अगर तैयारी पूरी हो तो न जन्म लेने में वक़्त लगता है...न इस संसार से विदा होने में...। लेकिन कभी-कभी पूरी तैयारी के बावजूद वक़्त जैसे ठहर जाता है और उस ठहरे हुए वक़्त के बिछावन पर जन्म देने वाली माँ प्रसव पीड़ा से छटपटाती है, तो मृत्यु के समय भी व्यक्ति एक अनकही पीड़ा से मुक्त होने के लिए छटपटाता है...पर...?
सारी
पीड़ा...सारे पापों की सज़ा तो केशव बाबू ने पहले ही
पूरे दस बरस अस्पताल और घर के बीच झूलते हुए भुगत ली थी, फिर
इस छटपटाहट भरे जीवन का क्या अर्थ? शरीर में अब कुछ ऐसा बचा भी
तो नहीं था। डॉक्टर ने दो बरस पहले ही जवाब दे दिया था, पर रमा
देवी किसी तरह उन्हें जिलाए रखना चाहती थी...। एक भारतीय नारी
के पास सुहागन होने का जो सब से बड़ा सुख होता है, उसे वे खोना
नहीं चाहती।
यद्यपि
केशव बाबू की पीड़ा को उनके साथ-साथ खुद भी भुगतते हुए वे इतना अभ्यस्त और तटस्थ हो गई हैं अब यह पीड़ा उन्हें
कहीं से भिगोती भी नहीं है...। उनका मन उस बंजर ज़मीन की तरह हो
गया है, जिस पर बरसों से पानी की एक बूँद भी नहीं पड़ी है...पर फिर भी वे महसूस तो करती ही हैं...।
उन्हें
इस बात का अहसास है कि अपने समय में केशव बाबू कितने नामी वकील रहे...। कितना नाम-दाम कमाया...। आलीशान मकान बनवाया और सन्तान न होने के बावजूद अपने दोनो के भविष्य के लिए
मोटा बैंक-बैलेन्स रखा...। यह सब कुछ अब
रमा देवी का ही तो है...। केशव बाबू चाहें तो भी अब कुछ नहीं
कर सकते, पर उन से जो सुहागन होने का दंभ मिला है, वह धन से भी ज़्यादा सुरक्षा का अहसास देता है और इसी को वे महसूसते रहना चाहती
हैं।
सत्तर
बरस की उमर में भी उनकी ठसक देखते ही बनती है...। जब कलफ़ लगी मँहगे वॉयल की साड़ी सरिया कर करीने से बनाए गए प्लीट्स के साथ
वे पहनती हैं तो फ़ैशनपरस्त लड़कियों की भी ‘वाह’ निकल जाती है। कभी-कभी कोई परिचित लड़की तो पीछे भी पड़
जाती है, ‘दादीऽऽऽ, हमें भी सिखाइए न...कैसे बाँधती हैं इतनी बढ़िया साड़ी...? अरे, इस तरह साड़ी तो मॉडल ही पहन पाती हैं...।’
‘चल हटऽऽऽ...बेवकूफ़ बनाती है...।’
‘नहीं दादी, सच कहती हूँ...।’
‘अच्छा ठीक है, सिखा दूँगी...। अब
पीछा छोड़...।’ ऊपर से वे भले ही झिड़क देती,
पर भीतर से काफ़ी आह्लादित हो जाती। जवानी के दिनो में केशव बाबू के दोस्त
भी अक्सर बहाने से ‘आह! वाह!’ किया करते थे। नैन-नक्श ज़्यादा तीखे नहीं थे तो क्या...?
