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Jan 29, 2011

हाय मेरी प्याज

- राम किशन भँवर
प्याज जिनके यहां थोड़ी बहुत स्टॉक में थी, उनके कहने ही क्या। उनके दिन सुनहरे ही समझिये। मंडी का अपना विज्ञान है। भाव कब चढ़ेंगे और कित्ते दिन चढ़े रहेंगे ... यह उनका अपना गणित है।
क्या पता था कि प्याज के दिन ऐसे बहुरेंगे कि वह सौ फीसदी वी.आई.पी. हो जायेगा। प्याज खाना हैसियत वाले आदमी की पहचान बन गई है। 'क्यों भाई साब ... प्याज खा रहे हंै, वह भी सलाद में, क्या ठाठ हैं। सब्जी मंडी में प्याज के दुकानदार के चेहरें की रौनक के भी क्या कहने! अब वह पहले वाला दुकानदार नहीं है कि आप गये और बैठकर छांटने लगे प्याज। बात यही कोई एक हफ्ते पहले की है जब प्याज 50 रुपए किलो पर ठनठना रहा था। अपनी औकात और छुई- मुई शान के वास्ते आधा किलो प्याज ली, चलते वक्त रास्ते में एक प्याज गिर गई, मैंने गाड़ी रोककर उसे ऐसे सहेजते हुए उठाया, जैसे कोई गिन्नी गिर गयी हो। उन दिनों की वह खरीदी गई आधा किलो प्याज कितने दिन मेरे घर पर मुख्य अतिथि की तरह रही, इसकी गणना यह लिखते समय मेरे पास ठीक- ठीक उपलब्ध नहीं है।
अभी कल ही तो मंडी में 50 वाली 30 में छटी- बची प्याज पाने के लिए लोगों की ऐसी लम्बी लाईन थी कि टेलीविजन का चौखटा काफी छोटा पड़ गया। ... होटल में खाने की मेज पर यदाकदा सलाद की प्लेट में एक दो लच्छे दिख भर जाएं तो ऐसा लगता कि जैसे मैं आम आदमी से तुरंत खास बन गया। लोगों की नजरें चुराकर प्याज के दो छल्लों को कपोल कवलित करने के बजाएं पतलून की जेब में रख लेता हूं, घर पहुंचने पर उन छल्लों को बच्चों को दिखा कर कहता हूं कि देख लाले, यह है प्याज, हो गये न हम मोहल्लें में इने- गिने लोगों की हैसियत वाले ...। मेरा बच्चा छल्ला देखकर एक बार रोमांचित होकर बोल पड़ा था, हाय पापा, सुमित बहुत नक्शा मारता था, कि उसके पापा मार्केट से रोज प्याज लाते है। अब तो मैं भी कह सकता हूं... कि मेरे पापा दि ग्रेट...। मेरा मन अंदर से कह रहा था कि उससे कह दूं कि स्कूल के बैग में प्याज का छल्ला रख ले और फिर साथियों को दिखा कर वापस ले आना...। पर हाय मेरा मोह माया...। मन नहीं हो रहा था कि प्याज को अपने हाथ से एक पल के लिए दरकिनार करूं । प्याज तू न गई मेरे मन से... यही माकूल टाइटिल होता न, यदि दिनकर जी जिंदा होते...। दिगम्बरी भाई लोग जो तरह- तरह की रोक- टोक की बिना पर प्याज को नाकारा समझते थेे... वह भी प्याजगोशों को समझाने में लग गये है... अरे एक मुझे देखो प्याज खाते ही नहीं, प्याज न खाने वाले (महंगाई के कारण न खरीद पाने वाले) उनकी टोली में आ गये हंै।
आम आदमी के पसीने उस समय छूटने लगते हैं जब दुकानदार मुंहतोड़ जवाब फेंकता है, ओ बाबू साहेब... प्याज है प्याज, घुइयां नहीं। लेना हो तो लो, वरना आगे देखो... । प्याज जिनके यहां थोड़ी बहुत स्टॉक में थी, उनके कहने ही क्या। उनके दिन सुनहरे ही समझिये। मंडी का अपना विज्ञान है। भाव कब चढ़ेंगे और कित्ते दिन चढ़े रहेंगे... यह उनका अपना गणित है। मेरे एक परिचित आमदनी वाले विभाग में कार्यरत हंै, मैंने उनसे एक दिन कहा- भई कभी अपनी नजरें प्याजखोरों पर तिरछी कर लो । बोले -'क्या तिरछी नजरे करूं खाक, प्याज मिल रही है आगे से न सही पीछे से'।