म से मुँह नहीं मोड़ रहे हैं। ऐसे में हम सबका भी यह दायित्व बनता है कि सकारात्मक बने रहकर उनके काम को मुश्किल न बनाएँ।

भारत के कोरोना के हाहाकार की गूँज अब पूरी दुनिया को दिखाई और सुनाई दे रहा है और शुभ संकेत है कि सब सहयोग के लिए आगे आ रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेण्डर, दवाइयाँ, इंजेक्शन तथा अन्य जरूरी चिकित्सा- सुविधा मुहैया कराने के साथ- साथ सेवाकर्मी भेजने की पहल भी कुछ देशों ने की है। इस सकारात्मक सोच का स्वागत किया जाना चाहिए।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी लागातार यह अपील कर रहे हैं कि सबको अस्पताल की तरफ भागने की जरूरत नहीं है, ऐसा होने के कारण जिन्हें वास्तव में डॉक्टरी सहायता की जरूरत है उनकी सहायता नहीं कर पा रहे हैं। तो आइये हम उनकी बात की गंभीरता को समझें जितना संभव हो सके घर पर ही रहें। बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलें, मास्क लगाकर रहें और दो गज की दूरी बनाकर रखें। सकारात्मक बने रहें। कोरोना से जीतने के ये ही सबसे बड़े हथियार हैं।  संकट बहुत गहरा है। लगता है हर साँस पर पहरा है। आइये मिलकर और डटकर इस संकट का मुकाबला करें, क्योंकि हर हाल में इस लड़ाई को जीतना है। गीतकार अनजान ने कहा है-

जग अभी जीता नहीं है, मैं अभी हारा नहीं हूँ।

फैसला होने से पहले, हार क्यों स्वीकार कर लूँ।

2 comments:

विजय जोशी said...

कलियुग ने आहट दे दी फिर भी आज का इंसान दुर्गति से सद्गति की ओर उन्मुख नहीं हुआ. यह काल तो मानव की लापरवाही का जीता जागता उदाहरण है
- ज़मीं पे इंसाँ ख़ुदा बना था वबा से पहले
- वो ख़ुद को सब कुछ समझ रहा था वबा से पहले
- पलक झपकते ही सारा मंज़र बदल गया है
- यहाँ तो मेला लगा हुआ था वबा से पहले
यही उत्तर तो दिया था युधिष्ठिर ने यक्ष को. दिवंगत नारायण जैसे लोग तो इतिहास की विषय वस्तु होकर रह जाएंगे कालांतर में.
उत्तम आलेख जन जागृति की दिशा में सो हार्दिक बधाई

Sudershan Ratnakar said...

नारायण भाऊराव दावाडकर को नमन। सुंदर आलेख