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Apr 5, 2021

धरोहरः छत्तीसगढ़- परंपरा और धरोहरों का बेजोड़ संगम बस्तर


छत्तीसगढ़
एक ऐसा प्रदेश है जो हरियाली और धरोहरों से भरा है।  छत्तीसगढ़ अंचल ने अनगिनत पीढ़ियों से क्षेत्र की प्राकृतिक
, सांस्कृतिक और पुरातात्विक धरोहरों को सहेज कर रखा है। ये धरोहर इस क्षेत्र की पहचान हैं , जो देश-विदेश के सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। यह पूरा प्रदेश घने जंगलों, वन्य प्रजातियों,
आदिवासी समुदाय के लिए जाना जाता है। बस्तर के जंगल इतने घने हैं कि कि सूरज की रोशनी भी इन्हें भेद नहीं पाती। छत्तीसगढ़ में बस्तर के
बारे में बात करें तो- देश का सबसे बड़ा जलप्रपात चित्रकूट यहीं है, जिसे भारत का नियाग्रा प्रपात भी कहा जाता है। बस्तर जिले में स्थित इस चित्रकूट प्रपात में पानी
100 फुट की ऊंचाई से गिरता है। इस जलप्रपात में इंद्रावती, हसदेव, शिओनाथ और महानदी आदि नदियों और उनकी सहायक नदियों का पानी मिलता है, जो आपस में मिल कर देश का सबसे बड़ा और खूबसूरत जलप्रपात बनाता है। दूसरा प्रपात है तीरथगढ़। दूधहा प्रपात के नाम से मशहूर तीरथगढ़ में हमेशा सफेद रंग का झाग दिखाई देता है मशहूर कोटुमसर गुफा  और प्रसिद्ध दंतेश्वरी मंदिर भी बस्तर में ही है। 
अब बात की जाए बस्तर के कुछ महत्त्वपूर्ण धरोहरों के बारे में -

 बस्तर में बिखरे हैं ऐतिहासिक पुरावशेष
 बारसूर

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में स्थित एक गाँव है बारसूर। बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में बसे गाँव बारसूर को पुराअवशेषों का गाँव कहें तो अनुचित नहीं होगा। किसी समय में बारसूर एक सौ सैंतालिस मंदिर और लगभग इतने ही तालाबों वाला नगर कहलाता था। बारसूर जगदलपुर से गीदम होकर 116 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बारसूर छिंदक नागवंशी राजाओं की राजधानी रही है। छिंदक नागवंशियों ने 10 वीं शताब्दी से लेकर 14 वीं शताब्दी् तक बस्तर में शासन किया था। बारसूर नागकालीन प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। उस समय बस्तर के अधिकांश भाग चक्रकूट या भ्रमरकूट के नाम से जाना जाता था। बस्तर के नाग शासकों ने जो भी मंदिर बनवाए उनमें नाग का अंकन बहुतायत से देखने मिलता है।

कोई इस नगर को दैत्य वाणासुर की नगरी कहता है तो कोई अतीत का बालसूर्य। बालसूर्य धीरे धीरे बारसूर बन गया।  बस्तर के समृद्धशाली इतिहास में बारसूर का विशेष स्थान है। बस्तर के कई राजवंशों के उदय और पतन की गाथाएँ इतिहास के पन्नों में मिल जाती है। एक मान्यता के अनुसार बारसूर का नामकरण बाणासुर के नाम पर हुआ। बस्तर की इस पुरातात्विक नगरी में बत्तीसा मंदिर, मामा भाचा मंदिर, युगल गणेश प्रतिमा, चंद्रदित्येश्वर मंदिर के अलावा सोलह खम्भा मंदिर, पेदम्मा गुड़ी, हिरमराज मंदिर आदि प्रमुख मंदिर हैं जिनके संरक्षण की आवश्यकता है 

पुरातत्व विभाग के द्वारा अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार किया गया है और ये कार्य सतत् जारी है। एक छोटे से संग्रहालय में शिव-पार्वती, विष्णु, काली, भैरव, चामुण्डा, ब्रम्हा, लक्ष्मी, गणेश, दिकपाल आदि की प्रतिमाएँ सुरक्षित रखी गई है।

