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Sep 9, 2018

प्रखर वक्ता



लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे
बाजपेयी जी का भाषण

अटल बिहारी बाजपेयी एक प्रखर वक्ता थे और अपनी वाक्पटुता के लिए जाने जाते थे। वे जब भाषण देते थे तो लोग मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। जनसभाओं में सिर्फ उनकी आवाज गूँजती रहती थी।  
हिन्दी के प्रति उनका अनुराग देखते ही बनता था। देश के अंदर या देश से बाहर वे हमेशा हिन्दी की महत्ता को सबसे ऊपर रखा करते थे। निज भाषा उन्नति अहे के सूत्रवाक्य को उन्होंने अपनी जिंदगी में उतारा। वे कहा करते थे कि मातृभाषा में हम अपनी बात को इस तरह से रख सकते हैं कि वे न केवल दूसरों के दिमाग में अंकित हो जाती है बल्कि दिल में भी उतर जाती है। यही वजह है कि वे अपने सम्बोधनों के जरिए लोगों का दिल जीत लिया करते थे। जब खास लोगों से वो मिलते थे या सम्बोधित करते थे तो उस वक्त भी उनकी प्राथमिकता में हिन्दी ही रहती थी। कुछ ऐसा ही प्रसंग 1977 से जुड़ा हुआ है। जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री के रूप में उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाषण देने का मौका मिला। मंच पर जब पहला शब्द उनके मुख से वातावरण में गूंजा तो सब आश्चर्यचकित रह गए। यह वह अवसर था जब दुनिया के सबसे बड़े मंच पर हिन्दी अपनी धमक जता रही थी। स्वयं वाजपेयी जी ने अपने जीवन में सर्वाधिक प्रसन्नता का क्षण संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए अपने हिन्दी भाषण को बताया था। वाजपेयी का ये भाषण ऐतिहासिक था, संयुक्त राष्ट्र महासभा में ये पहली बार हुआ था कि किसी भारतीय ने हिन्दी में भाषण दिया था। आप भी पढि़ए 1977 में क्या थे अटल बिहारी बाजपेयी के वे शब्द-
संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी की गूँज
मैं भारत की जनता की ओर से राष्ट्रसंघ के लिए शुभकामनाओं का संदेश लाया हूँ। महासभा के इस पच्चीसवें अधिवेशन के अवसर पर मैं राष्ट्रसंघ में भारत की जड़ आस्था को पुन: व्यक्त करना चाहता हूँ। जनता सरकार को शासन की बागडोर सभाले केवल छह मास हुए हैं, फिर भी इतने कम समय में हमारी उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं। भारत में मूलभूत मानवाधिकार पुन: प्रतिष्ठित हो गए हैं। जिस भय और आतंक के वातावरण ने हमारे लोगों को घेर लिया था वह दूर हो गया है। ऐसे संवैधानिक कदम उठाए जा रहे हैं कि यह सुनिश्चित हो जाए कि लोकतंत्र और बुनियादी आजादी का अब फिर कभी हनन नहीं होगा।
अध्यक्ष महोदय, वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना बहुत पुरानी है। भारत में सदा से हमारा इस धारणा में विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है। अनेकानेक प्रयत्नों और कष्टों के बाद संयुक्त राष्ट्र के रूप में इस स्वप्न के अब साकार होने की संभावना है। यहाँ मैं राष्ट्रों की सत्ता और महत्ता के बारे में नहीं सोच रहा हूँ। आम आदमी की प्रतिष्ठा और प्रगति मेरे लिए कहीं अधिक महत्त्व रखती है।
अंतत: हमारी सफलताएँ और असफलताएँ केवल एक ही मापदंड से मापी जानी चाहिए, कि क्या हम पूरे मानव समाज, वस्तुत: हर नर- नारी और बालक के लिए न्याय और गरिमा की आश्वस्ति देने में प्रयत्नशील हैं। अफ्रीका में चुनौती स्पष्ट है।  प्रश्न ये है कि किसी जनता को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ रहने का पूर्ण अधिकार है या रंगभेद में विश्वास रखने वाला अल्पमत, किसी विशाल बहुमत पर हमेशा अन्याय और दमन करता रहेगा। नि:संदेह रंगभेद के सभी रूपों का जड़ से उन्मूलन होना चाहिए।
