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Feb 25, 2009

तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको...

-.सिराज खान

भारतीय फिल्म संगीत के क्षेत्र में प्रभावशाली गायिका बहनों लता मंगेशकर और आशा भोंसले की लंबी उपस्थिति के कारण अनेक महान गायिकाओं का गायन कैरियर सिमटकर रह गया। इनमें से कुछ गायिकाओं ने सामान्य और अपेक्षाकृत मुश्किल जीवन अपना लिया। फिर भी 1940 से अब तक के हिन्दी फिल्म संगीत के समृद्घ रंगपटल पर शमशाद बेगम, सुधा मल्होत्रा, कमल बारोट, उषा मंगेशकर, रूमा गुहा ठाकुरता और मुबारक बेगम जैसी पाश्र्वगायिकाओं का योगदान अविस्मरणीय रहा है।
शमशाद बेगम
निश्चित रूप से इनमें से संगीत की रानी शमशाद बेगम हैं। वे अब अपनी इकलौती बेटी और दामाद के साथ मुंबई के उपनगर स्थित अपने घर में शांत और आरामदायक जीवन बिता रही हैं। यह वयोवृद्घ महिला 89 साल से ज्यादा उम्र की है। हाल ही तक वे लोगों की निगाहों से दूर जीवन बिता रही थीं जब एक प्रमुख भारतीय पत्रिका ने उनका साक्षात्कार लिया तब आखिरी बार लगभग 50 साल पहले उन्होंने किसी बाहरी व्यक्ति को अपना फोटो खींचने की इजाजत दी थी। इसीलिए उनका यह साक्षात्कार सचमुच एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।
शमशाद बेगम ने 1937 में लाहौर रेडियो स्टेशन पर गाना गाकर अपने कैरियर की शुरुआत की थी। अमृतसर में जन्मी इस गायिका ने अपनी आवाज से श्रोताओं का ध्यान तुरंत आकर्षित कर लिया और उन्होंने 40 के पूरे दशक से लेकर 60 के दशक के अंत तक अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज किया। सैंया दिल में आना रे... (बहार-1951), बूझ मेरा क्या नाम रे... (सीआईडी-1956), तेरी महफिल में किस्मत आजमाकर हम भी देखेंगे... (मुगल-ए-आजम-1960) शमशाद बेगम के जबरदस्त लोकप्रिय गीतों में से कुछ गीत हैं।
उनका गाया अंतिम गीत कजरा मोहब्बत वाला ... (किस्मत) 1968 में रिकार्ड किया गया था जिसमें प्रसिद्घ संगीतकार ओ.पी. नैय्यर ने कभी आर कभी पार... (आर पार-1954) जैसा प्रभाव एक बार फिर पैदा कर दिया था। ताजगी से भरा हुआ कभी आर कभी पार... उनका गाया एक और लोकप्रिय गीत है। यह गीत आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना 40 साल पहले था जब उन्होंने पाश्र्वगायन को अलविदा कहा था। उनके सदाबहार लोकप्रिय गीतों के लिए लॉग ऑन करें।
http://www.youtube.com/watch?v=eVGyT7AVxMw
http://www.youtube.com/watch?v=o8CqqmvwniY
http://www.youtube.com/watch?v=LLnJfodDTSw
सुधा मल्होत्रा


सुधा मल्होत्रा एक और कलाकार हैं जिनके गले में जादू है। नई दिल्ली में 1936 में जन्मी इस गायिका को मास्टर गुलाम हैदर, 40 के दशक के एक प्रमुख संगीतकार जो अपने गीतों में लोकप्रिय रागों को पंजाबी धुनों के साथ जोडऩे के लिए जाने जाते हैं, ने एक बाल कलाकार के रुप में ढंूढ निकाला था। पाश्र्वगायिका के रुप में गीत मिल गए नैन... से उन्हें पहला ब्रेक मिला जिसे फिल्म 'आरजू-1950' के लिए अनिल विश्वास ने संगीतबद्घ किया था। फिल्म 'कालापानी' -1956 का भजन ना मैं धान चुनूं..., सलाम-ए-हसरत कुबूल कर लो... (बाबर-1960) और किशोर कुमार के साथ गाया युगल गीत कश्ती का खामोश सफर है... (गर्लफ्रेंड-1960) कुछ अन्य गीत हैं जिनके लिए उन्हें अक्सर याद किया जाता है।
सन् 1980 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा कलाभूषण पुरस्कार, जिसे पाने की तमन्ना हर कलाकार को रहती है, दिए जाने के अलावा उनके जीवन के दो अन्य उल्लेखनीय पहलू भी हैं। वे उन दुर्लभ पाश्र्वगायिकाओं में से हैं जिन्होंने अपना ही संगीतबद्घ किया हुआ गीत गाया है। सन् 1956 की फिल्म 'दीदी' का गीत तुम मुझे भूल भी जाओ... को सुधा ने न केवल संगीतबद्घ किया बल्कि मुकेश के साथ गाया भी। कहा जाता है कि जिस दिन यह गीत रिकार्ड होना था संगीतकार एन. दत्ता बीमार पड़ गए। रिकार्डिंग आगे नहीं बढ़ाई जा सकती थी क्योंकि गीत का फिल्मांकन रोका नहीं जा सकता था। यह सुनकर सुधा ने प्रस्ताव रखा कि वे इसे संगीतबद्घ करेंगी। यह निश्चित रूप से उनके महान कैरियर का सबसे दिलचस्प पहलू है।
सुधा का नाम अक्सर प्रसिद्घ गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ भी जोड़ा जाता था जिनके बारे में कहा जाता था कि वे सुधा से प्रेम करते थे। दुर्भाग्य से उनके प्रेम को प्रतिदान नहीं मिलना था और यही वह निराशा है जो चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं... (गुमराह-1963) गीत में अविस्मरणीय बन गई। सुधा अब 72 साल की हैं और शमशाद बेगम की तरह ही हिन्दी फिल्म उद्योग के घर मुंबई में रहती हैं। कभी-कभार गजल और भजन के किसी स्टेज प्रोग्राम के अलावा शायद ही वे कभी दिखाई देती हैं या उनकी आवाज सुनाई देती है। उनकी विशिष्ट गायन शैली को
जानने  लिए लॉग ऑन करें।
http://www.youtube.com/watch?v=BA41alxY758

