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Apr 1, 2023

आलेखः 1934 का प्रलयंकर भूकम्प

 -  अंजनी कुमार सिन्हा

15 जनवरी, 1934 सोमवार का वह दिन बिहार और नेपाल के लोग कभी भूल नहीं सकते। यद्यपि अब भूकम्प के प्रत्यक्षदर्शियों में से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो जो उस समय को याद कर आँखों देखा हाल बयान कर सके, लेकिन हमारी सामूहिक चेतना में वह दिन आज भी एक डरावने सपने की तरह विद्यमान है:

Fear at my heart, as at cup,

My life-blood seems to sip!

अपने बचपन और किशोरावस्था में मैंने अपने घर और पड़ोस के बड़ों से उस भूकम्प का ऐसा रोचक, बल्कि भयावह वर्णन सुना है कि उन बातों को याद कर प्रकम्पित हो जाता हूँ। वे लोग बताते थे कि दोपहर (सवा दो बजे दिन) में अचानक धरती के भीतर से भारी गड़गड़ाहट की आवाज़ हुई। मकान, पेड़-पौधे, सजीव-निर्जीव सब  हिलने-काँपने लगे। दीवारें दरक गईं। कमज़ोर और पुराने घर ढह गये। अनेक मकान इस तरह गिरे कि एक मकान दूसरे पर और दूसरा तीसरे पर आ पड़ा और यह पता लगना कठिन हो गया कि कहाँ कौन-सा मकान खड़ा था। कई जगह ज़मीन में दरारें पड़ गईं। उन दरारों से पानी का सोता फूट पड़ा। बालू भी निकल आया। सड़कें टूट-फूट गईं और यातायात ठप हो गया। रेल लाइन टेढ़ी-मेढ़ी हो गईं। पुल धँस गए। बहुत-से लोग और माल-मवेशी गिरते घरों में दब कर ज़िन्दा दफ़न हो गए या ज़मीन में फटी दरारें उन्हें निगल गईं।

इस भूकम्प की तीव्रता 8.5 थी और इसका केन्द्र माउंट एवरेस्ट के दक्षिण में लगभग 9.5 किलोमीटर पूर्वी नेपाल में स्थित था। केवल बिहार में लगभग 11 हज़ार लोग इस भूकम्प का ग्रास बन गए। नेपाल की राजधानी काठमांडू और बिहार के चम्पारण, मुज़फ़्फ़रपुर, दरभंगा और पूर्णिया आदि में सर्वाधिक जन-धन की क्षति हुई। मुंगेर शहर को इस भीषण भूकम्प ने मलबे का ढेर बना दिया था। जहाँ तक दृष्टि जाती थी तबाही और बर्बादी का मंज़र नज़र आता था।

नेपाल में काठमांडू, भक्तपुर और पाटन बुरी तरह तहस-नहस हो गए थे। अनगिनत इमारतें ध्वस्त हो गई थीं और ज़मीन में बड़ी और गहरी दरारें पड़ गई थीं। नेपाल में क़रीब 10 हज़ार लोग मारे गये। इस प्रकार, भारत और नेपाल में लगभग 21,000  लोग मृत्यु का ग्रास बन गये।

इन दिनों राजेन्द्र बाबू हज़ारीबाग़ जेल में बन्द थे। इन्हें इलाज के लिए पटना लाया गया था। विशेषज्ञों की अनुशंसा पर इन्हें 17 जनवरी, 1934 को रिहा कर दिया गया। अगले दो दिनों में अनेक अन्य कांग्रेसी नेताओं की भी रिहाई हो गई। रिहा होते ही राजेन्द्र बाबू भूकम्प-पीड़ितों को राहत पहुँचाने की फ़िक्र में लग गये। एतदर्थ केन्द्रीय रिलीफ़ कमिटी के नाम से एक ग़ैर सरकारी संस्था स्थापित की गई। राजेन्द्र बाबू इसके अध्यक्ष बनाये गये। कमिटी का उद्देश्य धन संचय कर भूकम्प-पीड़ितों को सहायता पहुँचाना था।

राजेन्द्र बाबू के आग्रह पर महात्मा गांधी, मालवीय जी तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं अन्य नेताओं ने भी सहायता करने की अपील जारी की। नतीजतन, धन, खाद्यान्न, रज़ाई, कम्बल, दवाएँ इत्यादि आने लगीं। वायसराय लॉर्ड विलिंगडन ने भी भूकम्प राहत अधिकोष बनाया। कलकत्ता के महापौर सन्तोष कुमार बोस ने भी एक राहत अधिकोष खोला जिसमें 4,75000/- रुपये की धनराशि जमा हुई। भूकम्प-पीड़ितों को राहत पहुँचाने का सिलसिला चल निकला। 