हाल में इजराइल ने वेस्ट बैंक को गाजा में नई बस्तियाँ बसाकर अधिकृत क्षेत्रों में जनसंख्या परिवर्तन करने का जो प्रयत्न किया है, संयुक्त राष्ट्र को उसे पूरी तरह अस्वीकार और रद्द कर देना चाहिए। यदि इन समस्याओं का संतोषजनक और शीघ्र ही समाधान नहीं होता ,तो इसके दुष्परिणाम इस क्षेत्र के बाहर भी फैल सकते हैं। यह अति आवश्यक है कि जेनेवा सम्मेलन का शीघ्र ही पुन: आयोजन किया जाए और उसमें पीएलओ को प्रतिनिधित्व दिया जाए। अध्यक्ष महोदय, भारत सभी देशों से मैत्री चाहता है और किसी पर प्रभुत्व स्थापित करना नहीं चाहता।
भारत न तो आणविक शस्त्र शक्ति है और ना बनना चाहता है। नई सरकार ने अपने असंदिग्ध शब्दों में इस बात की पुनर्घोषणा की है। हमारी कार्य सूची का एक सर्वस्पर्शी विषय जो आगामी अनेक वर्षों और दशकों में बना रहेगा वह है मानव का भविष्य। मैं भारत की ओर से इस महासभा को आश्वासन देना चाहता हूँ कि हम एक विश्व के आदर्शों की प्राप्ति और मानव के कल्याण तथा उसके गौरव के लिए त्याग और बलिदान की बेला में कभी पीछे नहीं रहेंगे।
जय जगत।  धन्यवाद।
परमाणु परीक्षण, कश्मीर, शिक्षा तथा प्रेस की आजादी
 पर दिए गए महत्त्वपूर्ण भाषणों के कुछ और अंश-
28 दिसंबर 2002- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्वर्ण जयंती समारोह के उद्घाटन अवसर पर- शिक्षा अपने सही अर्थों में स्वयं की खोज की प्रक्रिया है। यह अपनी प्रतिमा गऩे की कला है। यह व्यक्ति को विशिष्ट कौशलों या ज्ञान की किसी विशिष्ट शाखा में ज्यादा प्रशिक्षित नहीं करती, बल्कि उनके छुपे हुए बौद्धिक, कलात्मक और मानवीय क्षमताओं को निखारने में मदद करती है। शिक्षा की परीक्षा इससे है कि यह सीखने या सीखने की योग्यता विकसित करती है कि नहीं, इसका किसी विशेष सूचना को ग्रहण करने से लेना-देना नहीं है
1998 में परमाणु परीक्षण पर संसद में संबोधन- पोखरण- 2 कोई आत्मश्लाघा के लिए नहीं था, कोई पुरुषार्थ के प्रकटीकरण के लिए नहीं था। लेकिन हमारी नीति है, और मैं समझता हूँ कि देश की नीति है यह कि न्यूनतम अवरोध (डेटरेंट) होना चाहिए। वो विश्वसनीय भी होना चाहिए। इसलिए परीक्षण का फैसला किया गया।
मई 2003- संसद में- आप मित्र तो बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं।
23 जून 2003- पेकिंग यूनिवर्सिटी में- कोई इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि अच्छे पड़ोसियों के बीच सही मायने में भाईचारा कायम करने से पहले उन्हें अपनी बाड़ ठीक करने चाहिए।
1996 में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए- यदि मैं पार्टी तोड़ू और सत्ता में आने के लिए नए गठबंधन बनाऊं तो मैं उस सत्ता को छूना भी पसंद नहीं करूंगा।
जनवरी 2004- इस्लामाबाद स्थित दक्षेस शिखर सम्मेलन में दक्षिण एशिया पर बातचीत करते हुए - परस्पर संदेह और तुच्छ प्रतिद्वंदिताए हमें भयभीत करती रही हैं। नतीजतन, हमारे क्षेत्र को शांति का लाभ नहीं मिल सका है। इतिहास हमें याद दिला सकता है, हमारा मार्गदर्शन कर सकता है, हमें शिक्षित कर सकता है या चेतावनी दे सकता है....इसे हमें बेडिय़ों में नहीं जकऩा चाहिए। हमें अब समग्र दृष्टि से आगे देखना होगा।
