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May 3, 2021

कहानीः सुबह की चाय

    -गोविन्द उपाध्याय

विष्णु इस समय रसोई घर में थे। चूल्हे पर चाय खौल रही थी। पास में ही मोबाइल के यू -ट्यूब पर गाना बज रहा था – रात कली इक ख्वाब में आई और गले का हार बनी...। चाय बनाने का उनका सीधा सा हिसाब था -एक कप से थोड़ा कम दूध, एक कप पानी, थोड़ी सी अदरख और आधी चम्मच चाय की पत्ती। सात-आठ मिनट खौलने के बाद एक कप चाय तैयार हो जाती है। जाहिर है कि वह केवल दूध की चाय होती थी।  शुरू-शुरू में ज्यादा खौल जाती, तो एक कप से भी कम चाय तैयार होती थी। थोड़ी ज्यादा स्ट्रांग और कसैली... पूरे पन्द्रह दिन के अभ्यास के बाद, अब वे बढ़िया कड़क चाय बनाने में सिद्धहस्त हो गए थे।

इस समय सर्दी चरम पर थी। पाँच बजने ही वाले थे। उन्होंने सुबह का टहलना बंद कर दिया था। नौ बजे के बाद पूरी तैयारी के साथ आधे घंटे के लिए निकलते थे, तब तक कोहरा छट चुका होता था। यदि धूप निकल गई होती, तो तापमान भी थोड़ा- सा बढ़ जाता। तभी व्हाट्सएप पर नोटिफिकशन की आवाज आ। चौहान ही होगा, उसे उनकी चाय का इंतजार रहता है। हाँ! वही था। वे मैसेज पढ़ने लगे , अबे विष्णु !.. गुरू घंटाल!... क्या हुआ ? अभी तक तेरी चाय नहीं आ

चौहान उनका सबसे करीबी दोस्त था। कक्षा एक से बारहवीं तक साथ पढ़े थे। दोनों एक ही मोहल्ले में रहते थे और घर भी आस-पास था। बिलकुल अगल-बगल...। बस बीच में अस्सी फीट चौड़ी कोलतार की सड़क थी। चौहान के पिता अध्यापक थे और उसी विद्यालय में पढ़ाते थे, जिसमें वे दोनों पढ़ते थे। दसवीं में दोनों के गणित के अध्यापक भी वे ही थे। अंग्रेजी वाले मास्टर साहब ने विष्णु का नाम  गुरू घंटाल रख दिया था। इस नामकरण के पीछे का कारण अब उन्हें याद नहीं है। चौहान को छोडकर सब उन्हें गुरू बोलते थे। पर चौहान को जब ज्यादा आत्मीयता दिखाना होता ,तो उन्हें ‘गुरू घंटाल’ कहकर बुलाता था। चौहान नौकरी के सिलसिले में कई शहरों में घूमा था। दस साल अमेरिका में भी रह चुका था। चार महीने पहले ही सेवानिवृत्ति हुआ था। फिलहाल ग्रेटर नोएडा एक्सटेंशन में रह रहा था। विष्णु उससे कहते, भाई मैं तेरे से नहीं जीत सकता। तूने घाट-घाट का पानी पिया है। मेरी जिंदगी तो इस छोटे से शहर में ही कट गई।

विष्णु ने बर्तन की खौलती चाय को कप में उड़ेल उसकी फोटो खींचकर  व्हाट्सएप ग्रुप में लोड करते हुए लिखा– शुभ प्रभात मित्रो! । गरमागरम चाय के साथ मधुर संगीत का आनंद लें। उसके बाद रात कली ... वाला गाना भी लोड कर दिया।

वे किचन बंद करके बेडरूम में आ गए और चाय की चुस्कियाँ लेने लगें। उन्होंने यू ट्यूब पर नया गाना लगा दिया था- धीरे-धीरे चल...। चाँद गगन में ...। ग्रुप में कमेंट्स आने लगे थे। मानो उन सबको विष्णु की चाय का ही इंतजार था। किसी दिन चाय बनने में देर हो जाती ,तो चौहान से लेकर प्रदुमन तक सबके संदेश आने शुरू हो जाते, कहाँ हो विष्णु गुरू ...? अभी तक चाय नहीं मिली ...। मैसेज करो यार...। सब ठीक तो है ...।