जब चौड़ी बीच की माँग में ढेर सारा जोगिया सिन्दूर भर कर, हल्के लम्बोतरे चेहरे पर पाउडर और माथे पर बड़ा सा ईंगुरी टीका लगा कर बाहर
निकलती तो उनसे कम उम्र की औरतें भी जल-भुन जाती थी...। यह बात वह अच्छी तरह से जानती थी...और इसी लिए वह अपने
इस रूप को खोना नहीं चाहती...। भले ही इसके लिए उन्हें बहुत कुछ
सहना पड़ता है...रातों की नींद...दिन का
चैन...चौबीसों घण्टे किसी बैल की तरह बंजर ज़मीन पर जुते रहना...। सुबह का सूरज उगा नहीं कि पति की चाकरी में व्यस्त...। नाश्ता-पानी, खाना तो है ही,
ऊपर से उनका बार-बार हगना-मूतना...। हर बार उनकी चादर बदलना और डॉक्टर की सख़्त
हिदायत के अनुसार खाना देना...। सूरज ढल जाता है, तो भी उन्हें आराम नहीं...। कभी-कभी उन्हें लगता है कि सधवा से ज़्यादा अच्छा तो विधवा हो जाना है, पर अगले ही क्षण वे काँप जाती हैं...नहीं...।
और
इधर केशव बाबू को क्या कहा जाए...? उम्र अस्सी बरस...पूरा शरीर सुइयों से चिथा हुआ...। सिकुड़े हुए माँस पर जगह-जगह घाव, जो शुगर कि बीमारी के चलते भरने का नाम ही नहीं लेते...और यही नहीं...ऐसा ही घाव उनकी दोनो आँखों को भी ले गया।
सड़न से बचाने के लिए डॉक्टर को उनकी दोनो आँखें निकाल देनी पड़ी। अब उनकी जगह दो गड्ढे
भर हैं...। उफ़! देखने वाला एक अजीब वितृष्णा
से भर जाता है, ‘यह बुढ्ढा तो जाने का नाम ही नहीं लेता और इसकी
मेहरारू को देखो...अधमरे-अन्धे के लिए इतना
सिंगार-पटार...।’
पता
नहीं कभी केशव बाबू ने सुन लिया या भगवान ने...एक दिन जब रात का आखिरी पहर बीतने को था, चारो तरफ़ क़ब्रिस्तान
सा सन्नाटा पसरा हुआ था...कुत्ते की रिरियाती आवाज़ मनहूसियत का
पैग़ाम दे रही थी और बीच-बीच में चौकीदार की सीटी उस सन्नाटे को
तोड़ रही थी, केशव बाबू ने चुपके से अन्तिम हिचकी ले ली...।
अब
वे क्या करें? इस तरह अचानक यह
हो जाएगा, अन्देशे के बावजूद उन्हें यह विश्वास नहीं था। उन्होंने
उठ कर केशव बाबू के चेहरे की ओर देखा...। चेहरे पर पीड़ा नहीं
थी पर उनकी आँखों के गड्ढों में अब भी ढेर सारा पानी कीचड़ के साथ जमा था...। पानी भरा होने के कारण शायद प्राण को उस रास्ते से बाहर जाने में परेशानी
हुई सो वह नीचे के रास्ते निकल गया, पूरी बेमुरव्वती से...।
केशव
बाबू का पूरा शरीर टट्टी से सना हुआ था और हाथ-पैर ऐंठ गए थे...। टेढ़े होंठों को देख कर लगा कि शयद
अन्तिम हिचकी आने से पहले उन्होंने आवाज़ देने की कोशिश की होगी, पर वह भी गले में घुट कर रह गई थी।
थोड़ी
देर रो लेने के बाद जब उन्हों ने पति की ओर देखा तो जैसे भीतर बहुत कुछ भर गया...। सारी ज़िन्दगी पिसती रही...अब अन्तिम जून और सही...। ज़्यादातर नाते-रिश्तेदार उसी शहर में थे, पर नामी वकील होने और अपार
धन के दंभ ने कभी किसी को अपना नहीं बनाने दिया था...सो रिश्तेदार
तो दूर हो ही गए, मोहल्ले वालोम से भी बस दुआ-सलाम का ही नाता था। पर रमा देवी अच्छी तरह जानती थी कि इस समय वे अकेली कुछ
नहीं कर सकती...। रिश्तेदारों के साथ-साथ
मोहल्ले वालों को भी ख़बर करनी ही होगी...।
रमा
देवी ने बड़ी समझदारी से दरवाज़ा खोला और फिर चीख-चीख कर रोने लगी, ‘हे भगवानऽऽऽ...अब मैं क्या करूँ...? तुम मुझे इस तरह छोड़ कर क्यों चले
गए...? अब मैं किसके सहारे जिऊँगी...?’
सुबह के पाँच बज रहे थे। कई घरों के दरवाज़े खुल गए रमा देवी की चीख से...। बच्चे तो रोज की तरह अपने स्कूल जाने की तैयारी में जुट गए, पर कुछ बड़े लोग केशव बाबू के घर आ गए। दस बरस से बीमार चल रहे थे, कहीं कुछ हो हवा तो नहीं गया...? उनसे व्यवहार भले ही
न हो पर इस समय पल भर के लिए ही सही, खड़ा तो होना ही पड़ेगा...।
गेट
के बाहर मोहल्ले के लोग जुट गए थे। उनके बीच कानाफूसी का दौर शुरू हो गया, ‘क्यों, क्रियाकर्म का
इंतज़ाम किस तरह से किया जाएगा...? रमा भाभी तो बिल्कुल अकेली
हैं...’
‘अरे भैय्या, आदमी इसी दिन को तो औलाद के लिए तरसता है...। अरे, अपनी नहीं हुई तो किसी को गोद तो लेना चाहिए था
कि नहीं...? अपना तो रोने-धोने में लगी
हैं, इंतज़ाम कौन करेगा...?’
