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Feb 25, 2009

नक्सल समस्या

दीवार पर महज एक पोस्टर चिपकाने से किस तरह अधिकार के लिए लडऩे वालों के भीतर चेतना का संचार होने लगता है यह हम इस नाटक में देखते हैं।
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छत्तीसगढ़ में जमीनें रोज बिक रही है। नई राजधानी नहीं बनी है मगर संभावना की जमीनों पर बाहरी शक्तियों का अधिकार सर्वत्र बन गया है। प्रलोभन, मजबूरी, दिवास्वस्न और नासमझी के कारण छत्तीसगढ़ी किसान जमीन दे रहे हैं।
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नक्सल समस्या, भू-माफिया संकट और कारखानेदारों का आतंक, यह तीन तरह का ताप यहां के लोगों को झुलसा रहा है। समय अब भी है। कम से कम मैदानी क्षेत्रों को तो अब भी बचाया जा सकता है।
नक्सल समस्या भू-माफिया की दबिश और गांव की खेती योग्य जमीन पर फैलते पसरते कारखानों के खौफ के बीच जीते आमजन और छत्तीसगढ़ी बुद्धिजीवियों को डॉ. शंकर शेष का नाटक पोस्टर याद आता है।
डॉ. शंकर शेष ने छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए वंदनीय शोध कार्य किया था। छत्तीसगढ़ की लोक कथाओं को हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी में एक साथ एक ही पुस्तक में संग्रहित कर उन्होंने प्रस्तुत किया। मुख्य रूप से वे एक चर्चित नाटककार थे। पोस्टर उनका बहुचर्चित नाटक था। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध रंगकर्मी स्व. सुब्रत बोस इस नाटक को लेकर देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में गये। उन्हें इस नाटक की प्रस्तुति के लिए खूब सराहना मिली। सुब्रत बोस की प्रस्तुतियों में इस नाटक को शीर्ष स्थान प्राप्त रहा। सुब्रत के सपूत अनुराग आज देश के चर्चित फिल्म निर्देशक है।
पोस्टर में प्रतीक के माध्यम से परिवर्तनकारी बिंदु का महत्वपूर्ण विस्तार दर्शाया गया है। दीवार पर महज एक पोस्टर चिपकाने से किस तरह अधिकार के लिए लडऩे वालों के भीतर चेतना का संचार होने लगता है यह हम इस नाटक में देखते हैं।
वैचारिक उग्रता के लिए लगातार निंदित हो रहे नक्सली जिस तरह मासूम वनवासियों को नृशंसतापूर्वक कत्ल कर रहे हैं उससे उनकी रही सही साख भी खत्म हो रही है। सलवा जुडूम अभियान की निंदा करने वाले भी कम नहीं है, किंतु सलवा जुडूम वस्तुत: पोस्टर ही है, प्रतिरोध की एक कोशिश मात्र। यह साधनहीन वनवासियों की असहमति का ऐलान भर तो है। न उनके पास पर्याप्त हथियार है न ही संगठन की जुझारु शक्ति। वे केवल अपने स्वतंत्र जीवन के लिए आवाज उठा रहे हैं। उन्हें यह पसंद नहीं कि कोई अपने हिसाब से अपनी योजनाओं के तहत उन्हें हांके। चाहे नक्सली हो या सरकारी तंत्र। स्वतंत्रचेता आदिवासियों ने दमन और तानाशाही का विरोध सदैव किया और इसकी भरपूर कीमत भी उन्होंने समय-समय पर चुकाई।
सलवा जुडूम के समर्थन में क्या हो रहा है या इसका विरोध क्या रंग लायेगा यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह संदेश है कि विरोध का शालीन स्वर संगठित बंदूकधारी नक्सलियों को भी किस तरह वैचारिकता का नकली नकाब उतारने के लिए मजबूर कर देता है।
डॉ. शंकर शेष का नाटक 'पोस्टर' इसीलिए याद हो आता है।