यह व्हाट्सएप ग्रुप उनके सहपाठियों का था। जिनके साथ बचपन की देहरी लाँघ कर जवानी में कदम रखा था। जो अब उनकी ही तरह वरिष्ठ नागरिक हो चुके थे या बस होने वाले थे। यह ग्रुप पिछले दो सालों से चल रहा था, लेकिन विष्णु अभी दो महीने पहले शामिल हुए थे। इसका एडमिन  प्रदुमन था, जो कनाडा में रहता था।  उसमें  पैंतीस से ज्यादा लोग थे। अधिकांश विष्णु के जाने- पहचाने लोग थे। कुछ लोगों को पहचाने में वे असफल भी रहे थे। समय के धूल की परत इतनी मोटी थी कि जितना भी झाड़ा-पोंछा, लेकिन पहचानने में सफल नहीं हो पाए। उनके पास समय ही समय था और यह ग्रुप समय काटने का अच्छा साधन था। चौहान, त्रिपाठी, खान.... सबने उनका स्वागत किया। वे सब मिलकर पुरानी स्मृतियों को ताजा करते।

विष्णु, सरकारी नौकरी से अभी कुछ माह पहले ही रिटायर हुए थे लेकिन सेवानिवृत्ति के डेढ़ महीने पहले उन्होंने अपनी पत्नी वीणा को खो दिया। उनके लिए यह बहुत बड़ा झटका था। बड़ी मुश्किल से वे इससे उबर पाए थे।  वीणा का पैंतीस वर्षों का साथ रहा था। इन पैंतीस वर्षों में तमाम आदतें बनी-बिगड़ी थी। उनमें से सुबह की चाय भी एक थी। पाँच बजे वीणा चाय की प्याली के साथ किसी तानाशाह की तरह उनके सिरहाने आकर खड़ी हो जाती, चाय...।

फिर बिस्तर छोड़ना विष्णु की मजबूरी थी। वे बिस्तर से उठकर जब तक वीणा के हाथ से चाय की प्याली नहीं पकड़ लेते, वह ऐसे ही खड़ी रहती थी। इति या श्रुति के पैदा होने के समय कुछ दिन रूर इसमें व्यवधान पड़ा था, लेकिन तब सुबह की चाय वाला काम अम्मा सँभाल लेती थी। दो-चार दिन के शादी-विवाह में कहीं जाना पड़ता तो सुबह की इस लत के कारण कभी-कभी काफी परेशानी उठानी पड़ती थी। पेट ठीक से साफ नहीं होता। सारे दिन पेट में एक अजीब सा भारीपन बना रहता था।

वीणा की मृत्यु बाद कुछ दिन नाते-रिश्तेदारों की जमघट लगी रही थी। छोटे भाई की पत्नी उनकी इस आदत से वाकिफ थी। इसलिए सुबह पाँच बजते ही उनके हाथ में गरम प्याली आ जाती थी। पंद्रह दिन घर में खूब हलचल रही। मृत्यु भोज की औपचारिकताएँ समाप्त होने के बाद सभी नाते-रिश्तेदार चले गए। अब घर में सिर्फ श्रुति और उसका दो साल का बेटा रह गए थे।  तब नौकरी के दो माह बचे थे। बच्चों को उन्हें अचानक इस तरह अकेला छोड़ना ठीक नहीं लगा था। हालाँकि वह मना करते रहें, अरे मैं रह लूँगा। मेड तो आती है न...।

लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी। दोनों बेटियों और दामादों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि श्रुति अभी उनके पास रहेगी ताकि वह अकेलापन न महसूस करें और अचानक हुई मृत्यु से जो सदमा लगा है, उससे उबर सके। श्रुति को सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं थी। इसलिए पाँच बजे की चाय उन्हें सात बजे तक मिलती थी।

वे बेटी को संकोच में बोल नहीं पाते थे। चाय के इंतजार में उनका सुबह का टहलना बंद- सा हो गया था। विष्णु ने अपने मन को समझाया, चाय कोई अमृत थोड़े ही है। बेकार की लत गले में लपेटे हुए हैं। चाय पीना ही छोड़ देते हैं। वो क्या कहते हैं कि न रहेगा बाँस और ना बजेगी बाँसुरी। थोड़े दिन दिक्कत होगी, फिर हमेशा के लिए इससे पिण्ड छूट जाएगा।

और उन्होंने चाय पीना बंद कर दिया। बिना चाय के सारा दिन रहना बहुत आसान नहीं था। पूरा बदन  टूटता था। लगता शरीर के सारे जोड़ किसीने तोड़ दिए हैं।  बीस साल पहले वीणा के कहने पर उन्होंने सिगरेट छोड़ा था। तब भी कुछ दिन ऐसा ही हुआ था। सारा दिन बदन टूटता था और थकान सी महसूस होती थी। तब वे झेल गए थे। इस बार ऐसा नहीं हो पा रहा था। श्रुति चाय के लिए अपने हिसाब से बनाये गए समय के अनुसार रोज पूछती और वह मना कर देते, बच्चा अब मैं चाय छोड़ने का प्रयास कर रहा हूँ। चाय पीना कोई अच्छी चीज थोड़े ही है।