‘परेशान काहे होते हो भाई...?’ मुँह में पान-मसाले की पुड़िया उँडेलते खरे साहब काफ़ी देर से सब की बात सुन रहे थे। ग्यारह-बारह साल पहले मकान की रजिस्ट्री को लेकर कुछ कानूनी दाँव-पेंच में उलझ गए थे, सो उस समय केशव बाबू की सहायता से
ही उबरे थे...। अब यह बात दूसरी थी कि इसके एवज में केशव बाबू
ने उनसे मोटी रकम झटक ली थी, पर फिर भी क्या...? कम-से-कम उन्हें परेशानी से तो
मुक्त कर दिया था...।
उस मुकदमे के दौरान ही आपस में कुछ अंतरंगता सी हो गई थी, पर बाद में केशव बाबू के बीमार पड़ने से सम्बन्ध ख़त्म से हो गए थे, लेकिन उन्हें पता था कि उनके कुछ रिश्तेदार इसी शहर में हैं...।
खरे
साहब ने पूरा पान मसाला मुँह के बाएँ तरफ़ दबा लिया था और फालतू थूक सड़क पर थूकते हुए
बोले, ‘अरे
भाई, इनके कुछ रिश्तेदार इसी शहर में हैं...। भाभी जी से नम्बर लेकर अभी फोन कर देता हूँ...। फिर
वे जाने, उनका काम...हम लोगों को क्या करना...?
मोहल्ले के नाते थोड़ी सी फ़ॉर्मेल्टी तो पूरी करनी ही है...बस्स...।’
वर्मा
जी के चेहरे पर ऊब साफ़ झलक आई थी, ‘आज इण्डिया वर्सेज इंग्लैण्ड का वन-डे मैच है...मैं ज़्यादा देर नहीं रुक पाऊँगा...। वैसे भी मुझे किसी
को मरा-वरा देख कर घबराहट होती है...।’
वर्मा
जी के जाते ही एक ज़ोर का ठहाका लगा,
‘भाभी जी मरी-वरी तब कहाँ भागेंगे-वागेंगे...? कौन सा मैच देखेंगे भई...?’
‘अरे अपने देश में मैच की कमी है क्या भाई...? पैसा फेंको,
तमाशा देखो...खेल समझ में आए चाहे न आए,
पर देखो ज़रूर...।’
हल्के
ठहाके से दूर खरे साहब केशव बाबू के रिश्तेदारों को फोन कर रहे थे, साथ ही हिदायत भी देते जा रहे थे, ‘ज़रा जल्दी आने की कोशिश करिएगा...। केशव बाबू की डेड
बॉडी की बड़ी बुरी गत है...। ज़्यादा देर रखना ठीक नहीं...’
खरे
साहब जब तक फोन करने में व्यस्त रहे,
उतनी देर में रमा देवी ने स्टोर रूम और अलमारि वाले कमरे मेम ताला डाल
दिया। अभी सब भड़भड़ा कर आ जाएँगे तो वे क्या करेंगी...? अकेली
औरत ज़ात...भीड़ में किसी ने कुछ पार कर दिया तो...?
रमा
देवी को पहली बार अहसास हुआ कि ढेर सारे रिश्तेदार होने के बावजूद वह कितनी अकेली हैं...। केशव बाबू भले ही कुछ न करते रहे हों पर
उनके कारण किसी और के होने व बोलने-बतियाने से घर के भरा होने
का एक भ्रम तो था, पर अब तो वह भी टूट गया...।
रमा
देवी कि जितना केशव बाबू के जाने का दुःख नहीं हो रहा था, उतना अकेलेपन का अहसास उन्हें तोड़ रहा था। वे
पल भर सकपकाई सी भीतर आती औरतों को देखती रही, फिर बुक्का फाड़
कर रो पड़ी।
उनके
रोने कि आवाज़ कमरे की दीवारों को भेदती हुई बाहर गेट तक जा रही थी, पर वहाँ इक्का-दुक्का
को छोड़ कर बाकी सब सतक लिए थे। किसी को ऑफ़िस जाना था तो किसी को वन-डे मैच देखने...। कौन इस फ़ज़ीहत में पड़े...रमा देवी के रिश्तेदार जानें...। जीते-जी जब कोई वास्ता नहीं रहा तो अब मरने के बाद क्या...?
