1.उजड़े वनों की
हरियाली लौट
सकती है
- भारत डोगरा
हमारे देश में बहुत से वन बुरी तरह उजड़ चुके हैं। बहुत-सा भूमि क्षेत्र ऐसा है जो कहने को तो वन-भूमि के रूप में वर्गीकृत है,
पर वहाँ वन नाम
मात्र को ही है। यह एक चुनौती है कि इसे हरा-भरा वन क्षेत्र कैसे बनाया जाए। दूसरी चुनौती यह है कि ऐसे
वन क्षेत्र के पास रहने वाले गाँववासियों, विशेषकर आदिवासियों,
की आर्थिक स्थिति
को टिकाऊ तौर पर सुधारना है। इन दोनों चुनौतियों को एक-दूसरे से जोड़कर विकास कार्यक्रम बनाए जाएँ, तो बड़ी सफलता मिल सकती है।
ऐसी किसी परियोजना का मूल आधार यह सोच है कि क्षतिग्रस्त वन क्षेत्रों को हरा-भरा करने का काम स्थानीय वनवासियों-आदिवासियों के सहयोग से ही हो सकता है।
सहयोग को प्राप्त करने का सबसे सार्थक उपाय यह है कि आदिवासियों को ऐसे वन क्षेत्र
से दीर्घकालीन स्तर पर लघु वनोपज प्राप्त हो। वनवासी उजड़ रहे वन को नया जीवन देने
की भूमिका निभाएँ और इस हरे-भरे हो रहे वन से
ही उनकी टिकाऊ आजीविका सुनिश्चित हो।
आदिवासियों को टिकाऊ आजीविका का सबसे पुख्ता आधार वनों में ही मिल सकता है
क्योंकि वनों का आदिवासियों से सदा बहुत नज़दीक का रिश्ता रहा है। कृषि भूमि पर
उनकी हकदारी व भूमि-सुधार सुनिश्चित
करना ज़रूरी है, पर वनों का उनके जीवन व आजीविका में
विशेष महत्त्व है।
प्रस्तावित कार्यक्रम का भी व्यावहारिक रूप यही है कि किसी निर्धारित वन
क्षेत्र में पत्थरों की घेराबंदी करने के लिए व उसमें वन व मिट्टी -संरक्षण कार्य के लिए आदिवासियों को मज़दूरी दी जाएगी। साथ
ही वे रक्षा-निगरानी के लिए
अपना सहयोग भी उपलब्ध करवाएँगे। जल संरक्षण व वाटरहारवेस्टिंग से नमी बढ़ेगी व
हरियाली भी। साथ-साथ कुछ नए पौधों
से तो शीघ्र आय मिलेगी पर कई वृक्षों से लघु वनोपज वर्षों बाद ही मिल पाएगी।
अतरू यह बहुत ज़रूरी है कि आदिवासियों के वन अधिकारों को मज़बूत कानूनी आधार
दिया जाएँ। अन्यथा वे मेहनत कर पेड़ लगाएँगे और फल कोई और खाएगा या बेचेगा। आदिवासी
समुदाय के लोग इतनी बार ठगे गए हैं कि अब उन्हें आसानी से विश्वास नहीं होता है।
अतः उन्हें लघु वन उपज प्राप्त करने के पूर्ण अधिकार दिए जाए। ये अधिकार अगली पीढ़ी
को विरासत में भी मिलनी चाहिए। जब तक वे वन की रक्षा करेंगे तब तक उनके ये अधिकार
जारी रहने चाहिए। जब तक पेड़ बड़े नहीं हो जाते व उनमें पर्याप्त लघु वनोपज प्राप्त
नहीं होने लगती, तब तक विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत
उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती रहनी चाहिए ताकि वे वनों की रक्षा का कार्य
अभावग्रस्त हुए बिना कर सकें।
प्रोजेक्ट की सफलता के लिए स्थानीय व परंपरागत पेड़-पौधों की उन किस्मों को महत्त्व देना ज़रूरी है जिनसे
आदिवासी समुदाय को महुआ, गोंद, आँवला,
चिरौंजी,
शहद जैसी लघु
वनोपज मिलती रही है। औषधि पौधों से अच्छी आय प्राप्त हो सकती है। ऐसी परियोजना की
एक अन्य व्यापक संभावना रोज़गार गारंटी के संदर्भ में है। एक मुख्य मुद्दा यह है