http://www.youtube.com/watch?v=_rNUcRz6Tdc
कमल बारोट
इसी तरह प्रतिभाशाली गायिका कमल बारोट हैं जिन पर किसी कारणवश सहयोगी गायिका का ठप्पा लगकर रह गया। दरअसल उन्होंने सहयोगी गायिका के रूप में अनगिनत युगल गीत और कव्वालियां गाई हैं। बरसात की रात-1960 में सुमन कल्याणपुर के साथ गरजत बरसत सावन आयो रे..., (घराना-1961) में आशा भोंसले के साथ दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ..., (पारसमणि-1963) में लता मंगेशकर के साथ हंसता हुआ नूरानी चेहरा... सूची बहुत लंबी है। लेकिन उनके दुर्लभ एकल गीत भी विशिष्ट रहे हैं। बादशाह का गीत आज हमको हंसाए न कोई... भुलाए नहीं भूलता है।
रोचक बात यह है कि अपने परिवार में कमल बारोट अकेली नहीं हैं जो फिल्मी दुनिया से जुड़ी हुई हों। उनके भाई चंद्रा बारोट ने अमिताभ बच्चन और जीनत अमान के अभिनय से सजी मूल डॉन 1978 का निर्देशन किया था। कमल जो अब 70 साल से ऊपर की हो चुकी हैं, लंदन और मुंबई के बीच अपना समय बिताती हैं। लेकिन हाल ही में उन्होंने कुछ गाया हो इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। उनकी उत्कृष्ट गायकी सुनने के लिए लॉग ऑन करें -
http://www.youtube.com/watch?v=F9HoeRfvfJ0
http://www.youtube.com/watch?v=bjzvKib1RFw

उषा मंगेशकर
आप मानें या न मानें लेकिन मंगेशकर उपनाम हिन्दी फिल्म संगीत के क्षेत्र में हमेशा महान व प्रसिद्घ कलाकार बनना सुनिश्चित नहीं कर सकता है और सिर्फ उषा मंगेशकर यह बहुत अच्छी तरह से जानती होंगी। भारतीय फिल्म संगीत के प्रमुख परिवार से संबंधित होने के बावजूद हिन्दी और मराठी की इस कुशल पाश्र्वगायिका ने शायद अपना पूरा जीवन अपनी सुप्रसिद्घ बहनों लता और आशा की छाया तले बिताया है। कमल बारोट की तरह उन्होंने भी अनेक युगल गीतों में सहयोगी कलाकार के रूप में अपनी बहनों का साथ दिया है। आशा भोंसले के साथ गाए उनके गीत काहे तरसाए...(चित्रलेखा-1964) और देखो बिजली डोली... (फिर वही दिल लाया हूं-1963) बेहतरीन हैं। उनका एकल गीत सुल्ताना सुल्ताना... (तराना-1979) और लता मंगेशकर के साथ गाया गीत अपलम चपलम...(आजाद-1955), ऊंचे सुर में गाने की उनकी क्षमता को दर्शाता है। यहां तक कि ये गीत आज भी लोकप्रिय हैं। दरअसल वे जब भी स्टेज प्रोग्राम करती हैं ये गीत जरूर गाती हैं। अब 73 साल की हो चुकी इस गायिका ने सार्वजनिक रूप से गाना लगभग बंद कर दिया है। हालांकि 2006 में 'जय संतोषी मांÓ के गीत गाकर उन्होंने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। उनके गीत सुनने के लिए लॉग ऑन करें -
http://www.youtube.com/watch?v=ZHwyhRIVyI
http://www.youtube.com/watch?v={PUbSyLzBiA

