-शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
सूखे पत्तों पर सोते हैं
धुँधले उजले दिन।
नई
सुबह ने केवल बदला
है
अपना परिधान,
उसने पढ़ा नहीं है अब तक
गणित, जीवविज्ञान,
नहीं
निकाल रही है सुविधा
चुभी
पैर में पिन।
जहाँ
गरीबी के पाँवों में,
बँधी
हुई है छान
और
उठाकर ले जाती हैं
सूदखोरियाँ
धान,
ऐसी
लचर व्यवस्था पर है,
लानत, छी-छी,
घिन।
मौलिक
अपने अधिकारों को
नहीं
सकी जो जान,
ऐसे
साइलेंसर बोली की
गई
कहाँ है तान,
हल्की
जलन और पीड़ा का
लुप्त
हुआ क्या छिन।
लोकतंत्र
के सजग पहरुए,
नहीं
सके यह सोच,
आम
आदमी के जीवन में,
कहाँ- कहाँ है
लोच,
बौराहिन
लछमिनिया जीवित
दाना-दुनका
बिन।
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