कि रोज़गार गारंटी योजना केवल अल्पकालीन मज़दूरी देने तक सीमित न रहे अपितु यह
गाँवों में टिकाऊ विकास व आजीविका का आधार तैयार करे। प्रस्तावित टिकाऊ रोज़गार
कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत कई सार्थक
प्रयास संभव हैं। विकास
सबसे बड़ी चुनौती
अभी उपेक्षित है
यह दिन-प्रतिदिन स्पष्ट
होता जा रहा है इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि धरती की
जीवनदायिनी क्षमताएँ और विशेष परिस्थितियाँ, मानव-निर्मित कारणों से गंभीर खतरे में पड़ गई हैं।
यह एक बहुपक्षीय संकट है पर इसमें दो पक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं। पहला कि अनेक
पर्यावरणीय समस्याएँ सहनीय दायरे से बाहर जा रही हैं। इनमें सबसे प्रमुख जलवायु
बदलाव की समस्या है पर इससे कम या अधिक जुड़ी हुई अन्य गंभीर समस्याएँ भी हैं। इन
समस्याओं के साथ 'टिपिंगपॉइंट’
की अवधारणा जुड़ी
है: समस्याओं का एक
ऐसा स्तर जहाँ पहुँचकर उनमें अचानक बहुत तेज़ वृद्धि होती है और ये समस्याएँ
नियंत्रण से बाहर जा सकती हैं।
दूसरा पक्ष यह है कि धरती पर महाविनाशक हथियारों का बहुत बड़ा भंडार एकत्र हो
गया है। इनके उपयोग से धरती पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। इस समय
विश्व में लगभग 14,500 परमाणु हथियार
हैं जिनमें से 3750 हमले की पूरी
तैयारी के साथ तैनात हैं। यदि परमाणु हथियारों का बड़ा उपयोग एक बार भी हुआ तो
इसका असर केवल हमलास्थल पर ही नहीं बल्कि दूर-दूर होगा। उन देशों में भी होगा जहाँ परमाणु हथियार हैं ही
नहीं। हमले के स्थानों पर तुरंत दसियों लाख लोग बहुत दर्दनाक ढंग से मारे जाएँगे।
इसके दीर्घकालीन असर दुनिया के बड़े क्षेत्र में होंगे जिससे जीवनदायिनी क्षमताएँ
बुरी तरह क्षतिग्रस्त होंगी।
परमाणु हथियारों की दिक्कत यह है कि विपक्षी देशों में एक-दूसरे की मंशा को गलत समझ कर परमाणु
हथियार दागने की संभावना बढ़ती है। परमाणु हथियारों के उपयोग की संभावना को रोकने
वाली संधियों के नवीनीकरण की संभावनाएँ कम हो रही है।
इस समय नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं। निकट भविष्य में परमाणु हथियार
वाले देशों की संख्या बढ़ सकती है। संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस दोनों ने अपने
हथियारों की विध्वंसक क्षमता बढ़ाने के लिए हाल में बड़े निवेश किए हैं,
खासकर संयुक्त
राज्य अमेरिका ने।
इसके अतिरिक्त बहुत खतरनाक रासायनिक व जैविक हथियारों के उपयोग की संभावना भी
बनी हुई है। हालांकि इन दोनों हथियारों को प्रतिबंध करने वाले अंतर्राष्ट्रीय
समझौते हुए हैं, पर अनेक देश ज़रूरी जानकारी पारदर्शिता
से नहीं देते हैं व इन हथियारों के चोरी-छिपे उत्पादन की
अनेक संभावनाएँ हैं।
रोबोट हथियारों के विकास की तेज़ होड़ भी आरंभ हो चुकी है जो बहुत ही खतरनाक
सिद्ध हो सकते हैं। इसके बावजूद इनमें भारी निवेश अनेक देशों द्वारा हो रहा है,
विशेषकर संयुक्त
राज्य अमेरिका, रूस व चीन द्वारा।