31 जनवरी 2004- शांति एवं अहिंसा पर वैश्विक सम्मेलन के उद्घाटन अवसर पर प्रधानमंत्री का संबोधन- हमें भारत में विरासत के तौर पर एक महान सभ्यता मिली है, जिसका जीवन मंत्र शांति और भाईचारा रहा है। भारत अपने लंबे इतिहास में कभी आक्रांता राष्ट्र, औपनिवेशिक या वर्चस्ववादी नहीं रहा है। आधुनिक समय में हम अपने क्षेत्र एवं दुनिया भर में शांति, मित्रता एवं सहयोग में योगदान के अपने दायित्व के प्रति सजग हैं।
13 सितंबर 2003- दि हिन्दू अखबार की 125वीं वर्षगांठ पर - प्रेस की आजादी भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है। इसे संविधान द्वारा संरक्षण मिला है। यह हमारी लोकतांत्रिक संस्कृति से ज्यादा मौलिक तरीके से सुरक्षित है। यह राष्ट्रीय संस्कृति न केवल विचारों एवं अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करती है, बल्कि नजरियों की विविधता का भी पोषण किया है जो दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता।  
13 सितंबर 2003- दि हिन्दू अखबार की 125वीं वर्षगाठ पर - किसी के विश्वास को लेकर उसे उत्पीडि़त करना या इस बात पर जोर देना कि सभी को एक खास नजरिया स्वीकार करना ही चाहिए, यह हमारे मूल्यों के लिए अज्ञात है।     
23 अप्रैल 2003- जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर संसद में- बंदूक किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती, पर भाईचारा कर सकता है। यदि हम इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के तीन सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होकर आगे बढ़ें तो मुद्दे सुलझाए जा सकते हैं।
1996 में सरकार गिर जाने के बाद 
लोकसभा में दिया गया भाषण
हम भी अपने देश की सेवा कर रहे हैं। अगर हम देशभक्त नहीं होते, अगर हम नि:स्वार्थ भाव से राजनीति में अपना स्थान बनाने का प्रयास न करते और हमारे इस प्रयास के पीछे 40 साल की साधना है। यह कोई आकस्मिक जनादेश नहीं है, यह कोई चमत्कार नहीं हुआ है। हमने मेहनत की, हम लोगों में गए हैं, हमने संघर्ष किया है। यह 360 दिन चलने वाली पार्टी है, यह कोई चुनाव में खड़ी होने वाला पार्टी नहीं है और आज हमें अकारण कटघरे में खड़ा किया जा रहा है ; क्योंकि हम थोड़ी सी ज्यादा सीटें नहीं ले पाए। हम मानते हैं हमारी कमज़ोरी है। हमें बहुमत मिलना चाहिए था। राष्ट्रपति ने हमें अवसर दिया, हमने उसका लाभ उठाने की कोशिश कि लेकिन हमें सफलता नहीं मिली वह अलग बात है। लेकिन फिर भी हम सदन में सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में बैठेंगे और आपको हमारा सहयोग लेकर सदन चलना पड़ेगा, यह बात समझ लीजिये। लेकिन सदन चलाने में और ठीक से चलाने में हम आपको सहयोग देंगे यह आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकार आप कैसे बनाएँगे, वह सरकार कैसे चलेगी, वह मैं नहीं जनता। आप सारा देश चलाना चाहते हैं, बहुत अच्छी बात है, हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। हम देश की सेवा के कार्य में लगे रहेंगे। हम संख्या बल के सामने सर झुकाते हैं और आप को विश्वास दिलाते हैं कि जो कार्य हमने अपने हाथ में लिया है ,वह जबतक राष्ट्रीय उद्देश्य पूरा नहीं कर लेंगे ,तब तक विश्राम नहीं करेंगे, आराम से नहीं बैठेंगे। अध्यक्ष महोदय, मैं अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूँ।

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