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Feb 25, 2009

यह खामोशी बहुत बोलती है

- डॉ. शोभाकांत झा
कम बोलकर अधिक ध्वनित करने की नियति के कारण कविता हमेशा से व्याख्या को पूरी पकड़ में आने से बिछलती रही है, इसलिए एक ही पुस्तक की अनेक समीक्षाएं की जाती रही हैं, की जा सकती हैं। इस छूट को पाकर संदर्भित कृति विषयक कुछ टिप्पणी यहां दर्ज हैं। कवि विश्वरंजन की ये निम्नांकित पक्तियां एक साथ कविता को 'कम बोलकर अधिक ध्वनित' करने वाली प्रवृत्ति और कवि की विश्वजनीन संवेदना का भी इजहार करती है-
भूखे लोगों की आंखों में
जमी हुई चुप्पी
यह चुप्पी
यह ख़ामोशी
बहुत बोलती है
इसकी भाषा बहुत डरावनी है
विश्वरंजन का कवि भेंटवार्ता में खुले मन से स्वीकारता है कि 'मुक्तिबोध मेरे प्रिय कवि हैं। आज भी मैं उनके पास बार-बार जाता हूं।....जब आप मुक्तिबोध दृष्टि से चीज़ों को देखेंगे तो चीज़ों को उद्घाटित करने के लिए कविता को बहुत बार फ़ैन्टेसी शिल्प का सहारा लेना एक गहरी अनिवार्यता हो जाती हैं।' इस अनिवार्यता का प्रमाण उनकी कई रचनाएं देती है-
नये अन्दाज़े बयां के साथ
और तभी सहसा
तिलिस्मों को फाडक़र
दूर बहुत दूर से आती है
एक भूखे बच्चे की रोने की आवाज़
और मैं भागता हूं वापस


हताश/ क्योंकि मैं जानता हूं
लाल बत्तियों वाले शहर से
उसकी मां
फिर नहीं लौटी है आज ।
भूख, अंधेरा, तिलिस्म, रोशनी, स्वप्न, सीढिय़ां, परतों का उखडऩा, डर, रात सन्नाटा, ख़ामोशी आदि अनेक प्रतीकात्मक प्रयोगों से मुक्तिबोध का प्रभाव आभासित है। प्रभाव हर छोटे-बड़े रचनाकारों के ऊपर देखा जा सकता है, जो अपने किसी-न-किसी प्रिय साहित्यकारों से अभिप्रेरित होते हैं। कवि विश्वरंजन की कविता के बारे में भी यही सत्य है। इनका अपना अन्दाज़े बयां है।
कवि विश्वरंजन जनतंत्र के संवेदनशील नागरिक और महत्वपूर्ण सरोकारी अधिकारी भी है। ऐसे अधिकारी हैं, जहां संवेदनशीलता का दम घुटना ही घुटना है, किन्तु उनका कवि अपनी संवेदनशीलता पर उनके अधिकारी को कभी हावी होने देता। वह दोनों में भरसक ताल-मेल बिठाता हुआ अपनी प्रतिपक्ष वाली भूमिका को बराबर निभाता है। लेखक अपने मन्वत्य और साहित्य की नियति के अनुरूप रचनाधर्मिता का निर्वाह करता है। 'रात की बात' या 'वह लडक़ी बड़ी हो गई है' और मेरी बच्ची डरकर रोने लगती है, बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कुछ चन्द कविताएं इस संग्रह की ऐसी रचनाएं हैं, जो कवि की संवेदनशीलता और मन्तव्य के दस्तावेज़ हैं। दूसरी विधाओं में तो रचनाकार अलग से कुछ बोल भी लेता है, किन्तु कविता में उसे ऐसा अवसर प्राप्त नहीं होता। कविता ही बोलती है।
कवि अपने समय की वास्तविकताओं, विसंगतियों, विद्रपताओं, सपने, अन्तर्विरोधी-सबसे रु-ब-रु होता है, और कलात्मक संश्लिष्टता के साथ उन्हें अभिव्यक्त करता है। भाषा का बड़ा सतर्क और संतुलित प्रयोग के द्वारा कविता वह सब कुछ कह देती है, जो वह कहना और गुंजाना चाहती है-
इस देश के राज्य मंच पर


यही तो हो रहा है पचास वर्षों से


हाशिये के उस पार के लोग देख रहें हैं


और तालियां बजा रहे हैं
रचनाकार की संवेदना इलेक्ट्रानिक मीडिया से ज़्यादा संवेदनशील होती है । मीडिया तो दृश्य को ही पकड़ पाता है जबकि कवि की संवेदना अदृश्य और भविष्य को भी ऋ षि दृष्टि से देख लेती है। कवि भी ऋ षि होता है । आर-पार देख लेता है। देखकर चुप नहीं रहता। वह चुप्पी साध नहीं सकता।
अपने या किसी के विरुद्ध खड़ा होना प्रकारान्तर से उससे प्रेम करना है। मां बेटे-बेटियों से स्नेह करती है तभी तो वह उन्हें ताना दे पाती है। निंदक भी अपने पात्र से किसी-न-किसी रूप में जुड़ाव रखता है तभी तो उसकी निंदा करता है, अन्यथा दुनिया में तो बहुत सारे लोग हैं, जो ग़लत काम करते होंगे, उनकी निन्दा वह क्यों नहीं करता? इस संग्रह की कविताओं में जो विरोध, जो आक्रोश, जो व्यंग्य आदि अभिव्यक्त हुए हैं, वे सब मानवीय प्रेम के ही विविध रूप हैं। निराला के 'राग विराग' में निहित अध्यात्म की नाईं विश्वरंजन का भी यह अध्यात्म है-'साधो प्रेम में ही सब कुछ संभव है।' मनुष्य से प्रेम करो। मनुष्य बनो। ढाई आखर प्रेम का पढ़ो ।
रामहि केवल प्रेम पियारा ।


जानि लेहु जो जाननि हारा ।।
एक नई पूरी सुबह फिऱाक़ गोरखपुरी के नाती और कवि विश्वरंजन के रूप में किसी समकालीन हस्ताक्षर के गद्य और पद्य कर्म की तहकीकात करती किताब है। संपादक जयप्रकाश मानस की पैनी दृष्टि रचनाओं के चयन में, खरी साबित हुई है।
पता: कुशालपुर, रायपुर, छत्तीसगढ़

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