सांसद से देश के प्रधानमंत्री तक
अटल बिहारी वाजपेयी का
जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्यप्रदेश के ग्वालियर में एक स्कूल टीचर के घर में हुआ था। प्रारंभिक
शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज और कानपुर के
डीएवी कॉलेज में हुई। उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर किया और
पत्रकारिता में अपना करियर शुरु किया। उन्होंने राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर
अर्जुन का संपादन किया।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने
के बाद वे राजनीति की दुनिया में उतरते चले गए थे। भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता
पार्टी और सांसद से देश के प्रधानमंत्री तक के सफ़र में अटल बिहारी बाजपेयी ने कई पड़ाव
तय किए हैं। अपने जीवन काल में उन्होंने न केवल एक बेहतरीन नेता, बल्कि एक अच्छे कवि के रूप में भी नाम कमाया और एक शानदार वक्ता के रूप में
लोगों के दिल जीते। भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी और सांसद से देश के
प्रधानमंत्री तक के सफर में अटल बिहारी वाजपेयी ने कई पड़ाव तय किए हैं।
जनसंघ और बीजेपी
1951 में वो भारतीय जनसंघ के संस्थापक
सदस्य थे। अपनी कुशल वक्तृत्व शैली से राजनीति के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने
रंग जमा दिया। वैसे लखनऊ में एक लोकसभा उप चुनाव में वे हार गए थे। 1957 में जनसंघ ने
उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वे चुनाव हार
गए, मथुरा में उनकी ज़मानत
ज़ब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वे दूसरी लोकसभा में पहुँचे। अगले पाँच
दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी।
1968 से 1973 तक वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे।
विपक्षी पार्टियों के अपने दूसरे साथियों की तरह उन्हें भी आपात्काल के दौरान जेल भेजा गया।
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अटल बिहारी बाजपेयी ने
तीन बार भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। पहली बार वे 1996 में
प्रधानमंत्री बने थे; लेकिन पूर्ण बहुमत के अभाव में उनकी
सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी। इसके बाद 1998 में उन्होंने सहयोगी दलों के साथ
मिलकर सरकार बनाई ,पर वह भी 13 महीनों से
ज्यादा नहीं चल सकी।
साल 1999 के आम चुनाव के
नतीजों के आधार पर अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और
पाँच वर्षों का अपना कार्यकाल पूरा किया था। इस तरह वे पहले ऐसे गैर कांग्रेसी
नेता बने जिसने प्रधानमंत्री के तौर पर पाँच वर्षों का कार्यकाल पूरा किया था।
नेहरू-गाँधी परिवार के प्रधानमंत्रियों के
बाद अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भारत के इतिहास में उन चुनिंदा नेताओं में शामिल
होगा, जिन्होंने सिर्फ़ अपने नाम, व्यक्तित्व और करिश्मे के बूते पर
सरकार बनाई।
पद्म विभूषण के अलावा देश
के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित अटल बिहारी वाजपेयी ने 2005 में चुनावी राजनीति से दूर होने की
घोषणा की थी। धीरे-धीरे वे सार्वजनिक जीवन से भी दूर होते चले गए थे. इसके बाद
उनका अधिकांश समय दिल्ली के कृष्ण मेनन मार्ग पर स्थित अपने सरकारी निवास पर बीता
था।
सांसद से प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी नौ
बार लोकसभा के लिए चुने गए। दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक। बीच में कुछ
लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही। ख़ासतौर से 1984 में जब वे ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों पराजित हो गए थे। 1962 से 1967 और 1986 में वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
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1998 के आमचुनावों में सहयोगी पार्टियों