वे चार दिन में ही पस्त हो गए। उन्हें लगता कि शरीर में जान ही नहीं बची है। आँतो में एक अजीब सा खिंचाव महसूस करते। कब्ज की शिकायत रहने लगी थी। भूख भी ठीक से नहीं लग रही थी। आखिरकार उनकी जिद टूट गई। पाँचवे दिन अचानक बारिश हो गई थी। मौसम का तापमान काफी गिर गया था। शाम को श्रुति ने पकौड़े बनाए। उन्हें खाते समय ही चाय की तलब हिलोरे मारने लगी। पकौड़ों के बाद जैसे ही श्रुति ने चाय के लिए पूछा, उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया  उनका चाय न पीने का संकल्प धराशाही हो गया। मगर सुबह की चाय की समस्या तो वैसी की वैसी ही थी।

सेवानिवृत्ति के बाद ठीक सत्रहवें दिन दो घटनाएँ हुई। वे रोज की तरह चार बजे उठ गए थे। कंबल में लिपटे सोचते रहे। श्रुति हमेशा तो उनके पास रहेगी नहीं। उसका अपना परिवार है। नौकरानी  आठ बजे से पहले आ नहीं पाएगी। सिर्फ दूसरों के भरोसे रहने पर जिंदगी कठिन हो जाएगी। अपने छोटे-मोटे काम उन्हें स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए। इस विचार के मन में आते ही विष्णु तत्काल बिस्तर छोड़कर खड़े हो गए। विष्णु ने पहला काम सुबह की चाय से शुरू किया। उन्होंने किचन का दरवाजा खोला। चाय के लिए बर्तन  लिया, उसमें अंदाज से दूध, पानी और चाय की पत्ती डाली। दो-तीन बार के प्रयास में चूल्हा भी जल गया। दरअसल गैस के रेगुलेटर को समझने में देर लगी। रसोई घर के खटर-पटर से श्रुति भी आ गई , अरे डैडी मुझे जगा दिए होते। मैं बना देती।

विष्णु मुस्कराने का प्रयास करते हुए बोलें, सारी बच्चे...। मेरी वजह से तुम्हारी नींद में खलल पड़ा। तुम जाओ...। मुझे जरूरत होगी तो तुम्हे बुला लूँगा।

श्रुति कुछ सेकेंड तक पिता की गतिविधियों को देखती रही। उसकी आँखों में नींद भरी हुई थी। वो ज्यादा देर नहीं रुकी और अपने कमरे में चली गई। चाय खौल रही थी, तभी प्रदुमन का व्हाट्सएप पर मैसेज आया, हैलो मित्र कैसे हो ?  हम सब मित्रों ने यह ग्रुप बनाया है । मैंने तुम्हें भी शामिल कर लिया है। तुम्हारा स्वागत है मित्र, हमसे जुड़े रहो ।

हाँ! उस दिन विष्णु ने पहली बार चाय बनाई थी और उसी दिन वे मेरे प्यारे दोस्तो व्हाट्सएप ग्रुप से भी जुड़ गए।

सुबह की चाय तैयार थी। विष्णु ने चाय को कप में उड़ेल दिया। एक कप से थोड़ी कम...। रंग भी चाय के सामान्य रंग से ज्यादा गाढ़ा था। कुछ चाय किचन के प्लेटफार्म पर भी बिखर गई थी। उनके हाथ काँप रहे थे। उन्होंने उसकी फोटो खींचकर ग्रुप में भेजते हुए लिखा, दोस्तों! यह असाधरण चाय का कप है। आज मैंने जिंदगी में पहली बार चाय बना है। सुगर फ्री...। आज से मैं भी तुम सबके साथ हूँ। मैं अब रोज सुबह की चाय के साथ मिलता रहूँगा। तुम सबका विष्णु ...।   

वे किचन बंद करके अपने बिस्तर पर आ गए । चाय का पहला घूँट लिया। एक अजीब- सी तृप्ति मिली। उन्हें खुश होना चाहिए था। पर पता नहीं कैसे आँखें दगा दे गई और दो बूँद न चाहते हुए भी गालों पर लुढ़क आईं। उन्हें लगा कि वीणा उनके पलंग के सिराहने खड़ी है ।

***

सम्पर्कः  ग्राम-पकड़ियार उपाध्याय छपरा, पोस्ट- दांदोपुर (पडरौना), जिला-कुशीनगर-274304, ई-मेल- govindupadhyay78@gmail.com

2 comments:

Sudershan Ratnakar said...

यादें तो पीछा नहीं छोड़तीं।पर परिस्थितियों के अनुसार बदलना ज़रूरी हो जाता है। सुंदर कहानी।

Unknown said...

Bht hi acchi kahani hai.