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Jun 5, 2019

आस्था का उद्यान

आस्था का उद्यान
- ओमप्रकाश तरमोलिया
मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते ही सामने एक बड़ा सा मैदान नजर आता था, वह हमारी पाठशाला का प्रार्थना स्थल था। प्रार्थना स्थल से ही लगा हुआ एक बड़ा सा उद्यान था जो हमेशा तरह तरह के फूलों से भरा रहता था। उसी उद्यान के बीच एक कंक्रीट की फुटपाथ बनी हुई थी,जो हमें एक हॉल के दरवाजे तक पहुँचाती थी। हॉल बहुत बड़ा था, उसी हॉल में से होकर कक्षाओ में जाने का रास्ता था। हॉल में प्रवेश करते ही सामने उज्जवल सफेद चमचमाती दीवार पर माँ सरस्वती का सुन्दर चित्र बना हुआ नजर आता था। जिस कलाकार नें माँ सरस्वती का यह बड़ा सा चित्र बनाया था उसकी यह विशेषता थी, कि उसने उसे बनाने में सिर्फ नीले रंग का ही उपयोग किया था तथा दीवार के सफेद रंग से, नीले रंग का ऐसा तालमेल बैठाया कि, ऐसा लगता था जैसे सचमुच माँ सरस्वती श्वेत कमल के आसन पर वहाँ विराजमान थी तथा श्वेत वस्त्रों में सुशोभित हो रही थी। जिनके दो हाथों में वीणा, एक हाथ में स्फटिक माला तथा अन्य एक हाथ में अज्ञानता के अन्धकार को दूर करने वाली एक सुन्दर- सी पुस्तक थी जिसपर सुन्दर अक्षरों में 'हिन्दीअंकित था। कमल का यह फूल जैसे सागर की लहरों में तैर रहा था। उसी के नीचे सागर की लहरों से अठखेलियाँ करते गहरे नीले रंग से उकेरे कुछ शब्द इस प्रकार लिखे हुए थे। 'हिन्दी हमारी मातृभाषा है, आओ इसका सम्मान करें!वहाँ ऐसा साक्षात्कार हो जाता था मानों माँ नें ममता का आँचल बिछाकर ज्ञान का महासागर उडेल दिया हो। जिसकी जितनी क्षमता हो बटोर ले। लेकिन इसे भी इतनी आसानी से नहीं बटोर सकते थे। इसके लिए एक कुशल गुरु की आवश्यकता थी। श्री बजरंगलाल पाराशर जी हमारे हिन्दी के अध्यापक थे। वे इस महासागर से ज्ञान बटोर कर लाते और हमें बाँट दिया करते थे, अर्थात वे इतनी रुचि से हमें हिन्दी पढ़़ाते थे कि हमें सहज ही उस घटना का जीवन्त साक्षात्कार हो जाता था। हमें हमेशा कक्षा में उनके आगमन का इन्तज़ार रहता था। एक बार वे एक प्रसंग के बारे में चर्चा कर रहे थे,
'ओ रे गाड़ी के लोहार, तुम ही राणा के सहचर थे।
राणा प्रताप की ढाल तुम्हीं, राणा के तुम सच्चे शर थे।
वे बता रहे थे कि बच्चों, 'उक्त प्रसंग उस समय का है जब महाराणा प्रताप को अजादी के संघर्ष में ऐसे वफादारों की आवश्यकता थी जो कि अपने प्राणों की परवाह किये बगैर इस संकट की घड़ी में उनका साथ दे सके। ऐसे संकटकालीन समय में ये देरी किए बगैर प्राण हथेली पर लेकर महाराणा का मान बढ़ाने हेतु अग्रणी पंक्ति में आकर खड़े हो गये तथा अपने 'अन्नदाताको वचन दे दिया कि मरते दम तक हम आपका साथ निभाएँगे तथा हमारी इस धरती को आजाद करवाकर ही दम लेंगे और जब तक हमारी यह धरती माँ, आजाद नहीं हो जाती, हमारा कुनबा और हमारी संतानें एक स्थान पर घर बनाकर नहीं रहेंगे। तो बच्चों, तब से लेकर आजतक ये भोले और ईमानदार देशभक्त लोग अपने इस प्रण को हर परिस्थितियों में निभा रहे हैं। तभी मैं जैसे मेरे कुछ दिनों पहले बीते धटनाक्रम