1. गुलाब वाला कप
सुबह-सवेरे चाय बनाने हेतु बुज़ुर्ग हीरालाल रसोईघर में पहुँचे, तो गुलाबी कप अपने स्थान पर नहीं था। उन्होंने हर तरफ निगाह घुमाई; लेकिन कप कहीं भी दिखाई नहीं दिया। नए कप तो दिखाई दे रहे थे, पर उनका पसंदीदा गुलाबी कप गायब था। पहले तो शेल्फ पर ही रखा होता था। उनका दोस्त दे गया था, शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर। बोला था- गुलाबी कपों में चाय पीने से प्यार गहरा होता है। तब से वे उन्हीं गुलाबी कपों में ही चाय पीते आ रहे थे। छह में से दो कप बेटे की शादी में टूट गए, दो बेटी की शादी में। उन कपों में चाय पीने वाले तब तक वे रह भी दो ही गए थे। पाँच वर्ष पहले जीवन-संगिनी गुलाब के साथ छोड़ जाने से पहले ही एक कप बहू से टूट गया था। तब कई बार वह और गुलाब एक ही कप में बारी-बारी से घूँट भर चाय पीते थे। आखरी बचे कप को वह स्वयं ही धोकर रखते, ताकि कहीं टूट न जाए। किसी और कप में उन्हें चाय स्वाद ही नहीं लगती थी।
तभी बहूरानी उठकर आ गई। उन्होंने उससे कप के बारे में पूछ लिया।
‘बहुत पुराना हो गया था, पापा जी! दूसरे कपों में रखा अलग-सा अकेला कप अच्छा नहीं लगता था। कल रात रसोई की साफ-सफाई के दौरान आपके बेटे ने फेंक दिया। नए कप लाएँ हैं, उनमें से ले लो। चाय ही तो पीनी है।’
‘अच्छा तो था, क्या हुआ था, सुन्दर लगता था।’ वे मुँह मे ही बुड़बुड़ाते हुए कमरे में आकर बिस्तर पर ढेर हो गए।
‘इन्हें क्या पता पुरानी चीजों की अहमियत। मैं और गुलाब उस कप में ही चाय पीते रहे हैं। कप की डंडी पर उसकी उँगलियों के निशान थे और किनारों पर होठों के...इतने ध्यान से धोता था कि कहीं किसी निशान पर साबुन न लग जाए... इन्हें क्या पता यादों का मोल...।’
उस दिन के बाद वे कभी रसोईघर में नहीं गए। बहू कितनी भी अदरक-इलायची डालकर चाय बना देती, पर उन्हें कभी स्वाद नहीं लगी। आधी पीते, आधी छोड़ देते।
२. भिखारी
शाम को बेटा ऑफिस से घर लौटा, तो बिंदेश्वर जी ने पोते से कहकर उसे अपने स्टोरनुमा कमरे में बुलवाया।
‘कहो क्या बात है?’
वे बोले, ‘हरमेश, सुबह के नाश्ते के बाद कुछ भी खाने को नहीं मिला, न दोपहर का भोजन, न शाम की चाय... शूगर का मरीज हूँ...।’
हरमेश ने पत्नी से पूछा, 'आज दोपहर पिताजी को रोटी नहीं दी?’
‘किसने कहा तुमसे?’
‘पिता जी ने।’ हरमेश ने झिझकते हुए कहा।
‘तुम्हारे आते ही शिकायत कर दी। काम में मैं भूल गई, तो माँग नहीं सकते थे! शिकायत के लिए मुँह में जबान है, रोटी माँगने के लिए नहीं।’ पत्नी ऊँची आवाज में बोली।
कुछ देर बाद चाय का कप पिता के सामने रखते हुए हरमेश बोला, ‘सरिता को बहुत-से काम रहते हैं, वह कभी चाय या रोटी देना भूल जाए, तो माँगकर ले लिया करो।’
अगले दिन शाम को बिंदेश्वर जी ने फिर से हरमेश को बुलवाया और बोले, ‘बेटा, बहू आज फिर भोजन देना भूल गई।’
बेटा बोला, ‘कल कहा तो था आपको कि माँग लिया करो। जो चीज चाहिए उससे माँग लो, मुझसे चाहिए मुझसे माँग लो ...माँगने में कैसी शर्म?’
बिंदेश्वर जी कुछ देर तक बेटे के चेहरे की ओर देखते रहे, फिर बोले, ‘ठीक कहते हो बेटा, माँगा तो शर्म उतारकर ही जाता है। ...माँगना है तो शर्म कैसी! कैसी शर्म!! ...ऐसा करना बेटा, मुझे कल बाजार से अल्युमिनियम का एक कटोरा ला देना।’
‘अल्युमिनियम का कटोरा! ...किस लिए?’
‘भीख माँगने के काम आएगा... जब माँगकर ही खाना है, तो कहीं से भी माँग लूँगा... बहुत बड़ी दुनिया है, बहू-बेटे को क्यों परेशान करूँगा।’
सम्पर्क: 520, गली नं. 5, प्रतापसिंह नगर, कोटकपूरा, (पंजाब)151204, मोबा. 98772-77050, ईमेल- sundershyam60@gmail.com
2 comments:
सुंदर बेहद मर्मस्पर्शी लघुकथाएँ।
Bht acchi
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