आतंकवादी संगठनों के हाथ में यदि इनमें से किसी भी तरह के महाविनाशक हथियार आ
गए तो विश्व में विध्वंस की नई संभावनाएँ उत्पन्न होंगी।
इन खतरों को विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सबसे गंभीर खतरों
को दूर करने या न्यूनतम करने में अभी तक की प्रगति आशाजनक नहीं रही है। अविलंब
इन्हें विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता बनाकर इन खतरों को समाप्त करने या न्यूनतम
करने की असरदार कार्रवाई शीघ्र से शीघ्र होनी चाहिए। यह इक्कीसवीं सदी का सबसे
बड़ा सवाल है कि क्या समय रहते मानव सभ्यता इन सबसे बड़े संकटों के समाधान के लिए
समुचित कदम उठा सकेगी। इस सवाल को विश्व स्तर पर विमर्श के केंद्र में लाना ज़रूरी
है।
एक घड़ी जो
बड़े
संकट की सूचक है
विश्व में ‘कयामत की घड़ी’ अपने तरह की एक प्रतीकात्मक घड़ी है
जिसकी सुइयों की स्थिति के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि विश्व
किसी बहुत बड़े संकट की संभावना के कितने नज़दीक है।
इस घड़ी का संचालन बुलेटिन ऑफ एटॉमिकसाइंटिस्ट्स नामक वैज्ञानिक पत्रिका
द्वारा किया जाता है। इसके परामर्शदाताओं में 15 नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। ये सब मिलकर प्रति वर्ष तय
करते हैं कि इस वर्ष घड़ी की सुइयों को कहाँ रखा जाए।
इस घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर
बहुत बड़े संकट का पर्याय माना गया है। घड़ी की सुइयां रात के 12 बजे के जितने नज़दीक रखी जाएँगी, उतनी ही किसी बड़े संकट से धरती (व उसके लोगों व जीवों) की नज़दीकी की स्थिति मानी जाएगी।
साल 2018-19 में इन सुइयों को
(रात के) 12 बजने में 2 मिनट के वक्त पर
रखा गया है। संकट सूचक 12 बजे के समय से इन
सुइयों की इतनी नज़दीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में, यह घड़ी दर्शा रही है कि इस समय धरती किसी बहुत बड़े संकट के
इतने करीब कभी नहीं थी।
‘कयामत की घड़ी’ के वार्षिक प्रतिवेदन में इस स्थिति के
तीन कारण बताए गए हैं। पहली वजह यह है कि जलवायु बदलाव के लिए ज़िम्मेदार जिन ग्रीन
हाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2013-17 के दौरान ठहराव
आया था उनमें 2018 में फिर वृद्धि
दर्ज की गई है। जलवायु बदलाव नियंत्रित करने की संभावनाएँ धूमिल हुई हैं।
दूसरी वजह यह है कि परमाणु हथियार नियंत्रित करने के समझौते कमज़ोर हुए हैं।
मध्यम रेंज के परमाणु हथियार सम्बन्धी आईएनएफ समझौते का
नवीनीकरण नहीं हो सका है।
तीसरी वजह यह है कि सूचना तकनीक का बहुत दुरुपयोग हो रहा है जिसका सुरक्षा पर
भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
इन तीन कारणों के मिले-जुले असर से आज
विश्व बहुत बड़े संकट की संभावना के अत्यधिक नज़दीक आ गया है और इस संकट को कम करने
के लिए ज़रूरी कदम तुरंत उठाना ज़रूरी है। क्या ‘कयामत की घड़ी’ के इस अति
महत्वपूर्ण संदेश को विश्व नेतृत्व समय रहते समझेगा? (स्रोत फीचर्स)
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