इलेक्ट्रॉनिक चैनल के मुख्य संपादक से मैंने ऐसे ही पूछ लिया-‘आपने
मिडल ईस्ट में राकेटों की वर्षा खूब दिखाई; पर आप
आकाशगंगा में छिटकते- टूटते- वर्षा से बरसते सितारों
को खबर क्यों नहीं बनाते? कभी ट्यूलिप के खिलते फूलों
और कचनार की कलियों के सौंदर्य से दर्शकों को क्यों नहीं महकाते?’ वे हँसने लगे-‘ यह सब तो कविता की दुनिया के सितारे
हैं । चैनल कभी एक झलक दे भी जाए तो न्यूज़ हंट नहीं
बनते।’
मैंने फिर सवाल किया-‘पर जब शनि और मंगल आमने- सामने भयानक ग्रह योग
बनाते हैं, तब तो आप सुबह से शाम ....।’
ठहाका लगाते वे बोले-‘ हम लोगों के मनोविज्ञान को समाचारों
का बाजार क्यों न बनाएँ ? खगोलीय घटना है। भय के
मनोविज्ञान से सभी को सचेत तो करना होगा ना?’
मेरा सवाल फिर जोर मारने लगा-‘इन
घटनाओं को दिखाते समय कुछ ऐसे दृश्य और प्रभाव खड़े कर देते हैं कि....।’ वे बोले-‘अरे भाई, चैनल
की दुनिया कोई किसी कवि की अनुभूति तो है नहीं कि किताब में छपकर आ जाए और परम
तुष्टि। अब तो किताब छपने से पहले ही कवर पेज की नुमाइश से दर्शकों की आँखों की
रौशनी पहले बढ़ाते हैं। लाइक और कमेंट्स में ।’
मैंने कहा-‘आखिर खुद कवि ही अपनी किताब की सोशल
मीडिया पर नहीं नचाएगा तो बिकेगी कैसे?’
चेहरे की
मुस्कान और जबान के समीकरण में वे बोले-‘जनाब! कितना जरूरी
है! अब आत्मा की आवाज की जगह बॉडी लैंग्वेज कितनी असरदार होती है? समाचार वाचक-वाचिका की केश- राशि के साथ उँगलियों- हथेलियों के साथ नाचती
हुई आँखों से भी अपना बाजार बनता है।’
मैंने कहा-‘ जरूरी है।’
वे बोले-‘यही तो मैं कह रहा हूँ । संतों की
कथाएँ कितनी सादी होती थीं। जब से सारे वाद्ययंत्र
गायकी के साथ आ जाते हैं , तो बात ही कुछ और! कितने
सादे से लगते थे ज्योतिषी। अब उनके फेशियल, रत्न- हार ,ज्योतिषाना वेशभूषा के कट्स देखिए। और दूर क्यों जाएँ ? गरीबी और मजदूरी पर कविता सुनानेवाला कवि भी कुछ ऐसे- वैसे ही नहीं आता।
लकदक दिखकर ही भूख की व्यथा गा जाता है।’
मैंने कहा-‘आपने तो सारे चैनल को हाथहिलाऊ मुद्राओं का
थिएटर बना दिया है? मगर आजकल युद्धों के समाचारों में
भी आपके वीडियो राग कोमल गांधार और भीमपलासी को छोड़कर मालकौंस को भी युद्धकौंस
बनाते जा रहे हैं ।’
वे बोले-‘अरे भाई आप तो महासागर में छुपी
परमाणु पनडुब्बी की तरह मुझसे सारे छुपे अंदाज उगलवा रहे हैं ।’
मैंने कहा-‘ मन में सवाल तो आते हैं। अमेरिकी बेड़ा प्रशांत महासागर में पहुँचने के लिए लहरों को चीरना शुरू ही करता है कि राग मालकौंस युद्धकौंस में आग उगलने लगता है । मिसाइलें सप्तम आलाप के बजाय इक्कीसवें सुर में लंबे समय तक हूँ ..ऊँ... ऊँ ...ऊँ अलापने लगती है। राग हिंडोल भी फीका पड़ जाता है। कई कई टैंकों के साथ राग टेंकेश्वरी का आलाप। परमाणु युद्ध की आशंकाओं में आकाश में काले स्याह बादलों के बीच राग ज्वालेश्वरी की टंकार बजने लगती है। सुपर सोनिक का घड़घड़ाट राग। कभी राग राफैली। दुनिया भर के धड़ामधड़ूम रागों का महानाद। और थोड़ी सी सफलता मिले तो राग जयजयवंती ।
हँसते हुए मेरी बात काट दी-
‘अरे आप तो हमारे लिए नए संगीत राग रच रहे हैं भाई ! बहुत खूब ।आप
भी जानते हैं कि महाभारत में युद्ध की शस्त्रलीला ने कितना दर्शकों का कितना बड़ा
बाजार बना दिया। चलो, वो तो ऐतिहासिक ग्रंथ था आस्था और
न्याय का ।पर हमारे पास तो बाजार है। आप कितना ही कोसें, टीआरपी
को लेकर ।लेकिन हवाओं में सनसनी न हो और टी वी के दंगलों में राग गुत्थमगुत्था न हो तो दर्शक आएगा ही क्यों ?’
मैंने भी तीर मार दिया –‘फिर तो इन
दंगलों में भी जब वक्ता का सुर पंचम -सप्तम में हो तो तबले पर थाप, हद से बाहर हो तो नगाड़े पर डंका और जब बात हाथापाई पर आ जाए तो राग तुरही
....!’
वे बोले –‘भाई, जरा
व्यंगैले हो रहे हो? थोड़ा ...!’
मैंने कहा-‘चलिए
छोड़िए मेरा अंतिम सवाल है । जब घटनाओं की सनसनी नहीं होती तो चैनलों के उठाव के लिए
क्या ...।
वे बोले-’ आजकल यह दिक्कत नहीं होती । कहीं न कहीं से चैनलों की भूख को बढ़िया सा परोसा मिल ही जाता है ।’
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