21 जनवरी, 1934 को राजेन्द्र प्रसाद ने तार देकर महात्मा गांधी को सारी स्थिति से अवगत कराया। 11 मार्च को गांधीजी पटना आये और सेन्ट्रल रिलीफ़ कमिटी के कार्यालय में ठहरे। 14 मार्च को गांधीजी तथा राजेन्द्र बाबू मोतिहारी आये। चम्पारण सत्याग्रह (1917 ई•) के ज़माने से ही महात्मा गांधी चम्पारण की जनता में अत्यन्त लोकप्रिय थे। एक बार फिर से अपने प्रिय नेता को अपने बीच पाकर भूकम्प-पीड़ित जन का हौसला बढ़ा। गांधीजी सभा को सम्बोधित करने खड़े हुए तो लोगों ने 'महात्मा गांधी की जय' का नारा बुलन्द किया। गांधीजी ने जन-समूह को एक मार्मिक सन्देश दिया : "काम करो, भीख मत मांगो, जो काम मिले उसे ईमानदारी के साथ पूरा करो।" उन्होनें मोतिहारी और उसके इर्द-गिर्द के भूकम्प-प्रभावित इलाक़ों का दौरा किया और लोगों को समझाया कि जो लोग हट्ठे-कट्ठे हैं वे यदि बिना काम किये किसी से कुछ मांगते या भिक्षाटन करते हैं तो वे गीता के शब्दों में चोर हैं।

27 मार्च को गांधीजी छपरा पहुँचे। उनके साथ राजेन्द्र प्रसाद, श्रीमती प्रभावती देवी (जयप्रकाश नारायण की पत्नी), श्रीमती भागवती देवी (राजेन्द्र बाबू की बहन) तथा अनेक अन्य गणमान्य लोग थे। आगे उन्होंने सोनपुर, दानापुर, मुज़फ़्फ़रपुर, सीतामढ़ी, मधुबनी, राजनगर, भागलपुर और सहरसा का भी दौरा किया। जहाँ कहीं भी वे पहुँचते, उन्हें देखने तथा उनका सम्बोधन सुनने के लिए भारी जन-सैलाब उमड़ पड़ता था। 

3 अप्रैल को वे मुंगेर पहुँचे। यहीं पर एक युवक ने उन्हें उपहार में एक लाठी दी जिसे गाँधीजी हमेशा अपने साथ रखते थे।

भूकम्प-क्षेत्रों का दौरा करते हुए गांधीजी तथा राजेन्द्र बाबू सारण तथा मुज़फ़्फ़रपुर के कुछ ऐसे इलाक़ों से भी गुज़रे जहाँ लोगों तथा मवेशियों के लिए पेयजल की गम्भीर समस्या थी। दोनों नेताओं की अपील पर प्रत्येक समस्याग्रस्त गाँव में श्रमदान से कम-से-कम एक कुआँ खोदने की योजना बनी। अन्ततः 25,000 कुएँ खोदे गये जिससे पेयजल की समस्या से काफ़ी राहत मिली।

इन दौरों में गांधीजी को एक कटु अनुभव से भी दो-चार होना पड़ा। बड़हिया में कुछ सनातनियों ने काले झण्डे दिखाये। गांधीजी ने गोस्वामी तुलसीदास के सन्देश का स्मरण दिलाया: 'दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान।'

अन्त में एक अजीब बात। भूकम्प के बारे में सब लोग अपनी-अपनी राय ज़ाहिर कर रहे थे। इसमें सबसे विचित्र राय स्वयं महात्मा गांधी की थी। पूरे बिहार के तमाम भूकम्पग्रस्त इलाक़ों का परिभ्रमण करने के पश्चात् गांधीजी ने लिखा कि बिहार का भूकम्प अस्पृश्यता-उन्मूलन में भारत की विफलता के लिए सम्भावित प्रतिशोध था।

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सम्पर्क : एम• ए• कॉन्वेंट स्कूल लेन, नवीन कॉलोनी. सन्त कबीर रोड, बानूछापर, बेतिया।, चलभाष : 7543015792 / 7717754195


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