- संदीप राशिनकर
अभिव्यक्ति के परिचित एवं प्रचलित माध्यम भाषा, बोलियों
और लिपियों के इस दौर में यह जानना कम रोचक नहीं होगा कि मानव की विकास यात्रा में
भाषा-लिपियों का आविष्कार मानव उत्पत्ति के लंबे समय बाद हुआ। पारस्परिक
अभिव्यक्ति का पुरातन माध्यम निश्चित ही चित्र रहा है। जिसके प्रमाण हमें विश्वभर
में फैले शैलाश्रयों/गुफाओं में शैलचित्रों के रूप में मिलते है।
भित्तिचित्र कहलाने वाली विद्या
म्यूरल की परंपरा का विकास भले ही मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक काल में
शैलचित्रों के रूप में हुआ हो किंतु इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि अभियक्ति की यह
पुरातन व प्रभावी शैली सभ्यता की विकास यात्रा में कही पीछे छूटकर गुम हो गयी।
कला और आम मानस के बीच बढ़ती हुई
खाइयों के रस दौर में आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है। कि आम मानस में कला
बोध जाग्रत हो संवर्धित हो। जनमानस और
समाज में कला बोध जागृत करने का जरिया कभी भी कला विथिकाएँ या आर्ट गैलेरी नहीं हो
सकता। हमें लोगों को हाँककर कला वीथिकाओं तक ले जाने के बनिस्बत कला को लोगों के बीच ले जाने का जतन
करना होगा।
सार्वजनिक स्थलों में ठेठ लोगों के
बीच कला की स्थायी और प्रभावी उपस्थिति के लिए भवनों के आमुखों से उपयुक्त और क्या
कैनवास हो सकता है? इसी सोच का रचनात्मक परिणाम है, भवनों के आमुखों पर सृजित भित्तिचित्र, और यही है
एलिवेशनल म्यूरल।

एलिवेशनल म्यूरल भवन का एक स्थायी भाग होने से
इसकी संरचना, माध्यम
और सृजन प्रक्रिया में तकनीकी जानकारी, सोच व प्रक्रिया की अहम भूमिका से इन्कार
नहीं किया जा सकता।
आपकी यह कलाकृति कोई सुरक्षित या
वातानुकूलित परिसर में सुशोभित नहीं होने जा रही है, उसे तो खुले में सारी ऋतुओं, आपदाओं, विपदाओं
से बाबस्ता होना है। जरूरी है कि उसका सृजन, उसका माध्यम व उसकी संरचना ऐसी दृढ़ता सहेजे
हो जो न सिर्फ वातावरण के विभन्न प्रभावों से सुरक्षित रहे वरन् रख रखाव के स्तर
पर भी अपेक्षाओं से रहित हो।

मेरी मान्यता है कि लेटेस्ट आर्किटेक्चर और कास्टलिएस्ट फिनिश भवनों को वह
सार्वकालिक विशिष्टता नहीं दे सकते , जो एक एलिवेशनल म्यूरल दे सकता है। आर्किटक्चर
जहाँ एक ट्रेंड है वहीं फिनिशेस मार्केट आइटम है जिसकी पुनरावृत्ति संभव ही नहीं अवश्यंभावी
है। कला व तकनीक के सुनियोजित एवं रचनात्मक संयोजन से एलिवेशनल म्यूरल्स में
फाम्र्स मटेरियल माध्यम और संरचना के स्तर पर निश्चित ही संभावनाओं का एक भरा पूरा
वितान है।
जहाँ तक इसमें निहित व्यय का प्रश्न है जो जनमानस में कला की कीमतों और कला
के बाजारीकरण के चलते यह भ्रम मन में बैठ चुका है कि कला या म्यूरल्स आम की नहीं
खास की जागीर है। कलाकारों को चाहिए कि कला की आम मानस में पैठ के लिए ऐसे
प्रामाणिक प्रयास करें कि कला जन-जन की हमराह बन सके।
एलिवेशनल म्यूरल के क्षेत्र में लेखक
के द्वारा किए गए समर्पित और प्रमाणिक प्रयासों के चलते अल्प परिचित यह विद्या
अमीरों के ही नहीं सामान्यजन के भवनों को भी अपनी कला सुरभि से सुरभित कर रही है।
संरचना माध्यम की लंबी शृंखला में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम हर आर्थिक
स्तर के लिए म्यूरल्स का सृजन कर सकें।
निरंतरता से न सिर्फ सृजन के स्तर पर वरन् तकनीक के स्तर पर भी इस विद्या
के वैशिष्ट्य को संवर्धित किए जाने की महती आवश्यकता है। यह कलाभिव्यक्ति का वह
आयाम है जो निश्चित ही विध्वंस के इस दौर में जनमानस में सृजन व कला के प्रति
आसक्ति का अंकुरण कर परिवेश को कलात्मक व रचनात्मक बनाने का मुद्दा रखता है।
संपर्क: 11 बी, राजेन्द्रनगर,
इंदौर-452012 (म.प्र)
फोन नं. 0731-2321192
Email- rashinkar_sandip@yahoo.com
No comments:
Post a Comment