उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

May 3, 2021

मैं तो स्वयं ही अपने आपको नहीं जानता

श्रद्धांजलिः निधन 17 अप्रैल 2021     

  -नरेन्द्र कोहली

ऐसा कभी-कभी ही होता है कि आपका कोई पाठक, मित्र, समीक्षक, छात्र या कोई वास्तविक जिज्ञासु किसी प्रयोजन से या मात्र अपनी जिज्ञासा-शान्ति के लिए आपकी सतह को कुछ छीलकर आपको तह तक नहीं, तो कम से कम आपकी त्वचा के नीचे तक जानना चाहता है। वह लेखक के मानसिक संसार को उघाड़ना चाहता है। और मैंने प्राय: देखा है कि उस प्रकार जिज्ञासा लिये हुए प्रश्नों का उत्तर मेरे पास भी बना-बनाया, तैयार नहींहोता। मुझे भी स्वयं अपने आप को टटोलना पड़ता है। अपने मानसिक संसार को पढ़ना पड़ता है। आश्चर्य होता है कि मैं तो स्वयं ही अपने आपको नहीं जानता था। नहीं जानता था कि मेरा स्व क्या है। ये ऐसे प्रश्न होते हैं,जिनके माध्यम से लेखक स्वयं अपना आविष्कार करता है। अपने स्व से परिचित होता है कि उन्होंने उसे स्वयं अपने आप से परिचित कराया।
मेरा प्रयत्न है कि इस पुस्तक के माध्यम से कुछ ऐसे ही साक्षात्कार अपने पाठकों तक पहुँचा सकूँ। सम्भव है कि ये उस लेखक नरेन्द्र कोहली को कुछ जान सकें, जो सामने पड़ने पर, मिलने-जुलने पर सामान्यत: आपसे मिलता नहीं है। वह नरेन्द्र कोहली अपने एकांत में है, जो सामान्यत: सार्वजनिक रूप से सामने आना नहीं चाहता। आत्मीय जनों से मिलना और बात हैं और राह चलते लोगों को दिखना और। फिर भी.....
कई प्रकार के लोग आते हैं- बातचीत करने, सूचनाएँ लेने, दर्शन करने,रूबरू होने अथवा साक्षात्कार लेने। किसी प्रयोजन से ही आते हैं। अपने मन की बाध्यता से, अपने संपादक अथवा निर्देशक के आदेश पर या फिर मात्र जिज्ञासा के मारे।
पूछते हैं, ‘आपको प्रेरणा कहाँ मिली ?’
मन होता है, कहूँ घर के पिछवाड़े जो बाजार है, वहीं मिली। पर यह कह नहीं सकता। इसे अशिष्टता माना जाएगा।
कैसे मिली?’
कौन?’
प्रेरणा।
समझ नहीं पाता कि क्या कहूँ। जाने मूल्य पूछ रहे हैं, या विधि। सोचता हूँ, कहूँ शाक सब्जी के मध्य, टोकरी में पड़ी मिली। या कहूँ, दस रुपये किलो के हिसाब से मिली।
आप कैसे लिखते हैं?’
निश्चित रूप से पहले कलम से लिखता था, अब कम्प्यूटर की सहायता से लिखता हूँ। जब से घर में कम्प्यूटर आया है, टाइपिस्ट नामक सहायक का घर आना बन्द हो गया है।
पर ये सारे उत्तर मेरे मन में ही रह जाते हैं।

कई बार शोध छात्र पूछते हैं- आपने राम को ही नायक के रूप में क्यों चुना?’

जानता हूँ छेदीलाल को नायक चुनता तो भी वे यही प्रश्न करते। पर मैं उनके प्रश्नों के उत्तर देने बैठा हूँ , उन्हें प्रताड़ित करने तो नहीं। किसी प्रकार टाल जाता हूँ।

फिर ये पूछते हैं, ‘आपकी रामकथा में क्या मौलिकता है?’
अब तो उत्तर देना ही पड़ेगा, ‘यदि इस प्रश्न का उत्तर मैं दूँगा, तो आप शोध क्या करेंगे?’
नहीं। आप बता देते।
अर्थ यह कि मैं बता देता, तो उनको कुछ नहीं करना पड़ता। बस टीप देते। कहता हूँ, ‘शोध आप कर रहे हैं, मैं नहीं।
पर आप बता देंगे, तो आपका क्या बिगड़ जाएगा?’
आप मेरे उपन्यास लिख दें, मैं आपके प्रश्नों के उत्तर लिखने लगूँगा।
एक बार शोध-निर्देशक झगड़ पड़े, ‘आप मेरे छात्रों के प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं देते? यह आपका नैतिक दायित्य है। आप उत्तर नहीं देंगे तो ये शोध कैसे करेंगे?’
ठीक कह रहे हैं आप’- मैंने कहा, ‘पर आपसे मेरा यह अनुबन्ध कब हुआ कि  मैं अपने सारे काम छोड़कर आपके छात्रों के प्रश्नों के उत्तर लिखूँगा ?’
पर आपको कष्ट क्या है ? वे बोले , प्रश्न का उत्तर तो प्रत्येक भला आदमी देता है।
देखिए, मैं भला आदमी नहीं  हूँ।
पर  क्यों
आपके छात्रों ने दस  प्रश्न लिख भेजे और मुझे उनके उत्तर में सौ पृष्ठ लिखना  होंगे।
तो क्या हो गया.
मैं यह सब ही करता रहूँगा, तो मेरा काम कौन करेगा।
आपका व्यवहार ऐसा ही रहा, तो हम आप पर शोध करवाना बंद कर देंगे। उन्होंने धमकी दी, आप यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर की शक्ति से परिचित नहीं हैं।