गेट
के बाहर और कमरे के भीतर भीषण बदबू के साथ एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया था। रमा देवी
की चीख हल्की सुबकी में बदल गई थी और मोहल्ले की औरतें उन्हें समझा-बुझा कर एक-एक कर के बाहर
निकल गई थी...। कुछ इस तरह जैसे इस युग की पूरी संवेदना इंसान
की आत्मा से इंसानियत को भी घसीट कर ले गई थी और अब पत्थर और आदमी में कोई फ़र्क नहीं
रह गया था...।
रमा
देवी के भीतर भी जैसे कोई पत्थर गुस्से की सीमेण्ट से जम गया था। एकान्त पाकर उन्होंने
केशव बाबू की ओर देखा, ‘खुद
तो मर कर मुक्त हो गए...अपनी खड़ूसियत के कारण मुझे परेशानी में
डाल गए...। न खुद किसी से व्यवहार रखा, न मुझे रखने दिया...।’
कमरे
में बदबू की भीषणता बढ़ती जा रही थी। उससे परेशान होकर जो दो-चार लोग अभी आए थे, वे
भी बाहर खड़े हो गए। खुद रमा देवी भी बेचैन थी...जितनी जल्दी हो
सके इन्हें यहाँ से हटाया जाए...।
सहसा
उनके भीतर जैसे कोई चौंका हो...यह क्या सोच रही हैं वह...? अपने साज-श्रंगार के लिए दस-बारह साल से जिस आदमी का गू-मूत साफ़ करती रही...जिसके लिए रात-दिन रसोई में खटती रही और जिसके कारण अपनी अनगिनत रातों की नींद हराम की,
पर फिर भी उन्हें हमेशा साफ़-सुथरा रखा,
वह इस वक़्त...?
केशव
बाबू का पूरा शरीर सूज कर बुरी तरह फूल गया था...। गन्दगी के कारण शरिर पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगी थी और आँखों के गड्डों का
कीचड़ बाहर गालों तक इस तरह आ गया था जैसे किसी नाले का कीचड़ भरा पानी उफ़न कर बाहर आ
गया हो।
वे
ज़िन्दा होते तो एक मिनट भी इस तरह बर्दाश्त न करते। रमा देवी को अच्छी तरह याद है कि
एक दिन वे नहा रही थी कि तभी उन्हें प्रेशर आ गया। वे गुसलखाने से चिल्लाती रही कि ‘आ रही हूँ’, पर केशव बाबू
जो गुस्से में आ गए कि बड़ी देर मनाने के बाद ही माने...। रमा
देवी को उस ठण्ड में दुबारा नहाना पड़ा, सो अलग...। केशव बाबू की आँखें ही अन्धी नहीं हो गई थी, उनकी तो
सोच भी जैसे अन्धी हो गई थी...। बीमारी के दौरान उन्हें बस अपना
ही अपना दिखता था...। रमा देवी के सुख-दुःख
से न पहले उन्हें कोई सरोकार था और न बीमार पड़ने के बाद...।
कभी-कभी रमा देवी ही खिजला कर सोचती, इस ज़िन्दगी से तो अच्छा है कि या तो ये मर जाएँ या वे खुद...। आज ये मरे तो, पर पूरी गन्दगी लपेट कर...। एक जी चाहा रहा कि पोंछपाछ कर उन्हें साफ़ कपड़े पहना दें, पर...ज़िन्दा का तो किया जा सकता है, पर मरे का...छूने में भी भीतर से डर लगता है...।
रमा
देवी का दिमाग़ सुन्न होता कि दूर-पास के रिश्तेदारों की आवाजाही शुरू हो गई। उन्हें देख कर रमा देवी की रुलाई
फिर फूट पड़ी, ‘ऐ भाभीऽऽऽ, ऐ भैय्याऽऽऽ...हम तो बिल्कुल अकेले हो गए...। अब हम किसका मुँह देख
कर जिएँ...। हे भगवान! हमें भी इनके साथ
ही अपने पास बुला लो...। अरे ये तो हमारा पूरा श्रंगार ले गए...।’
‘भाभी, अपने को सम्हालो...अकेली
क्यों समझती हो अपने आप को...हम लोग हैं न...।’
केशव
बाबू के सगे छोटे भाई बद्री ने पूरे ग्यारह साल बाद उस घर में कदम रखा था। बेटी की
शादी में दो लाख के लिए ज़िद करके झगड़ क्या बैठा, केशव बाबू ने उसे लालची, कमीना, कुत्ता कह कर घर से ही नहीं, दिल से भी निकाल दिया,
‘सब साले मतलबी हैं...। अरे तुमने पैदा किया है
तो खर्चा भी तुम ही करो...। सब हरामज़ादों की निगाह हमारी जायदाद
पर है...। निपूते हुए तो क्या, हमारी अपनी
ज़िन्दगी नहीं है क्या...।’
रमा
देवी ज़्यादा पढ़ी-लिखी
नहीं थी, पर इस बात को अच्छी तरह समझती थी कि वक़्त-बेवक़्त के लिए समाज में बनाए रखना ज़रूरी होता है, फिर
चाहे वह खून का रिश्ता हो या न हो, पर इस बात को वह कभी केशव
बाबू को नहीं समझा पाई। उनके लिए तो कानून की मोटी-मोटी किताबें
ही सब कुछ थी। कचहरी से आते ही वह अपनी लायब्रेरी में घुस जाते, वहीं अपने क्लायण्ट के केस का अध्ययन करते, कुछ समझ न
आने पर किताबों को खंगालते और फिर दूसरे दिन के लिए चुस्त-दुरुस्त...। उनकी इस गहराई ने ही कभी उन्हें हारने नहीं दिया, पर
इस जीत के बीच भी वे कभी समझ ही नहीं पाए कि दुनियादारी को वह किस कदर हार गए हैं...। इस हार का अहसास जब उन्हें होगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी...। पर अब उन्हें क्या...?