में खो गया। हमारे गाँव के बाहर कुएँ के पास ही आमों की झुरमुट के नीचे रात्रि में एक गाड़िया लोहार का परिवार आकर रुका। लोगों को पता चला तो सुबह सुबह लोग, खेतों में काम आने वाले औजार जैसे कुल्हाड़ी, कुदाली इत्यादि बनवाने के लिए पहुँच गए। बस देखते ही देखते वह सुनसान जगह आबाद हो गई, तथा वहाँ चहल- पहल शुरु हो गई। थोड़ी ही देर में भट्टी जम गई तथा खटाखट, खटाखट शुरु हो गया। लगभग साढ़े दस बजे तक उन्होंने सपरिवार मिलकर, बिना रुके काम किया। परिवार के सारे सदस्य खुश थे, लेकिन परिवार के मुखिया का मन उदास था, क्योंकि पैसा नहीं होने के कारण उसकी देखरेख में उसका परिवार रात्रि में भूखा ही सोया था। लेकिन उस परिवार को इस बात का गम नहीं था, वे तो पूरे उत्साह से अपना काम कर रहे थे। छोटे बच्चे भी जाने किस लोहे के बने थे, उनके चेहरे पर लेश मात्र भी शिकन नहीं थी। थोड़ा पैसा इकट्ठा हुआ, तभी परिवार का मुखिया बाजार गया तथा थोड़ी ही देर में वापस आ गया, उसने अपने हाथों से अखबार का पुलिन्दा, माची (छोटी खटिया) पर रख दिया तथा सबको अपनी भाषा में आवाज देकर बुलाया और उस अखबार के पुलिन्दे से दो जलेबी निकाल कर खाने लगा, डेढ़ किलो में से बाकी बची सारी जलेबियाँ अपने परिवार को खाने के लिए दे दी। वह उन सबको गरमागरम जलेबियाँ खाता देख, बहुत प्रसन्न हो रहा था। उसनें दो जलेबी खाकर पानी पी लिया और बचे हुए पैसों से आटा दाल सामान खरीदने चला गया। वहाँ पर वापस खटाखट शुरू हो गई।
एक दिन घर की जरूरत के लिए कुल्हाड़ी बनवाने हेतु मैं भी सुबह- सुबह वहाँ पहुँच गया, उस घर का मुखिया बोला, ‘बेटा, थोड़ी देर बैठो, मैं अभी भट्टी चालू करता हूँ।मैं कुएँ की मुँडेर पर बैठ गया तथा वैसे ही इधर- उधर देखने लगा, तभी मेरा ध्यान उस ओर गया ,जहाँ उसकी नन्ही -सी बेटी रात की बची हुई ज्वार की रोटी को चटनी से चुपड़ कर, माची (छोटी खटिया) पर बैठ कर बड़े मजे से खा रही थी। सुर्ख रंग के कपड़ों में लिपटा गोरा चिट्टा बदन, उस पर गुत्थमगुत्था बालों की लटें प्रतिस्पर्धा करते हुए बार- बार उसके गालों का आलिंगन कर रही थी, और इसकी उसे कुछ भी परवाह ही नहीं थी। तभी सूर्य की सुनहरी किरण उस पर पड़ी तो ऐसा लगने लगा मानो साक्षात सोने की मूर्ति वहाँ स्थापित हो अथवा स्वर्ग से कोई अप्सरा उतर आयी हो या साक्षात माँ अन्नपूर्णा स्वयं वहाँ प्रकट हो गई हो और छप्पन तरह के पकवानों का भोग लगा रही हो। मेरा मन उद्वेलित हो गया कि काश, इस रोटी का एक अंश भी, मुझे मिल जाए तो जैसे जन्म- जन्मान्तर की भूख ही समाप्त हो जाए। मैं बस ताकता रहा, ताकता रहा। तभी जाने कहाँ से एक बड़भागी कौआ वहाँ उपस्थित हो गया तथा उछल उछल कर नाच दिखाता- सा, रिझाने की कोशिश करता हुआ उसके पास जाने लगता। लेकिन वह हाथ हिलाकर उसे दूर भगा देती। कुछ देर तक यह क्रम चलता रहा, आखिर एक बार मौका पाकर वह उस टुकड़े तक पहुँच ही गया जो कि उसके हाथ से गिर गया था। उसनें उस टुकड़े को चोंच में उठाया और अन्तर्धान हो गया, मानो अमृत फल पाकर अमर हो गया। मैं मदहोश सा उस अद्भुत दृश्य में ना जाने कब तक खोया रहा, अब तो जैसे मैं भी ललचाया सा कौए के रूप में उसे रिझाने की कोशिश में उछल उछल कर नाच दिखाता सा उसके नजदीक जाता और, वह बार बार हाथ हिलाकर दूर कर देती, मैं फिर प्रयास करता। ना जाने कब तक यह सिलसिला चलता ही रहा, मैं अपने आप में खोया, मुस्करा रहा था, तभी मेरे कानों में आवाज आई, बाबा बोल रहे थे, 'बेटा, यह लो तुम्हारी कुल्हाड़ी तैयार हो गई।
