क़ातिल
कोरोना का क़हर
- जेन्नी शबनम
भारत तथा विश्व की
वर्तमान परिस्थिति पर ध्यान दें तो ऐसा लग रहा है कि प्रकृति हमें चेतावनी दे रही
है कि अब बहुत हुआ, अब तो चेत जाओ, वापस लौट जाओ अपनी-अपनी जड़ों की
तरफ, जिससे प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर एक सुन्दर
दुनिया निर्मित हो सके। सिर्फ भारत ही नहीं सम्पूर्ण
विश्व आधुनिकता की दौड़ में इस तरह उलझ चुका है कि थोड़ी देर रुककर चिन्तन, मनन, आत्मविश्लेषण करने को तैयार नहीं है। अगर
ज़रा देर रुके तो शेष दुनिया न जाने कितनी आगे निकल जाएगी, कितना कुछ छूट जाएगा, जाने कितना नुकसान हो
जाएगा। पैसा, पद, प्रतिष्ठा, पहचान, पहुँच आदि सफलता के नए मानदंड बन गए
हैं। सफल होना तभी संभव है जब प्रतिस्पर्धा की दौड़ में
खुद को सबसे आगे रखा जाए। प्रतिस्पर्धा में जीतना ही आज
के समय में दुनिया जीतने का मंत्र है।
जीव जंतु तो सदैव
अपनी प्रकृति के साथ ही जीवन जीते हैं, भले ही आज के समय में उन्हें हम मनुष्यों ने प्रकृति से दूर किया है। परन्तु मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध प्रकृति को हथियार बना कर विजयी होना
चाहता है। इस कारण एक तरफ प्रकृति का दोहन हो रहा है तो
दूसरी तरफ हम प्रकृति से दूर होते चले गए हैं। हम भूल
गए हैं कि मनुष्य हो या कोई भी जीव जंतु, सभी प्रकृति
के अंग हैं और प्रकृति पर ही निर्भर हैं। प्राकृतिक
संसाधन हमें प्रचुर मात्रा में मिला है लेकिन हमारी प्रवृत्ति ने हमें आज विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। हमारी जीवन शैली ऐसी हो चुकी है कि हम एक दिन भी सिर्फ प्रकृति के साथ
नहीं गुजार सकते। अप्राकृतिक जीवन चर्या के कारण हमारी
शारीरिक क्षमताएँ धीरे-धीरे कम हो रही हैं। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित हो
गई है जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति भी कम हो गई है।
सभी जानते हैं कि
हानिकारक जीवाणु (बैक्टीरिया) हो या कोई भी विषाणु (वायरस) इसका प्रसार संक्रमण के
माध्यम से ही होता है। कोरोना वायरस के संक्रमण से आज पूरी दुनिया संकट में है और असहाय महसूस कर
रही है। अज्ञानता, मूढ़ता, भय, लापरवाही, अतार्किकता, असंवेदनशीलता आदि के कारण जिस तरह कोरोना का संक्रमण बढ़ता जा रहा है, निःसंदेह यह न सिर्फ चिंता का विषय है बल्कि हमारी विफलता भी है। कोरोना
से मौत का आँकड़ा प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। टी वी और अखबार के समाचार के मुताबिक़ सिर्फ चीन जहाँ से कोरोना के संक्रमण
की शुरुआत हुई थी, वहाँ स्थिति नियंत्रण में है। शेष अन्य देशों की स्थिति गंभीर होती जा रही है।
आम जनता को कोरोना
की भयावहता का अनुमान शुरू में नहीं हुआ था। मार्च 22 को जब एक दिन का जनता कर्फ्यू
लगा और ताली, थाली, घंटी आदि
बजाने का आह्वाहन प्रधानमंत्री जी ने किया, तब इसका भय
लोगों में बढ़ा। फिर भी काफी सारे लोगों के लिए
ताली-थाली-घंटी बजाना मनोरंजन का अवसर रहा और वे अपने-अपने घरों से निकलकर मानो
उत्सव मनाने लगे। यूँ जैसे ताले-थाली-घंटी पीटने से
कोरोना की हत्या की जा रही हो, या यह कोई जादू टोना हो
जिससे कि कोरोना समाप्त हो जाएगा। अप्रैल 5 को जब
प्रधानमन्त्री जी ने रात के 9 बजे घर की बत्ती
बुझाकर दीया जलाने को कहा, तो लोगों ने इसे दीपोत्सव
बना दिया। दीये भी जलाए गए, आतिशबाजी