के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर
प्रधानमंत्री बने। लेकिन एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद
उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए।
1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक
गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक
प्रमुख मुद्दा बनाया गया। गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर
प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली।
राष्ट्रीय नेता
अटल बिहारी के व्यक्तित्व
का प्रभाव ही था वो हारी हुई बाजी भी जीत लेते थे। वे जहाँ भी चुनावों के दौरान
जाते थे, वहाँ समर्थन का ग्राफ़ उनके भाषण के बाद बढ़ जाता था। उनकी बातों ने उन्हें
बनाया राष्ट्रीय नेता।
लोकसभा में चाहे अयोध्या का
मामला हो या फिर अविश्वास प्रस्ताव का मामला, पूरा संसद उन्हें ध्यान से सुनता था।
विपक्षी सांसद उन्हें इसलिए भी सुनते थे; क्योंकि वो
भारतीय जनता पार्टी के होते हुए भी कई बार ऐसी बात भी करते थे, जो राष्ट्रहित में होती थी और पार्टी लाइन से बाहर होती थी। यही कारण है कि
उन्हें किसी ख़ास पार्टी का नेता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नेता माना जाता था।
अयोध्या मामले के बाद अटल
बिहारी बाजपेयी ने लोकसभा में जो भाषण दिया, वह शायद अटल बिहारी बाजपेयी ही दे सकते
थे। उन्होंने कहा था कि जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को ढहाने में हिस्सा लिया है, उन्हें सामने आना चाहिए और ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। ये एक ऐसी बात थी, जो भाजपा का दूसरा नेता नहीं कह पाता और इस बात को उन्होंने दबी जबान से नहीं
कहा था।
शब्दों के बाण
वे लोकसभा में अपने
भाषणों में कई बार ऐसे शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसे दूसरे समझ नहीं पाते थे।
एक बार सीपीआई के कुछ
नेता लोकसभा में उनका विरोध कर रहे थे। बोलने के दौरान वे उन्हें टोक रहे थे, तो उन्होंने कहा
कि जो मित्र हमारे भाषण के दौरान टोक रहे हैं वो शाखामृग की भूमिका में हैं।
अब शाखामृग का मतलब किसी
को समझ नहीं आया। थोड़ी देर बाद प्रकाश वीर शास्त्री ने बताया कि शाखामृग का मतलब
होता है बंदर। इसके बाद विपक्षी भड़क गए।
उनके भाषण का विषय कितना
भी नीरस होता था, वे उन्हें रोचक बना देते थे और हँसते-हँसाते लोगों को समझा देते थे।
विषय अगर पेचीदा होता तो
वे मुहावरों और कहावतों के ज़रिए उसे सरल बना देते थे कि सुनने वाले को भी लगता था
कि वे कोई नई बात कह रहे हैं।
संसद में पहला भाषण और उसकी छाप
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जब उन्होंने पहली बार
बाजपेयी का भाषण सुना, वे काफ़ी प्रभावित हुए। यह सब जानते हैं कि पंडित नेहरू ने उन्हें देश का भावी
प्रधानमंत्री बताया था। बतौर सांसद उन्होंने दो बातों पर ज़ोर दिया था। पहला वे संसद में संसदीय मर्यादाओं का पालन करते हुए बोलते थे।
दूसरा -आचरण। यही कारण है कि उनके राजनीति काल में कभी कोई ऐसा
मौका नहीं आया कि उनके बातों पर किसी ने आपत्ति जताई हो या हंगामा हुआ हो।
समकालीन नेताओं में उनका स्थान
समकालीन नेताओं में बतौर
वक्ता वे अलग स्थान रखते थे। तब जनसंघ में कुछ बेहतरीन वक्ता थे, जैसे जगन्नाथ राव
जोशी, प्रकाश वीर शास्त्री। लेकिन जनता को मोह लेने की कला तो अटल बिहारी बाजपेयी के
पास ही थी।
1980 में जब भाजपा का पहला राष्ट्रीय
अधिवेशन मुंबई में हो रहा था और मंच पर एमसी छागला थे। उन्होंने अधिवेशन के बाद दो
बातें कहीं। पहला कि वो भाजपा में कांग्रेस का विकल्प देख रहे हैं और दूसरा कि अटल
बिहारी बाजपेयी में प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएँ।
वे सार्वजनिक जीवन में
खुले हुए थे और उनका खुलापन उनके भाषणों में दिखता था।
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