हाय राम तब तो मैं बेमौत की मर जाऊँगा।
पत्रकार मिलते हैं, ‘आपको क्या लगता है, क्या हिन्दी के पाठकों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम हो रही है?’
मुझे तो ऐसा नहीं लगता। आपको लगता है?’
पता नहीं। हमने कौन-सी खोज की है। वे कहते हैं, ‘पर सोचा कि पूछने में क्या हर्ज है।
आपको नहीं लगता की टी.वी. चैनल अध्ययन-रुचि को प्रभावित कर रहे हैं ?’ दूसरा पूछता है, ‘लोग टी.वी. के सामने से उठते ही नहीं, तो पढ़ेंगे कब?’
पढ़ने वाले तो अब भी पढ़ ही रहे हैं। मैं कहता हूँ।
तो टी.वी. कौन देख रहा है?’
जो मुजरा देखते थे।
आप कहना चाहते हैं कि हम लोग मुजरा करवा रहे हैं ?’ वे कुछ रुष्ट हो जाते हैं।
और क्या कर रहे हैं?’
क्या प्रमाण है आपके पास?’
शिल्पा शेट्टी के तीन आँसू गिरे थे, तो सारे टी. वी. चैनल पागलों के समान चौबीसों घण्टे रोते रहे। मैं कहता हूँ और रामसेतु टूटता है तो आपके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।
रामसेतु। वह क्या है ?’
वह वही है, जहाँ देश के सम्मान पर हथौड़े चल रहे  हैं। मैं कहता हूँ, अब यह मत पूछने लग जाइएगा कि देश का सम्मान क्या होता है।
अच्छा, छोड़िए रामसेतु को। वे कहते है आप नई पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगे।
और मैं सोचने लगता है कि आखिर पिछले पचास वर्षों से, इस आधी शताब्दी से, मैं कर क्या रहा हूँ ? कोई संदेश नहीं दे रहा, या नई पीढ़ी को मेरा संदेश समझ में नही आ रहा? ....और फिर उनके शब्दों पर ध्यान जाता है- छोड़िए रामसेतु को। रामसेतु को छोड़ दूँ, तो संदेश देने को मेरे पास और है ही क्या? अपना सारा इतिहास छोड़ दूँ अपनी संस्कृति छोड़अपने पूर्वजों का गौरव छोड़ दें अपनी राष्ट्रीयता छोड़, अपने आदर्श छोड़ देंऔर नई पीढ़ी को संदेश दूँ कि अपनी अभिनेत्रियों को विदेशी अभिनेताओंद्वारा मंच पर चुबित होते अवश्य देखें और उसपर जी भरकर गर्व करें।
अधिकांश प्रश्न पूछे जाने के लिए ही पूछे जाते हैं। उनका कोई विशेष अर्थ नहीं होता। जो भी प्रश्न लेखक की कृतियों  को पढ़े बिना पूछे जाते हैं उनका कोई अर्थ नहीं होता। लेखक को उसकी कृतियों से पृथक्कर न देखा जा सकता है, न समझा जा सकता है। इसलिए जो लोग, कृतियों को जाने बिना, चार चलताऊ प्रश्नों के माध्यम से लेखक को जानने का प्रयत्न करते हैं, वे मात्र कर्मकांड का निर्वाह कर रहे होते हैं, और कर्मकांड से स्वर्ग चाहे मिल जाए, ईश्वर  कभी नहीं मिलता।
ऐसा कभी-कभी ही होता है कि आपका कोई पाठक, मित्र, समीक्षक, छात्र या कोई वास्तविक जिज्ञासु किसी प्रयोजन से या मात्र अपनी जिज्ञासा-शान्ति के लिए आपकी सतह को कुछ छीलकर आपको तह तक नहीं तोकम से कम आपकी स्वचा के नीचे तक जानना चाहता है। वह लेखक के मानसिक संसार को उघाड़ना चाहता है। और मैंने प्राय देखा है कि उस प्रकार की जिज्ञासा लिए  हुए प्रश्नों का उत्तर मेरे पास भी बना-बनाया तैयार नहीं होता। मुझे भी स्वयं अपने आप को, टटोलना पड़ता है। अपने मानसिक संसार को पढ़ना पड़ता है। आश्चर्य होता है कि मैं तो स्वयं ही अपने आपको नहीं जानता नही जानता था कि मेरा स्व क्या है। ये ऐसे प्रश्न होते है जिनके माध्यम से लेखक स्वयं अपना आविष्कार करता है। अपने स्व से परिचित होता है कि उन्होंने उसे स्वयं अपने आप से परिचित कराया।

मेरा प्रयत्न है कि इस पुस्तक के माध्यम से कुछ ऐसे ही साक्षात्कार अपने पाठकों तक पहुँचा सकूँ। संभव है कि वे उस लेखक नरेन्द्र कोहली को कुछ जान सकेंजो सामने पड़ने परमिलने- जुलने पर सामान्यतः आपसे मिलता नहीं है। वह नरेन्द्र कोहली अपने एकांत में हैजो सामान्यतः सार्वजनिक रूप से सामने आना नहीं चाहता। आत्मीय जनों से मिलना और बात है और राह चलते लोगों को दिखना और। फिर भी...

आश्विन कृ. 8 संवत् 2064,  वि. / 3- 10- 2007 

(पुस्तक  मेरे साक्षात्कार  से साभार)

No comments: