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Sep 22, 2010

उमा:जिसने अपने गाँव में अनूठा बदलाव गढ़ा

- नीता लाल
चटक साड़ी, मांग में सिंदूर भरे यह सरपंच कहती हैं 'जब 1989 में शादी के बाद इस गांवमें आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी और लोगों से बात करना भी कठिन लगता था।
महिला आरक्षण बिल पर इतने गहरे चिड़चिड़ेपन के बावजूद, इस बात के चमकते हुए भरपूर उदाहरण हैं कि कोटा प्रणाली कैसे भारत की जेंडर असमान राजनीतिक भूदृश्य की तिरछी तस्वीर को सीधा कर सकती है और संपूर्ण समुदाय के जीवन को बदल सकती है। भारतीय संविधान के 73वें संशोधन ने 1992 में महिलाओं के लिए पंचायती राज संस्थाओं (पी.आर.आई.) समेत स्थानीय प्रशासन में 33 प्रतिशत आरक्षण का आदेश दिया। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय स्तर पर महिलाओं की भागीदारी में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हुई। अगस्त 2008 में पंचायती राज मंत्रालय के एक अध्ययन के अनुसार 27.8 लाख पंचायत प्रतिनिधियों में से 10.4 लाख महिलाएं हैं। सरकार द्वारा पिछले साल पंचायती राज स्तर पर महिलाओं के आरक्षण को बढ़ा कर 50 प्रतिशत करने के साथ संख्या और भी बढ़ जाएगी।
हालांकि इस परिवर्तन के बावजूद किस प्रकार निर्वाचित 'सरपंच' और 'प्रधानों' को परेशान किया जाता है और कमजोर बनाया जाता है, ऐसी असंख्य रिपोर्टें आती हैं। लेकिन इसके साथ- साथ, जमीनी स्तर पर महिलाओं के सशक्तिकरण की असंख्य प्रेरणादायक कहानियां भी हैं।
हाल ही में सोसायटी फॉर पार्टिसिपेट्री रिसर्च (पीआरआईए) द्वारा नई दिल्ली में 'पंचायतों में महिला नेतृत्व का मजबूतीकरण' शीर्षक से आयोजित राष्ट्रीय कार्यशाला में त्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र और गुजरात से करीब 75 पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधि अपने गांवों में विकास की चुनौतियों को संबोधित करने के अपने हजारों अनुभव एक दूसरे के साथ बांटने के लिए एकत्र हुए थे। जैसे- जैसे चर्चा हुई यह स्पष्ट हो गया कि अधिकांश मामलों में 'सरपंच' होना इन महिलाओं के लिए एक बहुत बड़ी बात थी। लेकिन, छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में 1,250 सशक्त गांव सिहा की 40 वर्षीय सरपंच उमा साव की कहानी सबसे अधिक सराहने और अनुकरण के योग्य थी। उच्च जाति के 'घानी' समुदाय की होने के बावजूद आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोडऩे वाली उमा की रोज की चिंता सिर्फ अपने चारों बच्चों की देखभाल और परिवार के लिए क्या खाना बनाना है इसी के इर्द- गिर्द घूमती थी। चटक साड़ी, मांग में सिंदूर भरे यह सरपंच कहती हैं 'जब 1989 में शादी के बाद इस गांव में आई तो मुझे बहुत शर्म आती थी और लोगों से बात करना भी कठिन लगता