दिनभर मेरे मन में वह दृश्य घूमता रहा। दिन जैसे तैसे निकल गया, रात्रि में भी मैं सोचता रहा कि सुबह जल्दी उठकर कुएँ की मुँडेर पर बैठ जाऊँगा और उस अन्नपूर्णा का उसी मुद्रा में दर्शन करुँगा। मैं सुबह -सवेरे बहुत जल्दी उठकर कुएँ की ओर गया। वहाँ का दृश्य देख धक से रह गया। वहाँ कोई गाड़ी नहीं थी। मैनें आँखें मसल कर फिर गौर से देखा, वे सब जा चुके थे। वहाँ सिर्फ भट्टी के कुछ अवशेष, राख और कुछ कोयले इधर- उधर बिखरे पड़े थे। वे लोग किस दिशा में गये, मुझे कुछ भी पता नहीं चला। मेरा मन पछता रहा था, ये लोग क्यों घर बनाकर नहीं रहते हैं। कुछ दिन और रुक जाते तो इनका क्या बिगड़ जाता, क्या इनके पास काम नहीं था, मैं लाता इनके लिए बहुत सारा काम। ये ऐसे ही क्यों चले गये। मेरा मन उदास -सा हो गया। तभी किसी नें बताया, अरे, भई, इन्होंनें अपने अन्नदाता, आजादी के दीवाने महाराणा प्रताप को वचन दिया था कि जबतक देश आजाद नहीं होगा, हम एक स्थान पर घर बनाकर नहीं रहेंगे। बस, तभी से देश की आजादी के लिए ये देशभक्त, वीर, अपना वचन निभाने को दर दर भटक रहे है। इन भोले भाले लोगों को किसी ने बताया ही नहीं कि हमारा देश आजाद हो गया है। अब,जब भी मैं कुएँ की ओर जाता मेरा मन उदास -सा, इस उम्मीद में हमेशा उनको निहारता रहता कि अब तो हमारा देश आजाद हो गया है, वे मुड़कर आ जाएँ मेरे इस गाँव में। अबकी बार मैं उनको यहाँ से जाने नहीं दूँगा। उनको बता दूँगा कि हमारा देश आजाद हो गया है। तभी मेरी तंद्रा टूटी, हमारे अध्यापक जी वह पाठ पूरा कर चुके थे तथा वही अन्तिम लाइनें पढ़ रहे थे-
'ओ रे गाड़ी के लोहार, तुम ही राणा के सहचर थे।
राणा प्रताप की ढाल तुम्हीं, राणा के तुम सच्चे शर थे।
इस प्रकार के कई कवियों एवं लेखकों द्वारा लिखित रुचिकर प्रसंग मुझे बहुत अच्छे लगते थे। मुझे अपनी मातृभाषा हिन्दी से बहुत लगाव हो गया था। मैं चाहता था कि मुझे यदि हिन्दी पठन पाठन का कार्य मिल जाये तो मैं बहुत ही रुचि से बच्चों का ज्ञानवर्धन कर सकूँगा, मैंने प्रयास किए भी, लेकिन अन्य विषयों नें मेरा साथ नहीं दिया अत: मैंने तकनीकी शिक्षा ग्रहण कर ली, और मेरा चयन यहाँ राजस्थान परमाणु बिजलीघर में हो गया, यह भी मेरे जीवन की एक असीम उपलब्धि का क्षण था। द्वितीय शनिवार की छुट्टी में मैं मिठाई का डिब्बा लेकर घर पहुँचा। परिवार में सब लोग बहुत खुश थे। पिताजी तो खुश थे ही, माँ तो अत्यधिक खुश दिखाई दे रही थी। खुशी खुशी में आस पड़ोस में मिठाई बाँटती फिर रही थी। अब, मुझे तो जैसे  उसकी ममता ने मेहमान ही बना दिया था। बेटा इधर बैठ, बेटा उधर बैठ, बेटा तुम्हारी क्या खाने की इच्छा है, मैं तुम्हारे लिए क्या बनाऊँ इस प्रकार मनुहार करती नहीं थक रही थी, वह। शाम को हम सब परिवार के सदस्य बैठे हुए, हँसी खुशी में बातें कर रहे थे, तभी खुशी खुशी में माँ बोली, “बेटा, अब तो तेरी नौकरी लग गयी है, ना मत करना! मुझे तुमसे और कुछ भी नहीं चाहिए, बस, तेरे बाबूजी को और मुझे चारधाम की यात्रा करवा देना, अभी नहीं, जब तुझे सुविधाजनक लगे।
