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Apr 1, 2023

संस्मरणः वो सोलह दिन

 - निरुपमा सिंह

वो सोलह दिन जो आज भी यादों में ताजा हैं सुनहरी भोर की तरह। बहुत समय पूर्व की बात है, पिताजी की पोस्टिंग एक दूर दराज थाने में हुई थी जो कि शहर से कहने को तो दूरी अधिक नहीं थी परंतु उस स्थान को जाने वाला रास्ता बेहद खराब, ऊबड़ -खाबड़  बीहड़ जंगल से होकर गुजरता था। बेटी के जन्म के पश्चात सोचा कि अब वो दो माह की हो गई है चलो अब मायके ही घूम आऊँ, बहुत समय से कही घर के बाहर नहीं निकली हूँ। उसके दूसरे ही दिन हम दोनों पति-पत्नी गंतव्य की ओर बस में सवार होकर निकल पड़े। बदायूँ पहुँचते- पहुँचते ही साँझ ने पाँव पसार दिए। उस स्थान के लिए उस समय एक ही प्राइवेट बस चलती थी पहली और आखिरी भी। 

बहुत उत्साह था मन में माता-पिता से मिलने का। बहुत समय पश्चात बस के कुछ दूर जाने के पश्चात बस की लाइटें बुझा दी गईं। वह बीहड़ जंगल था जहाँ से बस होकर गुजर रही थी। उस पर कंडक्टर का बताने का अंदाज ऐसा की मानों अभी डाकू आएँगे घोड़ों  पर सवार होकर, और हमला बोल देंगे। मैंने अपनी दो माह की बेटी को सीने से चिपका लिया और मन ही मन अपने ईष्ट को याद करने लगी। तीस किलोमीटर का रास्ता मानों तीन सौ किलोमीटर लम्बा हो गया हो। पूरे चार घंटे लगे हमें अपनी मंजिल तक पहुँचने  में। बहुत थकान भरा सफर था और रोमांचकारी भी। प्रथम अनुभव था जो कि बहुत डरावना भी था। 

जब हम अपनी मंजिल पर पहुँचे  तो मानों सारी थकान भूल चुके थे। मेरी माँ  की देख -रेख  में बढ़िया पकवान बनवाए गए थे, सो दिनभर के भूखे पेट की प्राथमिकता भोजन ही थी। नींद भी पुरजोर आ रही थी। मैं बेटी को सीने से चिपका कर नींद के आगोश चली गई। अचानक से कानों में एक भयंकर गर्जना सुनाई पड़ी, मानों कोई हाथी चिंघाड़  रहा हो। माँ बोली, “कुछ नहीं है, सो जाओ।“ पर नींद तो कोसो दूर जा चुकी थी। भोर होने पर प्रतीत हुआ कि सूर्योदय का इतना विहंगम दृश्य तो शायद कभी देखा ही नहीं था। सीधे उठ कर मैं बरामदे में से होते हुए आँगन में गई जो कि बहुत वृहद आकार का था। उसमें खड़े दो आम्रवृक्ष और एक जामुन का विशाल पेड़ मन को बहुत लुभा रहे थे। जो किसी प्रकार की नाराजगी थी सरकारी सिस्टम पर सब पल भर में काफूर हो गई थी। कभी सपने में भी नहीं सोचा था जिस जगह के विषय में स्थानीय लोगों के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था, वो इतनी नैसर्गिक सुंदरता लिए होगी । कौतूहलवश मैने माँ से पूछा, “कि रात को वो गर्जना कैसी थी ?” तब उन्होंने कहा, “आँगन का पीछे वाला दरवाजा खोलो, स्वयं ही देख कर समझ जाओगी।“ दरवाजा खोलते ही जो दृश्य इन आँखों ने देखा उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। ठीक कुछ ही फासले की दूरी पर रामगंगा नदी, जो गंगा की तरह ही पूजनीय है, कल-कल बह रही थी। मैं  बेटी को माँ के पास छोड़ कर कुछ समय के लिए बिना नाश्ता किए ही आश्चर्यचकित सी रामगंगा के किनारे पड़े एक विशाल आकार के पत्थर पर बैठ गई और उसकी लहरों के वक्ष पर नृत्य करती सूर्य की किरणों को मंत्रमुग्ध होकर बहुत समय तक देखती रही। कुछ सीपियाँ-शंख एकत्र भी किए और जंगली फूलों के बीच से निकलने वाली पगडंडी से अनमनी सी घर आ गई। अनमनी इसलिए कि हम बस दो-चार दिनों के लिए ही आए थे और अब जाने का बिल्कुल मन नहीं था। 

शाम को चाय की चुस्कियाँ लेते अचानक एक ख्याल मन में आया कि यहाँ के लोग कैसे जीवन-यापन करते होंगे? मेरा अभिप्राय फल- सब्जी तथा अन्य रोजमर्रा की वस्तुओं से था। तभी एक बुजुर्ग ताजी सब्जियाँ तथा कुछ ताजे फल जैसे पपीता, अमरूद, शकरकंद आदि घर पर देने के लिए आए। मैनें शिष्टाचारवश उनको नमस्ते की। दूसरे ही पल वह बुजुर्ग मेरे पाँव छूने के लिए बढ़े।  मैंने झट से उनके कँपकँपाते हाथ थाम लिए, ''काका, आप ये क्या करने जा रहे थे?'' वो आँखों में आँसू भरकर बोले, ''बिटिया, हम्मार ईहां  बेटी दामाद के पांव छुए की रीत भई।'' मैं उनका वात्सल्य देख कर अभिभूत हो गई और सोचने लगी कितने सहज और सरल लोग हैं ये। मैं  बोली, “काका, कल हमें कहीं घूमाने ले चलो आस-पास।” काका बोले, “बिटिया कल नौका से पल्ली पार चलिहैं।” 

अगले दिन हम सुबह नाश्ता करके नौका-विहार पर निकल पड़े। मैं उन पलों में डूबी हुई थी कि नाव वाले भैय्या बताने लगे, “बिटिया यहाँ मछलियों की दुर्लभ प्रजातियाँ पाईं जाती हैं, बहुत सुंदर, छोटी-बड़ी सभी प्रकार की। 

साँझ होने को आई थी। भूख भी जोरों पर लगी थी। वहाँ से लौटते हुए बारिश भी शुरू हो गई थी। वे सुंदर पल स्थायी रूप से मन मस्तिष्क में बस चुके थे। मैं  सोच ही रही थी कि काश कुछ दिन और रुक जाते। वहाँ के लोगों की सादगी, तथा स्नेह देख कर मन भाव विभोर था। शुद्धता ही शुद्धता थी वहाँ की हर चीज में। फिर रात को पिताजी का कहना कि ‘बच्चों कुछ दिन और रुककर जाना’ ये आग्रह शायद भगवान ने भी सुन लिया था। रात को जम कर बारिश हुई तो सुबह पता चला जो बस जाती है, वह कुछ दिन के लिए बंद हो गई है। हम भी खुश थे। मौसम खुलने पर नदी किनारे बहुत देर तक घूमते रहते तथा रेत पर मनपसंद घरौंदे बनाते हुए कब सोलह दिन व्यतीत हो गए पता ही नहीं चला। वे सोलह दिन आज भी हृदय पर अपना आधिपत्य जमाएँ हुए हैं। ये यादें ही तो हैं, जो याद आतीं हैं।  

सम्पर्कः मोहल्ला महादेवपुरम, बिजनौर, 91407-45907



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