अब
सब कुछ भुगतना तो रमा देवी को है...। सारी ज़िन्दगी तो उनके कारण भुगता ही, अब अन्तिम जून
और सही...।
उन्होंने
अपने देवर बद्री बाबू से हाथ जोड़ कर क्षमा माँगी, ‘लालाऽऽऽ...भैय्या तो अब गए। उनकी पिछली
बातों को दिल में न रखना। इस समय तुम्हारा ही सहारा है...आखिर
बड़े भाई थे तुम्हारे...।’
देवरानी
ने आगे बढ़ कर उन्हें गले से लगा लिया,
‘कैसी बात करती हैं दीदी...जेठ जी ने कुछ कह भी
दिया तो क्या हुआ? ज़रा-ज़रा सी बात पर खून
के रिश्ते टूटते हैं क्या...?’
देवी जोर से रो पड़ी, ‘खून के रिश्ते टूटते तो नहीं हैं पर कभी तुम लोगों ने ख़बर भी तो नहीं ली...।’
‘अरे भाभी...हम तो भैय्या के डर के मारे नहीं आते थे,
पर खोज-ख़बर पूरी रखते थे...। देखोऽऽऽ...ख़बर मिलते ही आए कि नहीं? और हाँ...फिर कहता हूँ। अपने को कभी अकेली मत समझना...। आज से बच्चे तुम्हारे हुए...समझीऽऽऽ...। अच्छा चलो, अब थोड़ा दिल कड़ा करो...आखिर भैय्या के क्रियाकर्म का भी तो इंतज़ाम करना है...’
बद्रीबाबू ने आँखों पर रुमाल रख तो लिया था, पर उनके कोनो पर एक अजीब सी चकाचौंध भर गई थी...एकदम निपूते रहे भैय्या, पर शानोशौकत तो देखो...। क्या नहीं है इस घर में...। मोटा बैंक-बैलेन्स...कीमती सामानों से सजा घर...संगमरमरी ज़मीन, खुशबू से भरी रसोई और किसी भी स्टार के बाथरूम-सा स्नानघर...। उनका मन ललचा गया...। कितना ज़िन्दा रहेगी यह बुढ़िया
...? सत्तर बरस की तो हो गई है...बहुत हुआ तो दो-चार साल और...। वे एकलौते भाई हैं...। बाकी पाँच बहनें तो दूर-दराज ब्याही हैं। उन्हें इनकी जायदाद से वैसे भी कुछ लेना-देना नहीं...। किसी तरह भाबी को पटा कर वसीयत अपने नाम करानी है...फिर...?सहसा
रमा देवी कुनमुनाई, ‘लालाजीऽऽऽ...क्या सोच रहे...?’
‘भाभी...क्या करूँ, कुछ समझ में
नहीं आ रहा है। बड़ी जिज्जी, छोटी...सभी
बहनों को ख़बर तो कर दी है, पर उन्हें आते-आते शाम हो जाएगी, फिर सब कोई आज ही आ पाए, ये भी कोई पक्का नहीं...। बम्बई, कलकत्ता, चंडीगढ़...सब कितने दूर-दूर हैं...और भैया की हालत ऐसी है कि बर्फ़ की सिल्ली
पर रखना भी अब मिट्टी की दुर्दशा करना ही है...।’
केशव
बाबू का मृत शरीर भी वाकई दुर्दशा की कगार पर ही था। इस समय उन्हें देख कर कोई अन्दाजा
भी नहीं लगा सकता था कि बीमारी के दौरान भी वे कितने साफ़-सुथरे रहते थे। तीन-चार
बार तो कपड़ा ही बदलते थे...और इसमें सारी मेहनत रमा देवी की होती
थी। जितनी बार उन्हें प्रेशर आता, उतनी बार उनकी चादर,
धोती, कुर्ता, तौलिया...सब बदल जाता। एक धोबी लगा था जो बिना मुँह बनाए उनके गन्दे कपदए भी साफ़ तो
कर देता था, पर पैसे दुगुने वसूलता था। रमा देवी की उम्र भी ढलान
पर थी। घर की साफ़-सफ़ाई, बर्तन महरी कर जाती
और कपड़े का काम धोबी निपटा देता...। वे तो रसोई और केशव बाबू
की सेवा से ही इतना निढाल हो जाती कि कभी-कभी तो उठने-बैठने की ताकत भी नहीं बचती, पर क्या करती...?
