अबूझमाड़ की
वह पद यात्रा
-गिरीश पंकज
ज़िंदगी भर न भूल पाने वाली सौ किलोमीटर की पद यात्रा है वो. 26 जनवरी से शुरू हुई और 30जनवरी को ख़त्म हुई. सन 2014 की बात है। बस्तर का अबूझमाड़, जहाँ आम लोग घुसने की हिम्मत नहीं करते। पुलिस को भी बड़ी तैयारी के साथ जाना पड़ता है। कई बार वो भी विफल हो जाती है। अबूझमाड़ हजारों एकड़ में फैला हुआ है। और अब तक उसे बूझने की कोशिश जारी है। वहीं छिप कर रहते हैं नक्सली। क्योंकि उनके लिए वह सुरक्षित जगह है। कहीं नाले है, कही गड्ढे हैं, कही चढ़ाई है। कोई बड़ी गाड़ी तो वहाँ जा ही नहीं सकती। मेरे सुझाव पर कांकेर के पत्रकार कमल शुक्ल ने कुछ पत्रकारों को राजी किया कि वे अबूझमाड़ के घने जंगल में जाकर नक्सलियों से बात करें कि आखिर वे निर्दोष लोगो की हत्याएँ क्यों कर रहे हैं? उस समय तक नक्सलियों ने दो पत्रकारों की हत्याएँ भी कर दी थीं। फेस बुक में जब कमल ने अबूझमाड़ जाने के लिए देश भर के पत्रकारों को निमंत्रित किया तो शुरू-शुरू में सौ से ज्यादा लोगों ने उत्साह दिखाया। पर जब जंगल में जाने का दिन आया तो बड़ी मुश्किल से पंद्रह लोग राजी हुए। पटना से आए एक युवा पत्रकार ने रात को मुझसे कहा-''पहले मैं जाने से डर रहा था, पर आपको देखा तो हिम्मत जागी. मैं भी चलूँगा आपके साथ''. मुझे खुशी हुई। लग रहा था, इन पत्रकारों में मैं ही सबसे बड़ा हूँ मगर नारायणपुर में हरी सिंह सिदार भी हमारे साथ शामिल हो गए, उनकी उम्र सत्तर पार कर गयी थी; वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं.सारे पत्रकारों ने उनका स्वागत किया। और बड़ा आश्चर्य यह रहा कि रास्ते में वे ही सबसे आगे नज़र आते थे। मैं चढ़ाई में थक जाता था, तो मेरे साथ दो-चार साथी रुक जाया करते थे, मगर सिदार जी सबसे आगे नज़र आते थे।
25 जनवरी 2014 की शाम सब नारायणपुर सीमा में रुके। पुलिस ने हमें रोका, और समझाया कि अंदर जाना खतरे से खाली नहीं, लेकिन हम लोग सर पर कफ़न बाँध कर आए थे। नक्सलियों से मिलेंगे और उनसे पूछेंगे कि पार्टनर, तुम ही बताओं कि तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है? 26 जनवरी की सुबह हम पैदल निकल पड़े अबूझमाड़ के जंगल में. अभी ने अपनी-अपनी पीठ पर अपने-अपने बैग लादे और बढ़ चले आगे। मुझे सुविधा मिल गई कि मेरा बैग किसी अन्य साथी ने उठा लिया। हमारे साथ बस्तर के ही दो-तीन सहयोगी थे। दो युवा आदिवासी ऐसे भी थे जो भीतर के रास्ते से भलीभाँति परिचित थे. उनके मार्ग दर्शन में हम आगे बढ़ते गए.हम सब घंटो पैदल चलते और शाम होने के पहले किसी गाँव में विश्राम करते। स्कूल हमारी शरणस्थली थे। कच्चे स्कूल. पक्के भवनो को नक्सलियों ने विस्फोट से उड़ा दिया था। उसकी जगह झोपड़ीनुमा घरों में स्कूल चल रहे थे। हम लोग वही रुक जाते। वहीं स्कूल के शिक्षक दाल- भात का इंतजाम सब्जी भी नहीं, बस दाल-भात और वही हमे पंचतारा जैसा स्वादिष्ट भोजन लगता।