गणेश प्रतिमाएँ

बारसूर में स्थित बलुआ पत्थर से बनी दो गणेश मूर्तियाँ प्राप्त जानकारी के अनुसार दुनिया की तीसरी विशालकाय प्रतिमाएँ हैं। एक की ऊँचाई सात फीट तो दूसरी की पाँच फीट है। ये दोनों मूर्ति एक ही चट्टान पर बिना किसी जोड़ के बनाई गई हैं। बड़ी गणेश मूर्ति के ऊपर के दाहिने हाथ में परशु, नीचे के हाथ में टंक, उपर के बायें हाथ में सर्प तथा नीचे के हाथ में मोदक रखा हुआ है। इस गणेश मूर्ति ने मुकुट धारण किया है, यज्ञोपवीत, कंकण तथा पादवलय स्पष्ट उकेरे हुए नजर आते हैं

पास में रखी दूसरी छोटी गणेश की मूर्ति ने दाहिने उपरी हाथ में सर्प, दाहिने निचले हाथ में परशु, बाएँ ऊपर के हाथ में आयुध, जो खण्डित हो गया है तथा बाएँ नीचे हाथ में मोदक है। इस गणेश मूर्ति ने भी मुकुट, यज्ञोपवीत, कंकण तथा पादवलय स्पष्ट उकेरे गए हैं।  प्रतिमा के ठीक नीचे उनके आसन के अग्र भाग में मूषक भी अंकित किया गया है।

सुरक्षा की दृष्टि से इन विशालकाय मूर्तियों को लोहे की जंगले से घेर दिया गया है। इन गणेश मूर्तियों के बारे में एक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं कि इनका आकार दिन प्रतिदिन बड़ा हो रहा है। यही कारण है कि यह स्थान क्षेत्रीय आदिवासियों के लिए एक तीर्थ स्थल से कम नहीं है। लोग बड़ी संख्या में इनके दर्शन करने आते हैं।  इन मूर्तियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहाँ कभी भव्य मंदिर रहे होंगे। इस परिसर में आस- पास बिखरे भग्नावशेष से लगता है कि आसपास छोटे बड़े तीन मंदिर रहे होंगे।

बत्तीसा मंदिर

बत्तीसा मंदिर का निर्माण भी बलुआ पत्थर से हुआ है। बारसूर का बत्तीसा मंदिर बस्तर के सभी मंदिरों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। यह मंदिर पत्थर के 32 स्तंभों पर टिका है। एक हजार साल पुराने इस मंदिर को बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से पत्थरों को व्यवस्थित करके बनाया गया है।  इस मंदिर में शिव एवं नंदी की प्रतिमाएँ हैं। यहाँ प्राप्त शिलालेख के अनुसार इसका र्निर्माण 1030 ई में छिन्दक नागवंशीय नरेश सोमेश्वर देव ने अपनी रानी के लिए करवाया था। यह मंदिर बस्तर में एक मात्र दो शिवालयों वीर सोमेश्वरा एवं गंगाधरेश्वरा नाम के संयुक्त मंडपयुक्त मंदिर हैं।  जहाँ राजा और रानी शिव की अलग-अलग आराधना किया करते थे l दो गर्भगृह वाले इस मंदिर में दो शिवलिंग स्थापित है।

मंडप में प्रवेश करने के लिए तीनों दिशाओ में द्वार है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जो कि तीन फूट ऊँची जगती पर निर्मित है।  मंदिर में दो आयताकार गर्भगृह है। दोनों गर्भगृह में जलहरी युक्त शिवलिंग है। शिवलिंग त्रिरथ शैली में है। शिवलिंग की जलहरी को पकड़ पूरी तरह से घुमाया जा सकता है।

गर्भगृहों के दोनों द्वार शाखाओं के ललाट बिंब में गणेशजी का अंकन है। दोनों गर्भगृहों के सामने काले पत्थर से बनी अलंकृत नंदी स्थापित है। मंदिर के चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ है। मंदिर का शिखर नष्ट हो चुका है। मंदिर की दिवारों सादी हैं जिस पर किसी प्रकार का कोई अंकन या नही है।

मंदिर में प्राप्त शिलालेख के अनुसार सोमेश्वरदेव की पट्ट राजमहिशी गंगामहादेवी द्वारा दो शिवमंदिरों का निर्माण कराया गया जिसमें एक शिवालय अपने पति के लिए, जिसे सोमेश्वर,देव के नाम पर वीर सोमेश्वरा शिवालय एवं दूसरा स्वयं के नाम पर जिसे गंगाधरेश्वरा शिवालय के नाम से जाना जाता है। शिलालेख के अनुसार मंदिर का निर्माण दिन रविवार फाल्गुन शुक्ल द्वादश शक संवत 1130,  1209 लिखा हुआ है।