50 रुपए किलो वाली प्याज में से एक प्याज लेकर आप सुबह- सुबह सामने रखकर बैठ जाइए..., धीरे- धीरे पहले ऊपर का छिल्का उतारिये फिर आगे के छिलके उतारते चले जाइए। सावधान आप मन में सब्जी बनाने का इरादा न कीजियेगा। जो छिल्का उतार रहे हैं न, समझिये वही प्याज है। अब आप क्या पाते हंै कि प्याज है और है तो वह छिलकों में। बचा सिर्फ शून्य। यही शून्य परम् तत्व है। परम् विज्ञान है। भगवत प्राप्ति का संतसम्मत साधन। छिलकों की पर्त के संगठन का नाम प्याज है और उनके बिखराव में प्याज तिरोहित हो रही है। शून्य बच रहा है। जो दिख रहा है वो है नहीं... और जो नहीं है वो दिख रहा है। सरकार इस दिशा में किसी न किसी तरह से प्रयोग कर सकती है। एक अपील जारी कर सकती है। 'लीजिए एक प्याज और भोरहरे उठ बैठिए, प्याज साधना कीजिये... सारे मर्ज दूर। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।'
जैसे एक सीढ़ी होती है, कोई चढ़ता है फिर उतरता है - यह एक सामान्य सा नियम है। चढ़ा है तो उतरेगा और उतरा है तो चढ़ेगा। यहीं है न। पर जरूरत की वस्तुओं के भाव मंडी में तो ऊंचान तक बड़ी देर तक रूके रहते है। चढ़ गये तो चढ़ गये, अब लखियों मनौती मनाओ... पर उतरेंगे नहीं। बस चढ़े हैं तो...। जैसे जरूरतों के बाजार में भाव मरखैना सांड़ हो गया हो...। और अपनी प्याज... चढ़ी जो चढ़ती चली गयी। पड़ोस वाले शर्माजी बोले कि येल्लो प्याज ने तो वाकई रूला दिया। अब कौन कहे कि प्याज तो वैसे ही रूलाती रहती है। मैंने सुन रखा था कि एक नन्हा सा देश था (कम आबादी वाला शायद ट्यूनीशिया), वहां पर कोयले के भाव बढ़ गये, कोयला खरीदने व न खरीदने में अमीर- गरीब का जैसे भेद पनपने लगा हो। उस देश के कुछ समझदार लोगों ने कोयले की ओर से मुंह मोड़ लिया। कोयला बाजार में होता था किन्तु इच्छाशक्ति के धनी लोग उसकी ओर देखते नहीं थे। ई मुई प्याज के साथ ऐसा हो जाता तो क्या अच्छा होता, सड़क पर पसरी रहती और लोग धत्त तेरे की कर देते।
कल के लिए कागज के पन्ने कोरे है सिर्फ यह लिखने के वास्ते बेटा वह भी समय था जब 50 रुपए किलो वाली प्याज तुम्हारें दादा जी बाजार से लाते थे। और 22 वीं सदी का लल्ला बोल उठेगा... हाऊ सच मम्मी... तब इत्ती सस्ती थी प्याज...।
लेखक अपने बारे में ....
लिखने की विधा में व्यंग्य ने मुझे अधिक आकर्षित किया। जब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था, यह शुरुआत थी। बाद में 'कहे कलमची' शीर्षक से एक अखबार में स्थायी स्तंभ लिखने लगा। इस स्तंभ में सौ से अधिक व्यंग्य लिखे होंगे। उस समय के कुछ व्यंग्य समाचार पत्रों में छपे भी। प्रकाशित कृतियां संपादन- काव्य निलय, आवास संदेश, आर्यवीर। पुस्तक- कृष्ण जैसा समझा वैसा पाया। नाटक- आखिर कब तक, मेहनत, नैतिक और ईमान, रहिमन पानी राखिए, आम आदमी दंगे।
पता: सूर्य सदन, सी-501/सी, इंदिरा नगर लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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