अरे, नहीं माँ, मैं जल्दी ही आपको चारधाम की यात्रा करवाऊँगा।इस प्रकार मैनें माँ को वचन दे दिया, लेकिन अन्य पारिवारिक कार्यों में व्यस्त हो गया, जैसे पिताजी का कर्जा चुकाने में मदद करना, छोटे भाइयों को पढ़ानें में मदद करना, इत्यादि। धीरे धीरे मैं माँ को दिए वचन को भूल गया। माँ, तो माँ ही होती है, एक बार मैं सपरिवार गाँव गया हुआ था, बातों बातों में फिर उसनें याद दिलाया, “बेटा कब करवायेगा हमें चारधाम की यात्रा ! बेटा, मैं इसलिए कह रही हूँ कि मैनें भगवान से मन्नत माँगी थी कि मेरे बेटे को नौकरी लग जाएगी, तो भगवन् चारधाम की यात्रा करने, हम तेरे दर पर जरुर आएँगे। बेटा, इस शरीर का क्या भरोसा, तू हमें तीर्थ यात्रा करवा देगा तो हमारी आत्मा तृप्त हो जाएगी। मैं आत्मग्लानि से भर गया तथा बात को सम्भालते हुए बोला, “बस, माँ, मुझे याद तो था पर थोड़ी देरी हो गई, अब बहुत जल्दी ही चलने का कार्यक्रम बनाऊँगा।मैं मन ही मन सोचता रहा कि अबकी बार माँ को शिकायत का मौका नहीं दूँगा और जल्दी ही कार्यक्रम बनाकर यात्रा पर निकलूँगा, इस प्रकार सोचता हुआ मैं अपनी जन्मभूमि 'लाखेरीसे कर्म भूमि 'रावतभाटाआ गया, लेकिन यहाँ आकर फिर व्यस्त हो गया।
उस दिन जब मैं साइट से घर गया तो पता चला कि पिताजी और छोटा भाई, माँ के साथ आए हुए हैं, माँ की तबियत ज्यादा खराब हो गई थी। वह किसी को पहचानती ही नहीं थी, तथा खाना खाने में भी गला खराब होने के कारण तकलीफ होने लगी थी। मैं तुरन्त उन्हें अस्पताल ले गया। एक महीने तक इलाज चला, लेकिन आराम नहीं हुआ। डॉ. साहब नें जयपुर भेज दिया, वहाँ सीटी स्केन हुआ, डॉक्टरों की मीटिंग हुई और उन्होंनें मुझे बताया कि इनको कैन्सर हो गया है, अब ये ज्यादा दिनों तक आप लोगों के साथ नहीं रह पाएगी, बस कुछ दिन सेवा कर सकते हो। जैसा कि डॉक्टरों नें बताया, चार दिनों में ही माँ इस लोक को छोड़कर चली गई। पिताजी को भी माँ के बगैर यह दुनिया अच्छी नहीं लगी, इसलिए वे भी इस लोक को छोड़ गए। मुझे इस बात का बहुत ही पछतावा रहा कि मैं माँ को दिए वचन को नहीं निभा सका।
मेरे मन में अकसर यह विचार आता रहता था कि मेरे जैसा बदनसीब कौन होगा कि, माँ ने मेरे लिए कितनें कष्ट उठाए और मैं उसकी एक इच्छा पूरी नहीं कर सका। एक बार रात्रि में मुझे नींद नहीं आ रही थी, और मैं इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में खोया हुआ था कि हर तरह से सक्षम होते हुए भी मैनें समय रहते निर्णय नहीं लिया और इसी कारण माँ की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। करवटें बदलता हुआ मैं रात बिताने की कोशिश कर रहा था। तभी शायद माँ का दिल पसीज गया और जैसे वह मेरे सामने प्रकट हो कहने लगी,”बेटा, तू उदास क्यों है, तू उदास मत हो! क्या हुआ, यदि मेरी एक इच्छा पूरी नहीं हुई तो! तूने तो हमारी बहुत सेवा की है। बेटा, तू चिन्ता मत कर, मन में किसी भी प्रकार की ग्लानि मत ला, आराम से सो जा।