था। लेकिन अंतर्मन में हमेशा से समुदाय के लक्ष्यों- जैसे गांव के पर्यावरण को बेहतर बनाना, खराब सड़कों को सुधारना, स्कूल और शौचालय बनवाने के लिए काम करने की इच्छा थी' लेकिन फिर भी उमा ने कल्पना नहीं की थी कि एक दिन वह इन लक्ष्यों को पूरा करने में अपने गांव की अगुवाई करेगी। हां काफी अच्छे शगुन थे- गांववालों के साथ उमा का सौहाद्र्र, समुदाय की समस्याओं के लिए व्यवहारिक दृष्टिकोण और सखी- समाज का बोध जो वे गांव की महिलाओं के अंदर पैदा कर पाईं। इन गुणों के आधार पर उमा को गांव की महिलाओं से स्थानीय पंचायत का चुनाव लडऩे के लिए प्रोत्साहन मिला।
वे कहती हैं, 'मैंने सोचा जब लोगों को मुझ पर इतना विश्वास है तो क्यों राजनीति में हाथ आजमाया जाए?' पहले राजनीति का कोई अनुभव और चुनाव लडऩे में कभी कोई रुचि, ऐसे में उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। जब 2005 में सरकार ने सिहा गांव को महिला आरक्षित सीट निश्चित किया तो अपने परिवार के आशीर्वाद से उमा सरपंच बन गईं, और इस तरह सिहा गांव का परिवर्तन शुरू हुआ। शुरू में उमा ने क्रमबद्ध तरीके से गांव की मुख्य समस्याओं की पहचान की। पीने का पानी, सफाई सेवाएं, स्वच्छता, शिक्षा, गांव के तालाब का सूखना और सड़कों के निर्माण को प्राथमिकता के तौर पर रेखांकित किया। इसके बाद पंचायत संचालन से आंतरिक रूप से जुड़े अन्य मुद्दे थे- जैसे लोगों का ग्राम सभा की बैठकों में आना और पुरुषों का सदस्यों को डरा कर निर्णयों को प्रभावित करने की कोशिश करना।
जब उमा सरपंच बनीं, इस बात का कोई संकेत नहीं था कि वे प्रेरणादायक भूमिका लेंगी। हालांकि ग्राम सभा बैठक का लिखित ब्यौरा दर्शाता है कि कैसे इस बहादुर महिला ने सिहा गांव में अनूठा बदलाव गढ़ा। वे सरपंच भवन, पक्की सड़कें, 200 शौचालय और स्थानीय स्कूल के लिए बाहरी दीवार बनाने में सफल रहीं। उन्होंने सड़क की लाइटें, ट्यूबवेल परिवारों में पानी की टंकियां और नल लगवाना भी सुनिश्चित किया। अब वहां ढंके नालों, नेटवर्क और भलीभांति काम करती सार्वजनिक वितरण प्रणाली मौजूद है।
उमा के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान क्या हैं?
उनके अनुसार महत्वपूर्ण यहां स्कूलों में स्वस्थ मिड-डे भोजन का समय और वृद्धावस्था पेंशन पाने की प्रक्रिया को सरल बनाना है। वे कहती हैं, 'बच्चे और वृद्ध स्वस्थ समुदाय का आईना होते हैं इसलिए मैंने इन लक्ष्यों की ओर जानबूझ कर काम किया है। इसके अलावा, मैं गर्व से कह सकती हूं कि आज मेरे गांव के हर परिवार में शौचालय है!' शिक्षा और मिड-डे भोजन के प्रभावशाली संचालन के अतिरिक्त उमा ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एम.जी.एन.आर..जी..) के अंतर्गत गांव के तालाब को गहरा करने के लिए भी इंतजाम कर दिया है।
इन सब कार्यों में बाधाएं?