उस
शहर में रहने वाले अधिकतर रिश्तेदार आ गए थे। बाहर का दालान कानाफूसी से भरा हुआ था।
बीच-बीच में सिर्फ़ रमा देवी की सुबकन थी। बाकी सब
एकदम तटस्थ और व्यस्त...कुछ इस तरह जैसे केशव बाबू के जाने पर
घर की सारी जिम्मेदारी उन्हीं पर तो आ गई है। यद्यपि ऐसे मौकों पर खाने के लिए कुछ
लाने का रिवाज था, पर यहाँ तो जितने भी आए थे, सब के हाथ खाली थे।
सब
के साथ रमा देवी भी अपनी ननदों को जानती थी। भाई के ज़िन्दा रहते, उनके इतना बीमार रहते जब कभी कोई नहीं आई तो
अब क्या आएँगी। जिसका अन्देशा था, वही हुआ। बारी-बारी से सभी के फोन आ गए, रुँधी हुई आवाज़ के साथ,
‘ऐ भाभीऽऽऽ, ये क्या हो गया...? भैय्या इस तरह अचानक चले गए...। अब हम कैसे देखेंगे उन्हें...?
क्या करें भाभी, घर-गृहस्थी
के कारण तो निकलना दूभर हो गया है...और फिर अम्मा-बाबू भी तो हम को इतनी दूर ब्याह दिए...। चाहे भी तो
जल्दी एक-दूसरे का मुँह नहीं देख सकते...। भाभी, सब्र करो...अब तो सब तुम्हीं
को सम्हालना है...। यही सोच कर सन्तोष कर लो कि भैय्या अपना पूरा
जीवन तो जी लिए...।’
‘पर बहिन जी, आखिरी बखत भाई का मुँह तो देख लो...। प्लेन से जल्दी आ जाओगी...। किसी तरह आ जाओ...उनकी आत्मा को सन्तोष तो होगा...।’
‘भाभीऽऽऽ, चाहें तो भी नहीं आ पाएँगे...। गुड्डू की अगले हफ़्ते शादी है...सारी तैयारी धरी रह
जाएगी...और फिर रेनू के भी तो ऑपरेशन से बेटा हुआ है,
उसकी देखभाल भी तो मेरे जिम्मे है...। क्या करें
भाभी, दुःखी मत होना...। हम सब तुम्हारे
साथ हैं...। वैसे बद्री भैया तो वहीं हैं न...?’
अचानक
फोन कट गया और साथ में रमा देवी की आस भी...। उन्हें केशव बाबू पर बहुत गुस्सा आया। खुद तो मर गए, साथ में उन्हें भी मार ही गए...। आज अगर सब से बना कर
रखते...लेना-देना, तीज-त्योहार करते रहते तो शायद उसी की लालच में सब जुड़े
तो होते...पर नहीं...उनकी तो बस एक ही ज़िद
थी,"हमारी कोई सन्तान नहीं है न, इसी
से सब सालों के मुँह से लार टपकती है...। लावारिस मर जाऊँगा पर
इन्हें एक फूटी कौड़ी भी नहीं दूँगा..." और अब ये तो मर गए
न...खुद लावारिस कहाँ मरे? वे तो हैं उनका
करने के लिए, पर उनका कौन करेगा...?
‘भाभीऽऽऽ, दस हजार देना...सामान
लाना है...। पता नहीं कितना खर्चा हो...आखिर में हिसाब दे दूँगा...।’
रमा
देवी दस हजार सुन कर चौंकी तो ज़रूर,
पर मजबूर थी। ज़रा भी ना-नुकुर करती तो ये भी हाथ
धर कर बैठ जाते। उन्होंने चुपचाप अलमारी से दस हजार निकाल कर बद्री बाबू के हाथ में
थमा दिए।
बद्री
बाबू रुपया हाथ में आते ही इस तरह व्यस्त हो उठे जैसे शुरू से सारी जिम्मेदारी वही
तो उठाते आ रहे हैं। उनकी पत्नी की आँखों में भी एक अजीब-सी चमक उभर आई, ‘भाभीऽऽऽ...ये भी बस भोले के भोले ही रहे...। अरे, आजकल भला दस हजार में कुछ होता है...? इत्ते से तो बस
जेठ जी का ही सामान आ पाएगा, बाकी...? दान-दक्षिणा...पंडित...लकड़ी कितनी तो
मँहगी हो गई है...। आप ऐसा कीजिए, दस-पन्द्रह हजार इन्हें और दे दीजिए...। क्रिया-कर्म के बाद हिसाब-किताब तो हो ही जाएगा...।’
हिसाब-किताब की बात रमा देवी अच्छी तरह समझती थी। पहले
भी ये लोग किसी-न-किसी काम के बहाने रुपया
झटकते रहते थे। आखिर में जब लम्बी रकम के लिए मुँह बाया तभी केशव बाबू ने उन्हें दुत्कारा।
बद्री केशव बाबू से बहुत छोते हैं। इन्हें हमेशा केशव बाबू ने बेटे की तरह चाहा,
पर ये...?
