- श्याम सुन्दर अग्रवाल
गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते
हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा
पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक
बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत
किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के
लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और
बोले,
“जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश
कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे
प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के साथ एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’
2. पाँव का जूता
- डॉ. सतीश दुबे
बैसाख की सन्नाटे–भरी दोपहरी में कभी एड़ी तो
थोड़ी देर बाद पंजे ऊँचे करके चलते हुए वे दुकान के अहाते में पसरी हुई छाइली के
बीच खड़े हो गए। क्षण–भर बाद थकान और पीड़ा से भरी हुई निगाह उन्होंने दुकानदार की
ओर घुमाई,
‘‘भइया! ये दवाई दे दो। देख लेना जरा, पेट–दरद
की ही है ना, बूढ़ी दरद से तड़फ रही है।’’
लाठी टेकते हुए धीमी–धीमी चाल से आ रही इस आकृति
के क्रियाकलाप को बड़ी देर से देख रहा दुकानदार अपने को संयत नहीं कर पाया तथा
आर्द्रभाव से बोला, ‘‘बाबा! यह क्या? पैरों में जूते–चप्पल तो डाल लिए होते। ऐसी तेज घूप में नंगे पैर, जूते कहाँ गए आपके?’’
‘‘जूते.....’’ उन्होंने धीरे–धीरे अपनी गर्दन
ऊँची करके दुकानदार की ओर देखा तथा पूरा वजन लाठी पर टिकाते हुए बोले, ‘‘बबुआ, जब से बेटे के पाँव मेरे पाँव के बराबर हुए
हैं, जूते वह पहनने लगा है।’’
उनका जवाब सुनकर दुकानदार को एहसास हुआ, मानो गरम लपट का कोई झोंका आहत करके गुजर गया हो। उसकी निगाह उनके तपे हुए चेहरे, जले हुए पाँवों तक फिसली तथा वह सिहर उठा। उसने दवाई चुपचाप उनकी ओर खिसका दी तथा अपने जूतों को पैरों में जोरों से भींच लिया।
3. जानवर भी रोते हैं - जगदीस कश्यप
चोर निगाहों से बन्तो ने देखा कि सरदारजी
बार–बार उसकी ओर देख रही थी। उसने चाहा कि वह पूछ ले– कोई तकलीफ तो नहीं। कहीं
सरदारनी पहले की तरह फिर से न बिफर पड़े–‘‘नी बन्तो, मैं
हाँ जी....तू की खाके मेरे सामणे बोलेगी...’’ चाहती तो बन्तो भी उसे खरी–खरी सुना
देती पर औरतों ने समझाया कि लड़ाका कुलवन्त कौर के मुँह लगना तो अपना चैन खोना है।
‘‘तुसी वाज (आवाज) दिती मैनूं?’’ बन्तो ने छत से खड़े होकर पुकारा। आँगन में खड़ी भैंस बार–बार बिदक रही
थी। कुलवन्त ने इस अन्दाज से सिर हिलाया कि उसने कोई मदद नहीं मांगी है। फिर भी
बन्तो जोर से बोली–‘‘ठैर बीजी मैं आनियाँ...’’
उस समय कुलवन्त खेतों में था। पुरबिए भैसों के
साथ खर–पतवार साफ कर रहे थे। इधर सिरफिरों ने उसके बीमार पति, पुत्रवधू, उसके दोनों बच्चों को गोलियों से भून डाला
था। पुत्र तेजिन्दर इस हत्याकाण्ड से पगलाया हुआ फिरता है। सरकार ने नौकरी देने की
बात कही, पर कुछ नहीं हुआ।
बन्तो ने भैंस को सहलाया तो कुलवन्त को लगा कि
उसकी पीठ सहलाई जा रही है। गाँव से झगड़ा करके वह सुखी नहीं रह सकी, यह अन्दाजा उसे अब हो रहा था। सिरफिरों की गोलियों से भैंस का कटड़ा भी
मारा जा चुका था, जिस कारण भैंस कूदने लगी थी। बन्तो ने
बाल्टी के पानी के छींटे भैंस के थन में मारे और धार काढ़ने लगी। कुलवन्त ने
देखा–भैंस उसकी ओर इस अन्दाज से देखती हुई जुगाली–सी कर रही थी, मानों कह रही हो–‘‘बन्तो का भी सारा परिवार गोलियों का शिकार हो गया। चलो
तुम लोगों से सिरफिरों ने जो भी बदला लिया हो पर मैंने आतंकवादियों का क्या
बिगाड़ा था जो मेरे कटड़े को मार गिराया।’’
भैंस ने देखा कुलवन्त कौर बन्तो के नजदीक बैठ गई और उसकी पीठ से सिर टिकाकर रोने लगी। ‘काश! कोई उसका भी रोना देख पाए,’ गुमसुम भैंस ने सोचा।
4. अंतहीन सिलसिला- विक्रम सोनी
दस वर्ष के नेतराम ने अपने बाप की अर्थी को कंधा
दिया,
तभी कलप–कलपकर रो पड़ा। जो लोग अभी तक उसे बज्जर कलेजे वाला कह रहे
थे, वे खुश हो गए। चिता में आग देने से पूर्व नेतराम को भीड़
सम्मुख खड़ा किया गया। गाँव के बैगा पुजारी ने कहा, ‘‘नेतराम...!’’साथ
ही उसके सामने उसके पिता का पुराना जूता रख दिया गया, ‘‘नेतराम
बेटा, अपने बाप का यह जूता पहन ले।’’
‘‘मगर ये तो मेरे पाँव से बड़े हैं।’’
‘‘तो क्या हुआ, पहन
ले।’’ भीड़ से दो–चार जनों ने कहा।
नेतराम ने जूते पहन लिये तो बैगा बोला, ‘‘अब बोल, मैंने अपने बाप के जूते पहन लिये हैं।’’
नेतराम चुप रहा।
एक बार, दूसरी दफे,
आखिर तीसरी मर्तबा उसे बोलना ही पड़ा, ‘‘मैंने
अपने बाप के जूते पहन लिये हैं।’’ और वह एक बार फिर रो पड़ा।
अब कल से उसे अपने बाप की जगह पटेल की
मजदूरी–हलवाही में तब तक खटते रहना है, जब तक कि उसकी
औलाद के पाँव उसके जूते के बराबर नहीं हो जाते।
1 comment:
अपने पीछे कई प्रश्न छोडतीं, मन को झकझोरती सुंदर लघुकथाएँ। रचनाकारों को हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
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