मामा-भांजा मंदिर

मामा-भांजा मंदिर दो गर्भगृह युक्त मामा-भांजा मंदिर के मंडप आपस में जुड़े हुए हैं। इतिहासकार एवं शिक्षाविद डॉ. के. के. झा के अनुसार यह नगर प्राचीन काल में वैश्वत पुर के नाम से जाना जाता था। इस मंदिर के गर्भगृह में तथा द्वार पर गणेश की मूर्ति ही स्थापित है। मंदिर द्वार पर चतुर्भुजी गणेश विराजमान हैंइस गणेश मूर्ति के हाथों में भी परशु, गदा, मोदक हैं। नीचे मूषक महाराज भी हैं जाहिर है बारसूर में गणेश मंदिरों का बाहुल्य है। मंदिर के एक ओर द्विभुजी गणेश की मूर्ति है। इनके भी  दाहिने हाथ में परशु तथा बाएँ हाथ में मोदक है। यज्ञोपवीत तो संभवतः यहाँ प्राप्त सभी गणेश की मूर्तियों ने धारण किया हुआ है। इस मूर्ति की बाईं तरफ नरसिंह भगवान की मूर्ति स्थापित है।

मामा -भांजा मंदिर गंग राजाओं द्वारा ही निर्मित है। कहते हैं कि राजा का भांजा उत्कल देश से कारीगरों से इस मंदिर का निर्माण करवा रहा था। मंदिर बहुत ही भव्य और खूबसूरत बन रहा था उसकी सुन्दरता देख राजा के मन में भांजे को लेकर जलन पैदा हो गई कि भला भांजा इतना अच्छा मंदिर कैसे बनवा सकता है बस फिर क्या था दोनों में लड़ाई छिड़ गईअंततः मामा की इस युद्ध में हार हुई और भाँजे ने पत्थरों से मामा का सिर बनवाकर मंदिर के बाहर लगवा दिया और मंदिर के भीतर स्वयं की मूर्ति बनवा कर रखवा दी।

मामा- भांजा मंदिर के बारे में एक और किंवदंती प्रचलित हैं कि  मामा और भांजा दो शिल्पकार थे, जिन्हें इस मंदिर को सिर्फ एक दिन में में पूरा  करने  का काम  मिला था  और उन  दोनों  ने ये मंदिर सिर्फ एक  दिन  में बना  भी दिया था। 

चन्द्रादित्य मंदिर 

चन्द्रादित्य मंदिर  का निर्माण नाग राजा चन्द्रादित्य ने करवाया था उन्हीं के नाम पर इस मंदिर की पहचान है। यह मंदिर भी एक शिव मंदिर है। 

चन्द्रादित्य मंदिर के पास ही मूर्तियों का एक संग्रहालय है। जहाँ बारसूर और आस- पास से प्राप्त मूर्तियों को इकट्ठा करके रख दिया गया है। जिसमें जाहिर है अनेक मूर्तियाँ गणेश की हैं अन्य मूर्तियों में भैरवी कंकालिन देवी के साथ अन्य कई देवियों की मुर्तियाँ हैं

पेदम्मागुड़ी मंदिर

बारसूर जाने पर पेदम्मागुड़ी मंदिर के बारे में पर्यटकों को अधिक जानकारी नहीं दी जाती। संभवतः सड़क मार्ग न होने और रख- रखाव के अभाव में खंडहर की तरह उपेक्षित यह मंदिर उतना ही अद्भुत है,  जितना बारसूर के अन्य मंदिर।  इस मंदिर के बारे में बहुत ही विस्तार से लिखा है आमचो बस्तर और बस्तरनामा जैसी बहुचर्चित किताबों के लेखक राजीव रंजन प्रसाद  ने। वे लिखते हैं-

दक्षिण बस्तर (दंतेवाड़ा जिला) के बारसूर को बिखरी हुई विरासतों का नगर कहना ही उचित होगा। एक दौर में एक सौ सैंतालिस तालाब और इतने ही मंदिरों वाला नगर बारसूर आज बस्तर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में गिना जाता है। कोई इस नगरी को दैत्य वाणासुर की नगरी कहता है तो कोई अतीत का बालसूर्य नगर। यदि इस नगर के निकटस्थ केवल देवी प्रतिमाओं की ही बात की जाए, तो बारसूर के देवरली मंदिर में अष्टभुजी दुर्गा, लक्ष्मी, भैरवी, वाराही आदि; दंतेवाड़ा में महिषासुरमर्दिनी की अनेक प्रतिमायें; भैरमगढ में चतुर्भुजी पार्वती की प्रतिमा, समलूर में गौरी की प्रतिमा तथा स्थान स्थान पर सप्तमातृकाओं की प्रतिमा आदि प्राप्त हुई हैं जो यह बताती हैं कि बस्तर भी नागों के शासन समय में देवीपूजा का महत्त्वपूर्ण स्थल रहा है।