हम लोगों की पदयात्रा की भनक फेसबुक आदि माध्यमों से नक्सलियों को लग चुकी थी। हमको ये संकेतभी मिल रहे थे कि आगे किसी गाँव में माओवादी हमसे मिलेंगे और बात करेंगे. यह भी पता चला कि वे कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी पेश कर सकते हैं, मगर वह दिन नहीं आया. पाँच दिन की हमारी यात्रा खत्म हो गई मगर अबूझमाड़ में छिप कर रहने वाले नक्सली हमसे नहीं मिले; तो नहीं मिले। हालाँकि हमारे अनेक मित्रों के मन में भय था कि कहीं नक्सली हमारा अपहरण न कर ले, एक ने कहा- ''कहीं दूर से ही हमे गोली मार दी तो?'' मैंने मुस्कराते हुए कहा- ''एक दिन तो सबको मरना है. यहाँ मरे तो शायद शहीद ही कहलाएँगे।'' लेकिन इसकी नौबत नहीं आयी। वैसे मैंने तो यह मान ही लिया था कि अब शायद वापसी संभव नहीं इसलिए मैंने अपनी समस्त जमापूँजी के बारे में एक जानकारी घर की डायरी में लिख दी थी. कुछ हो गया तो घर वालों को वे पैसे मिल जाएँ। लेकिन हम लोगोंने अबूझमाड़ की पाँच दिनों की यात्रा बिना किसी व्यवधान के पूर्ण कर ली।
पहली बार मैंने अबूझमाड़ की इतनी लम्बी यात्रा की. वहाँ मैंने नक्सलियों के कथित शहीदस्तम्भ देखे; जिन्हें तोड़ा न जा सका था। वहाँ हमने घोटुल देखा। यानी वह जगह जहाँ अविवाहित युवक-युवतियाँ मिलजुलकर रतजगा करते हैं और आनन्द मनाते हैं। अगर कोई युवा-युवती आपस में शादी कर लेते हैं, तो वे घोटुल में नहीं आते.घोटुल की संस्कृति आज भी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। हमे आगे जाना था, वरना हो सकता है, हम घोटुल को भी जीवंत देख पाते। पैदल चलते-चलते सभी थक जाते थे, पर मैं कुछ ज्यादा ही थक जाता था। एक दिन हम चलते रहे और शाम हो गयी, कोई गाँव ही नहीं मिला. साथ चल रहे आदिवासी युवको ने कहा,''बस थोड़ी दूर बाद एक गाँव पडेगा'' हम लोग थक चुके थे फिर भी रुके नहीं, क्योंकि गाँव पहुँचकर ही आराम करेंगे. रात घनी हो गयी थी। चारों तरफ भयावह सन्नाटा था। हमारे पास सर्च लाइट थी। उसके सहारे आगे बढ़ रहे थे। कहीं नाला पार करते, तो कहीं झाड़ियाँ हटाकर रास्ता बनाते। लेकिन गाँव का नामोनिशान नहीं था। हालत ये हुई कि मेरी हिम्मत ज़वाब दे गयी. मैंने कहा,'' भाई, अब यही रुक जाते हैं। अब चलना मुश्किल हो रहा है।'' मुझे देखकर कुछ और साथी भी जमीन पर ही बैठ गए; लेकिन इस बार फिर दोनों युवको ने कहा, ''अब कुछ ही देर बाद हम गाँव में होंगे।'' मुझमें हिम्मत तो नहीं थी, मगर उनके के कहने पर मैं खड़ा हो गया, बाकी साथी भी आगे बढ़े और आधे घंटे बाद दूर रौशनी नज़र आई. सब खुशी से झूम उठे की गाँव आ गया। गाँव क्या दो-चार घर थे बस। हम जहाँ पहुँचे, वो एक स्कूल ही था. झोपड़ी नुमा। ठण्ड का समय था, पर कई घंटो की पदयात्रा के कारण पूरा शरीर गर्म हो चुका था। इसलिए ठण्ड का अहसास ही नहीं हो रहा था। स्कूल में कुछ बच्चे पढ़ते थे, वे वही रहते भी थे; इसलिए वहा गद्दे-चादरो को व्यवस्था थी, दो-तीन खटिया भी नज़र आ गई. मैं चावल-दाल खाकर सीधे खटिया पर पसर गया। एक-दो घंटे बाद ठण्ड लगने लगी तो अपनी ऊनी चादर निकाल ली.जिसे जहाँ जगह मिली, वहीं चादर बिछा कर लेटगया। सुबह उठा तो मैं देख कर दंग रह गया कि जिस झोपड़ी में मैं सोया था, उसकी तो छत ही नहीं थी। गहरी थकान के कारण खुली छत से आने वाली ठण्ड का बिलकुल ही अहसास न हुआ।