बस्तर में किस तरह नक्सली गतिविधियां धीरे-धीरे अपने असली रंग में आई इसे सभी जानते हैं। मासूम आदिवासी सरकारी अति के शिकार तो थे ही, सरकारी तंत्र के दमन से हताश जंगल ने अनजाने ही नक्सलियों को अपना हितैषी समझ लिया। धीरे-धीरे नक्सली आग से जंगल जलने लगा। ऐसी गफलत को ही छत्तीसगढ़ में 'आंजत आंजत कानी' करना कहते हैं। नक्सली गतिविधियां जारी थीं कि सलवा जुडूम का पोस्टर चिपक गया। लेकिन चिपका बहुत देर से। सलवा जुडूम रूपी यह पोस्टर भी नक्सलियों को डरा रहा है। वे हड़बड़ा गये हैं। अभी नक्सल समस्या से छत्तीसगढ़ जूझ ही रहा था कि, नये ढंग के शिकारी छत्तीसगढ़ के मैदानी गांवों में फांदा फटिका लेकर घूमने लगे। ये जमीन के सौदागर हैं। जो बुद्धिजीवी छत्तीसगढ़ के गांवों से जुड़े हैं वे ग्रामीणों के भीतर पसर रहे भय को बहुत करीब से देख पा रहे हैं। जमीन के ये नये सौदागर छत्तीसगढ़ में लगभग नक्सलियों के जुड़वा भाई बनकर उतरे हैं। इनका रंग भी एक दशक बाद छत्तीसगढ़ देखेगा। अभी तो वे चुग्गा डालकर संत्री, तंत्री, आला अफसर और दलालों को फांस रहे हैं। इक्का-दुक्का किसानों को हलाक कर रहे हैं। मगर वह दिन दूर नहीं जब ये जाल में समेटकर सारी चिडिय़ों को नष्टï कर देंगे। तब कोई युक्ति काम न आयेगी। जाल लेकर उडऩे वाली चिडिय़ों का किस्सा पढऩे-सुनने के लिए ठीक है। जो शिकारी छत्तीसगढ़ में उतरे हैं, वे किसी झांसे में नहीं आने वाले। वे समूचा मैदानी इलाका लील कर छत्तीसगढ़ की पहचान मिटा देंगे। चातर क्षेत्रों के गांवों में दहशत है। गांवों में किसानों को पाठ पढ़ाने के लिए एक नया खेल खेला जा रहा है। सरकारी विभाग द्वारा वृक्षारोपण ठीक वहीं किया जाता है जहां से किसानों का गाड़ा खेत में जाता था। खेत जाने का रास्ता बंद कर विकल्प के तौर पर बहुत दूर का ऐसा रास्ता सुझाया जाता है जहां आवाजाही नहीं हो सकती। अब किसान जिले के अफसरों के आगे पीछे घूमें या खेती बाड़ी सब बेच-बांच कर मजूर हो जाएं। भू-माफिया की शातिर योजना के क्रियान्वयन से यह नई परेशानी खड़ी हुई।
छत्तीसगढ़ के गांवों में बाहर से आये जमीनखोरों ने बहुतेरे किसानों की जमीन खरीद लिया है। अब उन्हें शेष किसानों की जमीन चाहिए इसलिए शासकीय लोगों से मिलकर वह कुछ ऐसा कर रहे हैं जो कभी किसी ने नहीं किया। इस तरह शुरू हो रही है दमन की नई कारगर योजना। जिस तरह वनवासियों को नक्सलियों के चंगुल में जाते देखकर भी प्रशासन प्रारंभिक दौर में सतर्क नहीं हुआ ठीक उसी तरह भू-माफिया के कसते शिकंजे के प्रति भी शासन आज असावधान हैं। छत्तीसगढ़ में जमीनें रोज बिक रही है। नई राजधानी नहीं बनी है मगर संभावना की जमीनों पर बाहरी शक्तियों का अधिकार सर्वत्र बन गया है। प्रलोभन, मजबूरी, दिवास्वस्न और नासमझी के कारण छत्तीसगढ़ी किसान जमीन दे रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के किसानों को घेरकर मारने की घटनाएं भी हो रही है। छत्तीसगढ़ में बाहर से आकर लोग रास्ता बंद कर रहे हैं और जिन पर राह बनाये रखने की जिम्मेदारी है वे मायावश आंखें मूंदे बैठे हैं। किसान हताश होकर आखिर में भू-माफिया की शरण में जाने पर मजबूर हो जायेगा और कालांतर में मैदानी इलाका भी बस्तर की तरह लहुलूहान होगा।