पर माँ मेरे मन से यह बात निकलती ही नहीं है, मैं क्या करुँ!तो सुन बेटा, यह जो मातृभूमि है, यह हम सबकी माता है। यह हम सबको अपनी कोख में स्थान देती है। हमारा जीने का सहारा बनती है और हर सुख दु:ख में साथ देती है, बेटा, अब तू इसे ही अपनी माँ समझ, अब मेरा स्वरुप भी इसी में समझ, यदि तू इस धरती माँ का श्रृंगार करेगा तो समझूँगी तुमनें मुझे सारी तीर्थ यात्राएँ करवा दी। यदि तू एक भी पेड़ लगाएगा, तो किसी न किसी रुप में, तेरे उगाए पेड़ पर मैं आऊँगी।’ '’माँ यदि तू आएगी तो मैं तुम्हारे लिए एक बगीचा बनाऊँगा, जिसे अपने हाथों से, फूलों से सजाऊँगा तथा हर फूल तेरे स्वागत में तत्पर रहेंगे। माँ मैं हर समय तेरे आने का इन्तजार करुँगा।
बेटा, तू मेरे लिए अकेला इतनी कड़ी मेहनत करेगा, लोग निराश करेंगे, उनका सामना करेगा, अपना समय बर्बाद करेगा और बगीचा बनायेगा, तो मेरे श्रवण, मैं जरूर आऊँगी, और हो सका तो तेरे बाबूजी को भी साथ लेकर आऊँगी। और उनको बताऊँगी कि हमारे बेटे नें कितनी मेहनत की है, हमारे लिए।
मानो मुझे तो खुशी का खजाना ही मिल गया। अब, मैं इस स्वर्णिम मौके को खोना नहीं चाहता था। सुबह होते ही, एक गैती, फावड़ा और अन्य सामान खरीद लाया तथा दोनों ब्लॉकों के बीच की जमीन पर कार्य शुरू कर दिया। पेड़ों के साथ साथ फूलों के पौधे भी लगा दिए। जल्दी ही मेरी मेहनत रंग लाई। अब उनमें लाल, गुलाबी फूल भी आने लग गये। मैं रोज सवेरे फूलों के रुप में माँ का चेहरा निहारता, मुझे बहुत खुशी मिलती थी। इस प्रकार मेरा आस्था का उद्यान अपना रुप लेने लगा था, तथा प्रात: भ्रमण करने वाले लोग इसकी प्रशंसा करने लगे थे।
  एक दिन बगीचे में चारों ओर सुन्दर सुन्दर फूल खिले हुए थे, बहुत मनोरम दृश्य था, मुझे अन्तर्मन से अहसास हो रहा था कि आज कुछ विशेष घटना होने वाली है, मेरा मन अनायास ही प्रसन्न हो रहा था, इसलिए मैं मगन मन हो अपना कार्य कर रहा था, तभी देखा, प्रात: भ्रमण हेतु आया एक नया नया जोड़ा मेरी ओर आ रहा था। मैं काम छोड़कर खड़ा हो गया। वे मेरे सामने आकर दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए तथा कहने लगे, ' सर जी, हम रोज देखते हैं, आपनें कड़ी मेहनत करके इस कठोर जमीन पर इतने सुन्दर फूल उगा दिए, हमसे रहा नहीं गया, आपको धन्यवाद देनें चले आए।मैंने भी उनको हृदय से धन्यवाद देकर विदा कर दिया। मैं एक सुन्दर से फूल की ओर मुड़ा और माँ को सम्बोधन करते हुए कहने लगा, “माँ, लोग हमारे आस्था के इस उद्यान की प्रशंसा करने लगे हैं, आप कहाँ हो, जल्दी आ जाइए ना, आपने जो वादा किया था उसे पूरा कर दीजिए ना।
तभी मैंनें देखा दो नन्हें से पक्षी उड़ते उड़ते आकर फूलों के उस पौधे पर बैठ गएतथा टुकुरटुकुर मेरी ओर देखने लगे। मैं तुरन्त पहचान गया, अरे, ये तो मेरे इष्ट ही हैं। मैं बहुत आनन्दित और भाव विभोर हो दोनों हाथ जोड़े खड़ा हो गया।
