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Aug 26, 2010

घोटालों में डूबा कामनवेल्थ गेम्स

घोटालों में डूबा कामनवेल्थ गेम्स
-डॉ. रत्ना वर्मा
हम भारत की आजादी का 63वां जश्न मनाने जा रहे हैं। लेकिन क्या वास्तव में हम जश्न मना पाएंगे? इन दिनों देश के जो हालात हैं उसे देखते हुए मन तो नहीं करता कि जश्न मनाया जाए। क्योंकि महंगाई जैसे सबसे गंभीर मुद्दे को छोड़कर इस समय जो विषय सबसे अधिक चर्चा में है वह अक्टूबर में दिल्ली में होने वाले कामनवेल्थ गेम्स की है। इसकी भव्यता या शानदार तैयारी को लेकर नहीं बल्कि इसकी आड़ में आयोजकों द्वारा किए गए करोड़ों के घोटाले की है। जबकि आजादी के इस दिवस पर होना यह चाहिए था कि हम गर्व के साथ अपने तिरंगे के नीचे खड़े होकर कह सकते कि हमारा देश खेलों के सबसे बड़े आयोजन की शानदार मेजबानी करने जा रहा है जिसे देखकर दुनिया हमसे रश्क करती। पर यहां तो सब कुछ उल्टा हो रहा है। हमारा सिर शर्म से झुक गया है।
19 वें कामनवेल्थ गेम्स 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान दिल्ली में होना तय हुआ था। स्वयं खेल मंत्री डॉ एम.एस. गिल ने संसद में बयान दिया कि इस आयोजन की घोषणा के बाद तीन- चार वर्ष तक खेलों के आयोजन एवं इसके ढांचागत निर्माण की ओर कतई ध्यान नहीं दिया गया। तब प्रधानमंत्री का ध्यान भी कामनवेल्थ गेम्स फेडरेशन के अध्यक्ष माइक फेनेल ने भी दिलाया था। केन्द्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति भी नियुक्त की। किन्तु इस सबके बाद भी न आयोजन समिति न दिल्ली सरकार और न ही केन्द्र सरकार की आंख खुली। इन सबका नतीजा आज सबके सामने है।
यह खेल आज देश के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन गया है। एक तो इसकी तैयारी में की गई देरी व धन की बर्बादी और एक के बाद एक भ्रष्टाचार का उजागर होना हमारी 63 वर्ष की आजादी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है और हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या यही है हमारे इतने वर्षों की स्वतंत्रता की कमाई। देश की गरीब जनता के खून पसीने की कमाई को लूटकर हमारे अपने ही लोगों ने अपनी जेबें भरी और दुनिया भर में देश की छवि को मिट्टी में मिला दिया। दरअसल कामनवेल्थ गेम्स के संयोजकों ने कामनवेल्थ के शाब्दिक रुप को अपना लिया और अपना ही कामनवेल्थ बना लिया। इतना ही नहीं घोटालों के उजागर होने के बाद भी वे बड़ी बेशर्मी से यह कहते घूम रहे हैं कि फिलहाल तो यह खेल हो जाने दो राष्ट्र की इज्जत का सवाल है, बाकी बाद में देख लेंगे।
केंद्रीय सतर्कता आयोग ने कामनवेल्थ गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों में पांच सरकारी एजेंसियों को कठघरे में खड़ा किया है। आयोग के अनुसार इन सरकारी एजेंसियों ने मनमाने तरीके से ठेके तो दिए ही, जो निर्माण कार्य कराए उनमें एक भी कार्य निर्धारित मानदंडों के अनुरूप नहीं था। निर्माण कार्यों में लगी सरकारी एजेंसियों, लोक निर्माण विभाग, एमसीडी, डीडीए, एनडीएमसी और राइट्स के संदेह के घेरे में आने का अर्थ है कि भ्रष्टाचार कीनिगरानी की कहीं कोई व्यवस्था नहीं थी। अब भले ही सतर्कता आयोग ने भ्रष्टाचार की निशानदेही कर ली, पर प्रश्न फिर भी वहीं का वहीं है कि क्या भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार सरकारी, गैरसरकारी तत्वों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई की जाएगी। काश यदि ऐसे तत्वों को आरंभ में ही हतोत्साहित कर दिया जाता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता।
भारत ने 2003 में जब कामनवेल्थ गेम्स की मेजबानी हासिल की थी तो खेलों की कुल लागत 767 करोड़ रुपए आंकी गई थी। जो अब बहुत ज्यादा हो चुकी है, सरकार ने भी इसके बारे में नहीं सोचा था। अब सरकार कह रही है कि खेलों पर कुल लागत 11294 करोड़ रुपए आएगी। जब इन खेलों की मेजबानी की बात उठी थी तब बड़ी- बड़ी बातें की गईं थी कि इस आयोजन से देश को बहुत फायदा होगा। जबकि वास्तविकता यह है कि खेलों के इतिहास में अब तक कोई भी ओलंपिक खेल, एशियाई खेल या कॉमनवेल्थ गेम्स कभी फायदे का धंधा नहीं रहा।
हां इन खेलों की आड़ में बहुत से लोगों की तिजोरियां जरुर भर जाती हैं, अधिकारियों, बिल्डरों और ठेकेदारों की ऐसे आयोजनों में चांदी ही चांदी रहती हैं। खेल की आड़ में बड़ी- बड़ी घोषणाएं की जाती रहीं कि इस मेजबानी से लाखों हाथों को रोजगार मिलेगा पर देश के कोने- कोने से आए लाखों मजदूरों को रोजगार मिलना तो दूर कितने तो मर गए जिसकी वजह से कई परिवार बेघर हो गए हंै, उजड़ गए। बल्कि आम जनता का कई गुना पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। दिल्ली वालों का हाल भी इससे कुछ अलग नहीं, तरह- तरह के टैक्सों की मार तो उनपर पडऩी शुरू हो ही चुकी है, इससे जल्दी निजात की कोई संभावना भी नजर नहीं आती। माना जा रहा है कि इन खेलों के चलते दिल्ली के लोग अगले 25 सालों तक कर्जों को तमाम तरह के टैक्सों के रूप में झेलेंगे।
शायद आप नहीं जानते कि 1976 के ओलंपिक खेलों का आयोजक मांट्रियल 2006 में जाकर कर्जों से उबर पाया था। ग्रीस 2004 में हुए ओलंपिक खेलों के बाद कर्जों में इस कदर डूबा कि आज तक नहीं उबर पाया है और अंतत: वर्तमान यूरोपियन मंदी का प्रमुख कारण बन गया।
इन खेलों के आयोजन में अब दो माह से भी कम समय शेष रह गया है, लेकिन प्रत्येक स्तर पर आधी- अधूरी तैयारियों और घोटालों के उजागर होने से तो यह साफ हो गया है कि इन खेलों से देश को चाहे कोई मेडल या उपलब्धि हासिल हो या न हो पर घोटाला और भ्रष्टाचार के खेल में हम मील के पत्थर साबित होंगे। सच तो यह है कि हाल ही दिल्ली में हुई बारिश ने खेल के लिए तैयार किए गये स्टेडियमों की पूरी पोल खोल कर रख दी है, यह सब इतने कम समय में कैसे पूरा हो पाएगा यह तो आयोजक ही बता पाएंगे। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि भगवान से प्रार्थना करो कि- हे भगवान हमारी लाज रखो।


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