चौथा दिन भी खत्म हो गया,मगर नक्सली नहीं मिले। हम निराश हुए। लगा अपना आना बेकार गया. लेकिन संतोष था कि उस अबूझमाड़ को हमने देखा ;जिसे देखने के लिए लोग तरसते हैं। वहाँ किसी को जाने की इज़ाज़त ही नहीं मिलती। हमने अबूझमाड़ के गाँव देखे, आदिवासी भाई-बहनो को देखा। वे लोग अपने खाने-पीने के सामान की व्यवस्था करने के लिए सौ-सौ किलोमीटर पैदल चलते हैं। घर से निकलते हैं और रात होने पर किसी गाँव में रुक जाते हैं। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी हमारा बस्तर-अबूझमाड़ इस हालत में है। खैर, मेरे जीवन का एक रोमांचक संस्मरण है अबूझमाड़ की पद यात्रा। बहुत-सी बाते हैं, विस्तार से बता पाना अब सम्भव नहीं क्योंकि पत्रिका की जगह सीमित है, और स्मृति की भी अपनी सीमा है। हम पत्रकार साथी 30 जनवरी को दोपहर इन्द्रावती नदी को पार कर बीजापुर पहुंचे, वहाँ हमारी यात्रा सम्पन्न हुई। लौटते वक्त मैं सोच रहा था, काश, नक्सली भाई मिल जाते, तो उनसे कुछ बात करते। हिंसा का रास्ता छोड़ने का निवेदन करते। मगर वे नहीं मिले। उन्हें सामने आना ही चाहिए, बात करना था। वे अपना पक्ष भी रखते, मगर वे नहीं आए.खैर, इसी बहाने हमने आदिवासी बंधुओं के जीवन को निकट से देखा.किन विषम परिस्थितियों में वे रह रहे है, इसे समझा. नक्सल समस्या का समाधान हो तो अबूझमाड़ को सड़कों से जोड़ा जाए। जंगल में जो गाँव बसे हैं, वहा अनाज की दुकाने खुले, ताकि वहाँ रहने वालों को सौ-सौ किलोमीटर पैदल न चलना पड़े। वहाँ से लौटने के बाद मेंने रायपुर सांध्य दैनिक तक यात्रा-वृत्तांत लिखा। संस्मरण लिखने के बाद फ़ौरन एक संस्मरण यह भी जुड़ गया कि उसे पढ़कर सबसे पहला फोन मुझे जो आया, वह था मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का, उन्होंने इस साहसिक यात्रा के लिए मेरी प्रशंसा की और बताया कि ''हमने भी कईबार अबूझमाड़ की यात्रा की कोशिश की थी, पर सफल न हो सके। क्योंकि नक्सलियों ने हमारे साथ चल रहे टॉवर दूर हमला करके नष्ट कर दिया था।'' उन्होंने मेरे विश्वास केसाथ अपने विश्वास को भी शामिल किया कि बहुत जल्दी नक्सल समस्या ख़त्म होगी।
लेखक परिचय: एम.ए (हिन्दी), पत्रकारिता (बी.जे.) में प्रावीण्य सूची में प्रथम, लोककला संगीत में डिप्लोमा, पैतीस सालों से साहित्य एवं पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय। पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012), 6 उपन्यास, 14 व्यंग्य संग्रह सहित 44 पुस्तकें। सम्प्रति- सद्भावना दर्पण (भारतीय एवं विश्व साहित्य की अनुवाद-पत्रिका का सम्पादन)
सम्पर्क: जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर-492001 छत्तीसगढ़,
2 comments:
बहुत ही साहसिक यात्रा का रोचक संस्मरण ।
dhanywad
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