नलों-नागों के पश्चात् बहुत कम प्रतिमाएँ अथवा मंदिर काकतीय/चालुक्य शासकों द्वारा निर्मित किए गए अंत: देवीस्थान के रूप में माँ दंतेश्वरी के अतिरिक्त मावली माता के अनेक मंदिर तो महत्त्व के हैं ही उनके कालखण्ड की अनेक अन्य भूली बिसरी पुरातात्विक सम्पदाएँ भी हैं, इनमें से एक है पेदाम्मागुडी। बारसूर पहुँच कर युगल गणेश प्रतिमा, सोलह खम्भा बंदिर, चन्द्रादित्य मंदिर आदि तक आसानी से पहुँचा जा सकता है चूंकि ये मंदिर तथा प्रतिमाएँ  पर्यटकों के मुख्य आकर्षण का केन्द्र बन गई  हैं। मुझे पेदम्मागुडी को खोजने में कठिनाईयाँ हुई क्योंकि यह मंदिर अल्पज्ञात है तथा बारसूर के पर्यटन नक्शे पर प्रमुखता से नहीं दर्शाया गया है। सड़कों से अलग हट कर तथा बहुत- सी झाड़ियों से लड़ते-झगड़ते हुए ही इस प्राचीन देवी स्थान तक पहुँचा का सकता है।

 अन्नमदेव ने नाग शासकों का वर्ष 1324 में जब निर्णायक रूप से पतन कर दिया तब बारसूर नगरी का वैभव भी धीरे धीरे अतीत की धूल में समा गया। अन्नमदेव के दौर की निशानी माना जाता है, यहाँ अवस्थित पेदम्मागुड़ी मंदिर को। इस मंदिर को ले कर दो मान्यताएँ हैं- पहली यह कि इस मंदिर का अंशत: निर्माण बस्तर में चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव ने करवाया जहाँ, उन्होंने अपनी कुलदेवी की प्रथमत: स्थापना की और बाद में उन्हें दंतेवाड़ा ले गए। इससे इतर लाला जगदलपुरी अपनी पुस्तक बस्तर लोक कला संस्कृति प्रसंगमें पेदम्मागुड़ी के विषय में लिखते हैं - बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुड़ी को नागों के समय में पेदाम्मागुड़ी कहते थे। तेलुगु में बड़ी माँ को पेदाम्मा कहा जाता है। तेलुगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृ भाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदाम्मागुड़ी से अन्नमदेव ने पेदाम्माजी को दंतेवाड़ा ले जाकर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुड़ा में जब देवी दंतावला अपने मंदिर में स्थापित हो गई , तब तारलागुड़ा का नाम बदलकर दंतावाड़ा हो गया। लोग उसे दंतेवाड़ा कहने लगे। वस्तुत: बस्तर के इतिहास को ले कर खोज इतनी आधी- अधूरी है कि किसी भी निर्णय पर पहुँचना जल्दीबाजी होगी।

प्रमुख बात यह है कि यह प्राचीन मंदिर अपने अलगे हिस्से में तो पूरी तरह ध्वस्त हो गया है;  किंतु पेदाम्मागुड़ी का पिछला हिस्सा आज भी सुरक्षित है तथा उसकी भव्य बनावट देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है। आंचलिकता तो धरोहरों का सम्मान करती ही है और अपने तरीके से उसे संरक्षण भी प्रदान करती है, यही कारण है कि आज भी पेद्दाम्मागुडी में वार्षिक जात्रा के अवसर पर बलि दी जाती है। जन-मान्यता के अनुसार पेद्दाम्मागुडी मंदिर में नि:संतान दम्पती भी अपनी मन्नत माँगने आते हैं। लाला जगदलपुरी सहित अन्य इतिहासकार जिस तरह दंतेश्वरी मंदिर और पेदाम्मागुडी का सम्बन्ध स्थापित करते हैं , इससे संरक्षण की दृष्टि से भी आवश्यक हो गया है कि पुरातत्त्व विभाग इसे बचाने की पहल में आगे आए। यहाँ योजनाबद्ध रूप से इतिहास को खोजने और उसे सहेजने की आवश्यकता है। पहल तो इस बात पर होनी चाहिए कि जो भग्न मंदिर अथवा इमारतें हैं, उन्हें सही तरह से सहेज लिया जाए। जिस तेजी से बारसूर में आबादी फैलती जा रही है, आने वाले समय में चाह कर भी पुरात्त्व विभाग यहाँ उत्खनन सम्बन्धी कार्य नहीं कर सकेगा। ( संकलित)

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