'सरपंच' के अनुसार काम करना मुख्यत: वित्तीय मजबूरियों के कारण मुश्किल है। उन्हें पंचायत फंड से प्रति वर्ष 40,000 रुपयों की राशि आवंटित की गई है। इसका मतलब है अति आवश्यक काम अक्सर पीछे रह जाता है, या लम्बे समय तक डगमगाता रहता है। उमा को पंचायत में कोरम सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष और गांव के पुरुषों तथा पंचायत के अन्य सदस्यों की गर्म- मिजाजी का सामना करना पड़ा। उसके परिवार और पति मल्लू सिंह, जो एक किसान हैं, पर विरोधी दल द्वारा रुक- रुक कर हमले होते रहे। कई सारे पुरुष प्रत्याशियों द्वारा उनके विरुद्ध गुट बनाने और निंदा अभियान शुरू करने के साथ उनके सामने परेशानियां कम नहीं थीं। उमा स्पष्ट कहती हैं 'पराजित प्रत्याशियों और महिला विरोधी सरपंच ने अक्सर मेरे परिवार को डराने की कोशिश की' 'मेरे पति पर तो हमला भी हुआ' जब उमा ने जिला कलेक्टर से शिकायत की उसका कोई ज्यादा प्रभाव नहीं हुआ। दुर्भाग्य की बात है जब भी उनका तालमेल जिला कलेक्टर से अच्छा बनता, उनके तबादले का समय हो जाता। फिर भी, दबाव के आगे झुकने के बजाय, सरपंच ने एक मजबूत समुदायिक आधार बनाया है और वे दृढ़ निश्चय के साथ बहादुरी और मेहनत की अनुकरणीय कहानी लिखती चली गईं।
उन्हें यह शक्ति कहां से मिली?
उमा कहती हैं कि उन्हें अपनी शक्ति चुनौतियों और अपने परिवार के समर्थन से मिलती है। वे कहती हैं, एक मददगार पति ने उन्हें अर्थपूर्ण सामाजिक परिवर्तन आरंभ करने के गुण को समझने में सहायता की। यह उत्साही महिला कहती है 'साथ ही, मैं एन.जी.. के साथ काम करती हूं, जो एम.जी.एन.आर..जी.. जैसी सरकारी योजनाओं और सूचना के अधिकार को कैसे इस्तेमाल करते हैं के बारे में मेरे ज्ञान में वृद्धि करते हैं।'
क्या उन्हें लगता है कि यह सब करने का कोई महत्व है?
उमा निडरता से कहती हैं, 'बिल्कुल'! धमकियों और हमलों के बावजूद? वे दोहराती हैं, 'अगर इन हरकतों से वो मुझे तोड़ पाए तो इससे अन्य महिलाओं के लिए एक बुरा उदाहरण होगा'
वे भ्रष्टाचार से कैसे निपटती हैं, जो कि अक्सर ग्राम पंचायतों में एक अति महत्वपूर्ण समस्या है? क्या वे रिसर्च परिणामों में विश्वास करती हैं जिनका दावा है कि महिला प्रतिनिधि एक स्वतंत्र तरीके से काम करती है और भ्रष्टाचार की संभावनाएं उनके सामने खत्म हो जाती हैं?
जवाब में उमा के पास एक अनूठा परिप्रेक्ष्य है। वे कहती हैं, 'एक महिला का ध्यान गबन करने पर नहीं बल्कि पैसे को सोच- समझकर खर्च करने पर होता है। हमें घर पर ऐसा करने की आदत होती है और हम सीमित साधनों में भी अच्छी तरह काम चला लेती हैं। हम उद्घाटन और मनोरंजन जैसे फालतू कार्यक्रमों पर खर्च से बच कर इसका प्रयोग कुशलता के साथ गांव के विकास में करते हैं।' चाहे आप इसे नारीवाद का पैदाइशी ज्ञान कहें लेकिन इसने इस सरपंच को आज वो जहां है वहां पहुंचने में जरूर मदद की है। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उमा ने विकास के घोषणा- पत्र पर अपनी जीत का डंका 2009 में भी बजाया। इस बार एक स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में और स्वयं की पढ़ाई छूटने के बाद भी, इस बात का पूरा ध्यान रखा कि उसके चारो बच्चों की पढ़ाई छूटे। उनका बड़ा बेटा रायगढ़ के कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ रहा है, जबकि बाकी तीन बेटे स्थानीय स्कूल में पढ़ रहे हैं। हां, उसी स्कूल में जिसको उनकी मां ने दीवारों और जाते रंग से मजबूत बनाया है।
(विमेन्स फीचर सर्विस)

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