रूमा गुहा ठाकुरता

एक ऐसी गायिका जो अपनी विभिन्न उपलब्धियों से श्रोताओं का दिल जीत सकती है वह है रूमा गुहा ठाकुरता। सन् 1934 में जन्मी रूमा में अभिनेत्री, गायिका, नर्तकी और नृत्य निर्देशक मानो एक ही व्यक्तित्व में समाहित हैं। सन् 1951 में रूमा ने प्रख्यात गायक किशोर कुमार से विवाह किया और अगले ही साल अमित कुमार का जन्म हुआ। सन् 1958 में किशोर कुमार से तलाक लेने के बाद वे कोलकाता में बस गईं जहां उन्होंने संगीतकार सलिल चौधरी और फिल्म निर्माता सत्यजीत रे के साथ मिलकर 'कलकत्ता यूथ क्वाइयर', सीवायसी चर्च में गाने वाली गायन मंडली की स्थापना की। वे जरूर कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर रही होंगी क्योंकि इस साल 2 मई को 'सीवायसी' ने अपनी स्वर्ण जयंती मनाई। 'सीवायसी' को क्वाइयर संस्कृति का प्रचलनकर्ता माना जाता है और इसे डेनमार्क में आयोजित कोपेनहेगन यूथ फेस्टिवल में प्रथम पुरस्कार सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। रूमा, मदर टेरेसा के साथ काम कर चुकी हैं। उन्होंने मन्ना डे, हेमंत कुमार और किशोर कुमार के साथ गीत गाए हैं। साथ ही 100 से ज्यादा हिन्दी और बंगाली फिल्मों में अभिनय किया है। उन्होंने सन् 1989 में ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित फिल्म 'घनशत्रु' में मुख्य भूमिका निभाई है। सन् 2006 में मीरा नायर की फिल्म 'द नेमसेक' में अभिनय करने के बाद 74 साल की उम्र में भी जीवन के प्रति रूमा का उत्साह उतना ही स्पष्ट है जितना पहले था। उनकी उपलब्धियों को जानने के लिए लॉग ऑन करें।
http://www.youtube.com/ watch?v=FkLGfr4o4DY

http://www.youtube.com/watch?v=hPEMo4_ATV0

मुबारक बेगम

भारतीय फिल्म संगीत की इन शानदार और प्रशंसनीय उम्रदराज महिलाओं के बारे में कोई भी लेखन संपूर्ण नहीं हो सकता है अगर उसमें मुबारक बेगम का जिक्र न हो जिनकी वापसी की कहानी भारतीय फिल्म संगीत में ही नहीं विश्व संगीत के वृतांत में भी अद्वितीय है। कभी तनहाईयों में हमारी याद आएगी...1961, मुझको अपने गले लगा लो...(हमराही-1963) और कुछ अजनबी से आप हैं... (शगुन-1964) जैसे अविस्मरणीय गीतों को अपनी आवाज देने वाली इस गायिका ने 1968 के बाद से कोई गीत नहीं गाया क्योंकि उन्हें दरकिनार कर दिया गया और दिल को छू लेने वाली उनकी आवाज को लोगों ने तवज्जो देना बंद कर दिया। इस साल की शुरुआत में मैंने उन्हें ढंूढने में सफलता पाई और उनके जीवन तथा गायन कैरियर को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया शुरु कर दी। लगता है मुबारक बेगम ने ठीक वहीं से अपना कैरियर फिर शुरु कर दिया है जहां से उन्होंने 40 साल पहले छोड़ा था और स्पष्ट है कि उनकी आवाज ने अपना जादू और उल्लास नहीं खोया है। मंच पर उनकी उपस्थिति दूसरों को भी तुरंत प्रभावित करती है। पिछले छह महीनों में वे पुणे, मुंबई, बड़ौदा और नई दिल्ली हाल ही में 17 जुलाई (कोद्घ)..... में दो-दो बार प्रस्तुति दे चुकी हैं। साथ ही कोलकाता और चेन्नई में उनके शो प्रस्तावित हैं। आप वापसी की बात करते हैं! वास्तविकता में किसी कल्पनाशील निर्माता या संगीतकार के थोड़े से प्रयास से वे रिकार्डिंग स्टूडियो में भी लौट सकती हैं। मुबारक बेगम की सुरीली आवाज सुनी जा सकती है-
http://www.youtube.com/watch?v=~-FuMAFtw~o


http://www.youtube.com/watch?v=hCayLzdwhvU
ये महिलाएं राष्ट्रीय खजाना हैं। दशकों बीत गए हैं जब इन महिलाओं ने अंतिम बार रिकार्डिंग स्टूडियो में कदम रखा था। लेकिन उनके गाए गीत आज भी दिलों को छू जाते हैं। शायद यही वक्त है जब उन्हें अहसास दिलाया जाए कि उन्हें भुलाया नहीं गया है। (विमेन्स फीचर सर्विस )

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