भी खूब हुई, मोदी जी के लिए खूब नारे लगे। यूँ लग रहा
था मानो यह कोई त्योहार हो। अगर प्रधानमन्त्री जी एक दीया जलाकर, जो लोग इस महामारी में मारे गए हैं, उनके लिए 2 मिनट का मौन रखने को कहते तो शायद लोग इसे गंभीरता से लेते और भीड़ इकट्ठी
कर न पटाखे फोड़ते न दिवाली मनाते। हम भारतीय इतने असंवेदनशील कैसे होते जा रहे हैं? कोरोना कोई एक राक्षस नहीं है जिसे भीड़ इकट्ठी कर अग्नि से डरा कर ललकारा
जाए और वो मनुष्यों की एकजुटता और उद्घोष से डर कर भाग जाए।
प्रधानमन्त्री जी
द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद जिस तरह अफवाहों का बाज़ार गर्म हुआ उससे कोरोना का संक्रमण और
भी फ़ैल गया।अधिकतर लोग बाज़ार से महीनों का सामान घर में
भरने लगे। जिससे बाज़ार में ज़रूरी सामानों की किल्लत हो
गई और दुकानों में भीड़ इकट्ठी होने लगी। चारो तरफ
अफरातफरी का माहौल हो गया। क्वारंटाइन, आइसोलेशन, सोशल डिस्टेनसिंग, घर से बाहर न निकलना आदि को
लेकर ढ़ेरों भ्रांतियाँ फैलने लगी. लोग भय और आशंका से पलायन करने लगे; जिससे ट्रेन, बस इत्यादि में संक्रमण और फैलने
लगा।
जनवरी के अंत में
जब भारत में पहला कोरोना का मामला आया तभी सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए था। विदेशों से जितने भी लोग आ रहे थे उसी
समय उन्हें कोरोंटाइन करना चाहिए था। देश में जितने भी
समारोह, सम्मलेन, सभा का
आयोजन जिसमें भीड़ इकट्ठी होनी थी, तुरंत बंद कर देना
चाहिए था।कोरोना का मामला आने के बाद भी ढ़ेरों सरकारी कार्यक्रम हुए जिनमें देश
विदेश से लोगों ने शिरकत की, कहीं भी किसी तरह की भीड़
इकत्रित होने पर पाबंदी नहीं लगाई गई। लगभग दो महीने से
थोड़े कम दिन में जब कोरोना का संक्रमण का फैलाव बहुत ज्यादा हुआ और मौत का सिलसिला
शुरू हुआ तब सरकार जाग्रत हुई। इतने विलम्ब से लॉकडाउन
के निर्णय का कारण समझ से परे है। क्योंकि वास्तविक
स्थिति का अंदाजा तो स्वास्थ्य मंत्रालय के पास रहा ही
होगा। अगर स्वास्थ्य मंत्रालय
इसकी भयावहता से अनभिज्ञ था तो यह भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश के लिए शर्म की बात
है।
लॉकडाउन होने के
बाद भी दिल्ली से पलायन करने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग एकत्र हो
गए। इनमें दूसरे राज्यों से आए दिहाड़ी मज़दूरों की
संख्या ज्यादा थी। निःसंदेह अफ़वाहों और सरकार के प्रति
अविश्वसनीयता के कारण वे सभी ऐसा करने के लिए विवश हुए होंगे। न काम है, न अनाज है, न पैसा है, न घर है; ऐसे में कोई क्या करे? सरकार खाना देगी यह
गारंटी कौन किसे दे? गरीबों की सुविधा का ध्यान कभी
किसी सरकार ने रखा ही कब? हालाँकि पहली बार यह हुआ है
कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से बहुत
अच्छी हुई है। रैनबसेरा, सस्ता खाना आदि का प्रबंध
उत्तम हुआ है। फिर भी राजनीति, नेता और सरकार पर विश्वास शीघ्र नहीं होता है। ऐसे
में उन्हें यही विकल्प सूझा होगा कि किसी तरह अपने-अपने घर चले जाएँ ताकि कम से कम
ज़िंदा तो रह सकें। इनमें सभी जाति, धर्म और तबके के लोग
शामिल थे। लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद सुरक्षित तरीके से सरकार अपने खर्च पर सभी
को अपने-अपने गाँव या शहर पहुँचा देती तो समस्याएँ इतनी विकराल रूप नहीं लेती। शेल्टर में रहकर कोई कितने दिन समय काट सकता है?