आज
अपनी सन्तान होती तो क्या दुःख के समय इस तरह हिसाब-किताब की बात करती? अरे, इस घड़ी तो पराए भी खर्च करने से नहीं चूकते, हिसाब तो
बाद की बात होती है, पर...।
पहली
बार उन्होंने निःसन्तान होने का दुःख पूरी शिद्दत से महसूस किया और जोर से बिलख पड़ी, ‘रुपए की कोई बात नहीं लाला जी...बस किसी तरह इनका क्रिया-कर्म अच्छी तरह से निपटा दीजिए...।’
‘अरे भाभी...कैसी बात करती हैं...। आपका और भैय्या का हम नहीं करेंगे तो और कौन करेंगे...?’
पन्द्रह
हज़ार भाभी के हाथों से लेते उनकी आँखों की चमक दुगुनी हो गई।
घर
दूर और पास के रिश्तेदारों से भर गया था,
पर जिसका था वह एकदम अकेला था। गन्दगी के कारण बदबू इतनी भीषण थी कि
दूसरों की कौन कहे, रमा देवी खुद भी बहाने से थोड़ी दूर बैठ गई
थी।
बद्री
बाबू को गए काफ़ी देर हो गई थी। रिश्तेदारों के चेहरे की ऊब भी आवरण से बाहर आ गई, ‘दीदीऽऽऽ,बड़ी देर हो गई
है...। रात पता नहीं कितने बजे मौत हुई और इस समय एक बजने जा
रहा है...। शुगर के कारण जीजा का शरीर भी कैसा फूल गया है...। क्या करना है, कुछ सोचा है...?’
‘भैया, हमें तो कुछ पता नहीं। जब तक लाला जी आएँ तब तक
तुम लोग ही इन्हें नहलाने का इन्तज़ाम कर दो...बड़ी मेहरबानी होगी...। सारी ज़िन्दगी साफ़-सुथरे रहे, अब इस आखिरी बखत कैसे इस गन्दगी के साथ विदा करूँ...?’
चचेरा
भाई सोच में पड़ गया। पूरा शरीर गन्दगी से इस कदर सना पड़ा था कि इन्हें छूने या नहलाने
की कौन कहे, कोई पास जाने को
भी तैयार नहीं था...फिर...?
‘दीदीऽऽऽ...जानती हो, जीजा को इस
हालत में कोई नहीं नहलाएगा...। तुम कहो तो किसी जमादार को देखूँ...?’
रमा
देवी खुद दुविधा में थी। ज़िन्दा और मरे आदमी में बहुत फ़र्क होता है...। ज़िन्दा थे तो नहाने-धोने से लेकर कपड़ा-चद्दर बदलने में खुद भी इधर-उधर हट-बढ़ कर किसी तरह सहयोग तो कर देते थे, पर अब...?
एकदम
बेजान पड़े शरीर को वह कैसे साफ़-सुथरा करें...? घिन के मारे भीतर से खुद उनका भी बुरा
हाल था। भाई की बात पर वह पल भर चुप्पी साधे रही, फिर धीरे से
फुसफुसाई, ‘रहने दो, तुम इस पचड़े में मत
पड़ो...। जमादार के आने पर जो जगहँसाई होगी, सो तो अलग बात है, पर किसी मुर्दे की साफ़-सफ़ाई के लिए शायद कोई जमादार भी तैयार नहीं होगा...।’
वह
फिर सुबक पड़ी, ‘ज़िन्दा थे तब तो
साफ़-सफ़ाई के लिए कोई मिला नहीं, अब क्या
मिलेगा...? अब तो लाला जी जो समझें, करें...।’
तब
तक सारे साजो-सामान के साथ बद्री
बाबू आ गए थे। बाहर मर्द लोग अर्थी तैयार करने में जुट गए। बाँस सस्ता था तो क्या हुआ...अर्थी तो सही तरीके से तैयार हो गई...। कपड़ा झीना था,
पर क़फ़न तो था...। गेंदे की आठ-दस मालाएँ भी थी। जो डालना चाहे, डाल सकता है।
बद्री
बाबू के सामने भी सफ़ाई की समस्या पेश की गई,
पर वे तटस्थ रहे, ‘भाभी, आप परेशान न हों...मैं समझ
लूँगा...।’
आगे
बोलने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अपने छत्ते से जैसे ढेर सारी मधुमक्खियाँ बाहर आ
गै हों, वैसे ही बन-भन की आवाज़
का शोर गेट के बाहर की सड़क को मनसायन कर रहा था...।
बद्री
बाबू ने इत्र की पूरी शीशी को गंगाजल में घोल कर केशव बाबू के पूरे बदन पर छिड़क दिया