बंद कमरे में घिर जाने पर जिस तरह बिल्ली कूद कर गले को पकड़ लेती है उसी तरह घिरे वनवासी प्रतिरोध की मुद्रा में आ गये। मैदानी क्षेत्र के गांवों में अचानक- ही ये खतरनाक भू-माफिया नहीं आये।
लगभग विगत बीस वर्षों से यह प्रयास भीतर ही भीतर जारी था। सडक़ों के किनारे की दूर-दूर तक जमीनें अब छत्तीसगढ़ी व्यक्ति के पास नहीं है। चंदूलाल चंद्राकर से जब भी बड़े पुलों के निर्माण का आग्रह किया जाता था तब वे कहते थे कि पुल बना कि जमीन छत्तीसगढिय़ों के हाथ से निकल जायेंगी। एक का दस देकर बाहरी लोग यहां पसर जायेंगे।
दूरदृष्टा चंदूलाल जी को तब लोग विकास विरोधी कहते थे। आज समझ में आ रहा है कि जिस तरह भिलाई इस्पात संयंत्र खुलने से पहले छत्तीसगढ़ी लोगों को तकनीकी शिक्षा देकर कारखाने के लायक बनाया जाना जरुरी था उसी तरह छत्तीसगढ़ में जागृति के बाद ही पुल-पुलियों का विकास वे चाहते थे। पर छत्तीसढिय़ों के जागने से पहले ही पुल बन गये। उन पुलों से चलकर दमनकारियों का हथियारबंद हरावल दस्ता सर पर चढ़ आया और बेबस छत्तीसगढ़ केवल हाय-हाय करता रह गया।
वन क्षेत्रों में सलवा जुडूम का पोस्टर नक्सलियों को भयभीत करता है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों में अभी विरोध की सुगबुगाहट शुरू नहीं हुई है। स्थानीय किसान गरीब, असंगठित और भयग्रस्त है। अब भू-माफिया के साथ छत्तीसगढ़ के गांवों में प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों के मालिक भी दमन कर रहे हैं। अचानक गांव के मैदानों में शेड लगने शुरू हो जाते हैं। गांव के लोग भी अब जान गये हैं कि ये कारखाने रात भर जहरीला धुआं और कालिख उगलते हैं। इसीलिए वे चिंतित है। थरथराते हुए इक्के-दुक्के स्थानीय जनप्रतिनिधि अपने स्तर पर विरोध का तीर भी चलाते हैं मगर कारखाने के मालिकों की शक्ति असीमित है। इसलिए वे अट्टहास करते हुए छोटी चिमनियों से कालिख का विराट गोला अपने हिसाब से दागने लगते हैं।
छत्तीसगढ़ के हित में सोचने और लिखने की शालीन शैली में प्रवीण लोगों के इक्के-दुक्के आलेख इधर इन विषयों पर छपे भी हैं लेकिन बीमारी महामारी का रूप धारण कर रही है। ऐसे दौर में छिटपुट टीकाकरण से कोई लाभ नहीं होगा। जरूरत है छत्तीसगढ़ हितैषी सभी लोग एक स्वर में इसे बचाने के लिए हुंकारें। आध्यात्मिक गुरुओं ने मनुष्य के जीवन में दैहिक दैविक भौतिक त्रिताप का वर्णन किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है...
'दैहिक दैविक भौतिक तापा,


राम राज्य काहुंहि नहिं ब्यापा।'
राम की दुहाई देते हुए सत्ता में काबिज होने वाली सरकार छत्तीसगढ़ में है। नक्सल समस्या, भू-माफिया संकट और कारखानेदारों का आतंक, यह तीन तरह का ताप यहां के लोगों को झुलसा रहा है। समय अब भी है। कम से कम मैदानी क्षेत्रों को तो अब भी बचाया जा सकता है। स्थिति बिगड़ रही है। तीनों ओर से छत्तीसगढ़ को घेरा जा रहा है। वन क्षेत्रों में नक्सलियों का आतंक है। शहरों में छत्तीसगढ़ी व्यक्ति पूछ रहा है कि उसका घर कहां है और खेतों तथा मैदानों में भू-माफिया तथा कारखानेदारों की दबिश है।
ऐसे दारूण दौर में वह किसे पुकारे और किससे रक्षा की गुहार करे यह छत्तीसगढ़ समझ नहीं पा रहा।
आदिवासी फोटो साभार - indiamike.com

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