निज़ामुद्दीन स्थित
मरकज में तब्लीगी जमात के लोगों की गतिविधियाँ बेहद शर्मनाक है। लॉकडाउन के बावज़ूद वे सभी इतनी बड़ी
संख्या में साथ रह रहे थे। जब उन्हें जबरन जाँच के लिए
ले जाया जा रहा था तब और अस्पताल में जाने के बाद जिस तरह की घिनौनी हरकत कर रहे
हैं, उन्हें कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। सरकार द्वारा निवेदन
और चेतावनी के बावजूद निज़ामुद्दीन के अलावा देश में कई
स्थानों पर अब भी भीड़ इकट्ठी हो रही है। कई जगह
स्वास्थ्यकर्मियों एवं पुलिस के साथ बदसलूकी की जा रही है। कई सारे मामले ऐसे हो रहे हैं जब संक्रमित व्यक्ति को आइसोलेशन में रखा
गया तो वे भाग गए या ख़ुद को ख़त्म कर लेने की धमकी दे रहे हैं। कुछ लोग कोई न कोई जुगाड़ लगा कर लॉकडाउन के बावज़ूद घर से बहार निकल रहे
हैं। जबकि सभी को मालूम है कि जितना ज्यादा सोशल डिसटेनसिंग
रहेगा संक्रमण से बचाव होगा। ऐसे लोग जान बुझकर जनता,सरकारी व्यवस्था और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं।
लॉकडाउन से कोरोना के रफ़्तार में जो कमी आती उसे इनलोगों ने न सिर्फ़ रोक दिया है
बल्कि ख़तरा को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है।
राजनीति और सियासत
का खेल हर हाल में जारी रहता है, भले ही देश में आपात्काकाल की स्थिति हो। एक
दिन अख़बार में फोटो के साथ ख़बर छपी कि दिल्ली सरकार एक लड्डू, ज़रा-सा अचार के साथ सूखी पूड़ी बाँट रही है। अब
देश में महा समारोह तो नहीं चल रहा कि पकवान बना-बनाकर सरकार परोसेगी। यहाँ अभी किसी तरह ज़िंदा और सुरक्षित रहने का प्रश्न है। ऐसे हालात में दो वक़्त दो सूखी रोटी और नमक या खिचड़ी मिल जाए, तो भी काम चलाया जा सकता है। अगर अच्छा भोजन उपलब्ध हो जाए तो इससे बढ़कर
ख़ुशी की बात क्या होगी. अफवाह यह भी फैला कि खाना मिल
ही नहीं रहा है, भूख से लोग मर रहे हैं। जबकि दिल्ली
सरकार, केंद्र सरकार, ढ़ेरों
संस्थाएँ, सामाजिक कार्यकर्ता आदि इस काम में पूरी
तन्मयता से लगे हुए हैं।
देश और दुनिया के
हालात से सबक लेकर हमें अपनी जीवन शैली में सुधार करना होगा। खान पान हो या अन्य आदतें प्रकृति के
नज़दीक जाकर प्रकृति के द्वारा खुद को सुधारना होगा। भले ही कोरोना चमगादड़ से फैला
है लेकिन कई सारे जानवरों से दूसरे प्रकार का संक्रमण फैलता है. ऐसे में सदा मांसाहार को त्याग कर शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिए। योग, व्यायाम तथा उचित दैनिक दिनचर्या का पालन करना
चाहिए ताकि हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़े। संचार
माध्यमों के इस्तेमाल के साथ ही आपसी रिश्ते को मजबूती से थामे रखा जाए ताकि कहीं
कोई अवसाद में न जाए।
कोरोना के कहर से
बचाव के लिए हम सभी को स्वयं खुद का और सरकार का सहयोग देना होगा। सिर्फ सरकार पर
दोषारोपण कहीं से जायज नहीं है। हम देशवासियों को भी अपना कर्त्तव्य समझना चाहिए। जिन्हें संक्रमण की थोड़ी भी आशंका हो, उन्हें
स्वयं ही ख़ुद को आइसोलेट कर लेना चाहिए या क्वारंटाइन के लिए चला जाना चाहिए। इस राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा की घड़ी में अपने-अपने घरों में रहकर हम आवश्यक
और मनवांछित कार्य कर सकते हैं। मनोरंजन के ढ़ेरों साधन
घर पर उपलब्ध है, ऐसे में बोरियत का सवाल ही नहीं है। एकांतवास से अच्छा और कोई अवकाश नहीं होता जब हम चिन्तन मनन कर सकते हैं
और कार्य योजना बना सकते हैं। आत्मवलोकन, आत्मविश्लेषण और कुछ नया सीखने का भी यह बहुत अच्छा मौका है। यूँ तो कोरोना के कारण मन अशांत है और खौफ़ में हैं परन्तु इससे कोरोना का
ख़तरा बढ़ेगा ही कम नहीं होगा। बेहतर है कि हम इस समय का
सदुपयोग करें स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व के उत्थान के लिए।
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