था। उसकी खुशबू के बीच बदबू की भीषणता थम-सी गई थी। बदबू कम होते ही कुछ लोग कमरे के भीतर आ गए और फिर एक चादर से केशव
बाबू का पूरा शरीर ढाँक दिया गया।
ऊपर
और नीचे की चादर में उनका भारी शरीर लपेट कर उठाया गया और फिर हाँफते हुए लोगों ने
आँगन में रखी अर्थी पर उसे रख दिया...। बद्री बाबू ने उनके ऊपर जैसे ही सफ़ेद क़फ़न डाल कर रस्सी से उनके शरीर को बाँधा,
लोगों ने ‘राम नाम सत्य’ की उद्घोषणा के साथ गेंदे की माला को अर्थी पर इस तरह फेंका, जैसे केशव बाबू की आराधना कर रहे हों...। इस दौरान कुछ
लोगों ने रस्म-अदायगी के तौर पर आँखों पर रुमाल रख लिया था,
तो कुछ लोग वास्तव में उनकी यह दुर्दशा देख कर रो पडे थे, ‘भगवान किसी को ऐसा दिन न दिखाए...।’
‘अरे इसी दिन के लिए तो इन्सान सब से बना कर चलता है...।’
‘कुछ नहीं होया भइयाऽऽऽ...बना कर
चलते भी तो क्या आप इस गन्दगी को साफ़ कर पाते...?’
प्रश्न
सुनते ही कहने वाला पीछे खिसक गया,
‘भाड़ में जाएँ सब...औलाद बराबर सगा भाई जब कुछ
नहीं कर रहा तो हमें क्या...?’
आसपास
खुश्बू-बदबू के साथ तरह-तरह की
बातें भी फैल रही थी पर उसस्र तटस्थ रमा देवी एकदम जड़-सी बैठी
थी अर्थी के पास...। उन्हें लगा जैसे भीतर का सारा पानी एकबारगी
ही सूख गया है...। दस बरस रोने के लिए बहुत होता है, अब चाहें बी तो...।
‘राम नाम सत्य है...सत् बोलो गत है...।’ उनका श्रंगार
ख़त्म हो गया...। अर्थी तेज़ी से बाहर चली गई...। नौकरानी ने केशव बाबू का सामान बाहर मैदान में डाल दिया और फिर पानी डाल
कर पूरा घर साफ़ करने में जुट गई, पर रमा देवी ज्यों-की-त्यों बैठी रही एक अजीब अहसास के साथ...।
शादी
के करीब दो बरस बाद केशव बाबू उन्हें दिल्ली ले गए थे। चाँदनी चौक, कुतुबमीनार, लाल किला,
वहाँ के बाज़ार, म्यूज़ियम के साथ मछलीघर भी दिखाने
ले गए थे।
बड़े-बड़े शीशे के बक्से में इतनी तरह-तरह की मछलियाँ तैर रही थी कि वे हैरत में पड़ गई थी। कुछ मछलियाँ उस बक्से
में पानी के एकदम नीचे बने नकली फूलों, चट्टानों के बीच बची ज़मीन
पर जैसे पल भर को ठहर-सी गई थी।
केशव
बाबू ने हँस कर कहा था, ‘ये
तैरते-तैरते जब थक जाती हैं तो नीचे तलहटी में पल-दो-पल आराम करके एक नई ऊर्जा प्राप्त करती हैं...आगे की ज़िन्दगी के लिए...।’
सहसा
रमा देवी को लग्गा कि वे भी एक मछली हैं...एक ऐसी बड़ी-सी मछली जो घर रूपी बक्से में इधर से उधर
बस तैरती ही रही हैं पर अब...एकदम इतना ज़्यादा थक गई हैं कि...।
घाट
से लोग अपने-अपने घर को लौट गए
थे। खुद बद्री बाबू व उनकी पत्नी भी चले गए थे, तेरहवीं से पहले
आने की बात कह कर...। घर एकदम खाली हो गया था, पर पता नहीं क्यों, रमा देवी को किसी बात से फ़र्क नहीं
पड़ा...। वे आज उस सुख का भरपूर अहसास करना चाहती थी जो उस मछली
ने उस शीशे के बक्से की तलहटी में पल भर ठहरते वक़्त किया था...।
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2 comments:
संवेदनशील कहानी। दृश्य को उपस्थित कर दिया है। समाज के बंधन, व्यक्तियों का स्वार्थ सब कैसे घेरे रहते हैं कि कितनी घुटन लिए जीना पड़ता है। बधाई।
मार्मिक अभिव्यक्ति।रिश्ते नातों से जुड़े द्वंद्वात्मक मनोभावों का सजीव चित्रण
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