माँ तुमनें आने में इतनी देर क्यों लगा दी, मैं कब से तुम्हारा इन्तजार कर रहा था। माँ, अब रोज तुम हमारे इस 'आस्था के उद्यानमें आया करना, और बाबूजी को भी लाना, ये पेड़ पौधे बहुत अपनापन रखते हैं, ये आपको पूर्ण आराम देंगे, स्वयं धूप झेलेंगे; लेकिन शीतल और मंद हवा के झोकों से आपका मन मोह लेंगे। ये लाल गुलाबी सुन्दर सुन्दर फूल आपके मन को प्रसन्न कर देंगे। तब तुम अपने बेटे के इस कार्य से बहुत खुश हो जाओगी और खुशी के मारे तुम्हारे कंठ से मधुर मधुर स्वर लहरी गूँज उठेगी। आस पास के लोग सुनकर मंत्रमुग्ध हो जायेंगे, तथा दूर- दूर से लोग इस मधुर स्वरलहरी को सुनने इस उद्यान में आया करेंगे। यहाँ बहुत चहल पहल हो जाया करेगी। वे सब अपना दुख दर्द भूलकर, परम आनन्द का अनुभव कर तुमको निहारेंगे। इस बीच जब तुमको मेरी याद आयेगी, तुम मुझे उस भीड़ में इधर उधर ढूँढोगी, मुझे प्रसन्न देख, तुम्हारा मन और अधिक प्रसन्न हो जायेगा तथा फिर खुशियों की स्वरलहरी गूँजेगी तो सब सुनकर निहाल हो जाएँगे। चारों ओर खुशियाँ बिखर जायेगी, लेकिन माँ कुछ दिनों बाद मुझे यह सब छोड़कर तुमसे दूर जाना होगा, क्योंकि अब मैं यहाँ से सेवानिवृत्त हो जाऊँगा। लेकिन फिर भी तुम्हें इस उद्यान में आना होगा। जब तुम मुझे यहाँ नहीं पाओगी तो माँ तुम दुखी मत होना, उसी प्रकार लोगों के लिए खुशियाँ बिखेरते रहना। जब किसी भी फूल को तुम अपना बेटा समझकर आलिंगन करोगी तो दूर बैठा, मैं महसूस कर लूँगा कि आज मेरी माँ इस उद्यान में आयी थी, मैं बहुत खुश हो जाया करुँगा। माँ, तुम्हारे लिए इसे मैंनें अपने हाथों से सजाया है, माँ ! तुम्हारे लिए ! बोलो, आओगी ना।दोनों अपलक नेत्रों से बहुत देर तक मुझे देखते रहे, जैसे मुझसे कुछ कहना चाहते हों।
तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं कुछ गलती कर रहा हूँ। 'माँ मैं अपनी गलती समझ गया, तुम्हारा रोज- रोज आना संभव नहीं हो पाएगा, इसलिए मुझे ऐसे देख रही हो, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ रहा हूँ, लेकिन दो चार दिनों में तो अवश्य ही चले आना तब तक मैं इस आस्था के उद्यान को और भी सुन्दर बनाने का प्रयास करता रहूँगा। यह हमेशा तुम्हारा स्वागत करता रहेगा। यहाँ तुम्हारे स्वागत में नए- नए फूल खिलते रहेंगे। पेड़ हमेशा ठंडी ठंडी छाया देते रहेंगे। माँ तुम जरुर आते रहना और बाबूजी को भी लाते रहना।तभी दोनों नें एक दूसरे को देखा, और अपने सुनहरे पंखों को लहराते हुए उड़ गये। मैं अपलक नेत्रों से उनको ताकता रह गया।
मेरा मन उदास हो गया और मैं कुछ समझ नहीं पाया। सामने खिले हुए फूल की ओर मुखरित होते हुए बोला, 'देखो, देखो जाने किस बात पर माँ मुझसे नाराज़ होकर चली गई, अब मैं क्या करुँ।तभी फूल नें मुस्कराते हुए, एक मीठी सी झिड़की देते हुए कहा, 'पगले, माँ नाराज नहीं हुई, उसने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली, अब वह जल्दी ही तुम्हारे बाबूजी को साथ लेकर फिर से आएगी।यह सुनकर मेरा मन खुशी से भर गया था, आँखें नम हो गईं तथा माँ की राह को निहारने लगी थी और मन बार- बार बोल रहा था, 'तुमनें मुझपर कृपा की, माँ, तुम बहुत अच्छी हो।

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