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Sep 1, 2022

किताबेंः स्त्री संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़

  - भावना सक्सैना

यादों के झरोखे (उपन्यास): लेखिका - श्रीमती सुदर्शन रत्नाकर, प्रकाशन- 2021 (द्वितीय संस्करण), मूल्य : 300 /- पृष्ठ: 136, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, जे-19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110-059

स्त्री विमर्श समाज और साहित्य का अत्यधिक चर्चित विषय रहा है। परिवर्तन हुए हैं, हो रहे हैं। मंच सज रहे हैं नारे भी लगातार गूँज रहे हैं फिर भी नारी की स्थिति के सुधार में कोई विशेष अंतर नहीं है। और यह कारण पर्याप्त है पच्चीस वर्ष पूर्व लिखे स्त्री-प्रधान उपन्यास  यादों के झरोखे के पुनर्प्रकाशन के लिए। हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ कृति पुरस्कार व श्रेष्ठ महिला रचनाकार तथा वर्ष 2019 का महाकवि सूरदास जीवन साहित्य साधना सम्मान प्राप्त प्रतिष्ठित साहित्यकार श्रीमती सुदर्शन रत्नाकर जी का उपन्यास यादों के झरोखे का द्वितीय संस्करण हाथ में आया, तो मन में सहज प्रश्न उठा कि पच्चीस वर्ष पुरानी कहानी आज कितनी प्रासंगिक होगी! पढ़ने के पश्चात् निःसंकोच कह पा रही हूँ कि संवेदनाओं को झकझोरती यह मर्मस्पर्शी कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी पच्चीस वर्ष पहले थी;  क्योंकि हम आज भी उसी समाज का हिस्सा हैं, जहाँ स्त्री लगातार अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। यह कहना निराशावादी लग सकता है कि हमारे समाज में आज भी हर मोर्चे पर अधिकतर स्त्रियों को स्वयं को साबित करना पड़ता है, चाहे वह समाज हो, घर-परिवार हो अथवा कार्यालय;  किंतु सुधार की दिशा में चलने का पहला कदम समस्या को पहचानना होता है, अतः आवश्यक है कि हम अपने समाज की इस समस्या को पहचानें और कोरे आडंबर व नारेबाजी से आगे निकलकर ठोस कदम उठाएँ। सुधार की दिशा में शिक्षा महत्त्वपूर्ण है और सुदर्शन रत्नाकर जी बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने बहुत सहज व सुंदर ढंग से इस तथ्य को रेखांकित किया है कि स्त्री को यदि अपनी समस्याओं से उबरना है, तो उसका एकमात्र हथियार शिक्षा ही हो सकती है। शिक्षा न सिर्फ व्यक्तित्व में निखार लाती है;  अपितु स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी अग्रसर करती है। एक नया वितान खोलती है जहाँ आत्मनिर्भरता व आत्मगौरव का साथ मिलता है।

शिक्षा का महत्त्व और स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती यह कहानी एक उपेक्षित पत्नी और उसकी पुत्री की है, जिसे पुत्री के शब्दों में फ्लैश बैक में कहा गया है अतः यादों के झरोखे शीर्षक सटीक है इस कथा के लिए। कहानी नई नहीं है, हर गाँव, कस्बे या शहर में कहीं न कहीं कोई नीरा अपना अभिशप्त जीवन काट रही है, किंतु कहन अद्भुत है। कहानीकार की शैली, शुरू से आखिर तक पाठकों को बांधे रखती है। अर्से बाद हुआ कि किताब उठाकर एक बार बैठी तो लगभग डेढ़ घंटे बाद उसे समाप्त करके ही उठी। 

माँ, नीरा की मृत्यु के पश्चात बचपन से लेकर, वर्तमान तक की जो रील मुक्ता के मस्तिष्क में चल रही है उस का साक्षी होता हुआ पाठक उसके दर्द में डूबने-तिरने लगता है। वह महसूसता है- पितृ स्नेह से वंचित बालिका की पीड़ा को, उलझता है उसके अनसुलझे प्रश्नों में। अबोध बाल-मन की पीड़ा की अभिव्यक्ति ऐसी है कि पाठक का मन न जाने कितनी बार उस उपेक्षित पीड़ित बालिका को अंक में भरकर ढाढस बँधाने को करता है और फिर इस बात में सांत्वना ढूंढ लेता है कि नरेन अंकल हैं उसके पास।

स्त्री प्रधान इस उपन्यास में स्त्री के दुख का जितना कारण पुरुष है, उससे कहीं अधिक दूसरी स्त्री है जो पुत्र मोह में और उसे सही राह पर लाने के प्रयास में दूसरी स्त्री को जीवन भर तिलतिल मरने के लिए मजबूर करती है। एक बार नहीं बार-बार! बाद में यह ग्लानि अवश्य उस पर हावी हो जाती है, किंतु तब भी वह उस पहली स्त्री को उसके दर्द से रिहा नहीं कर पाती, नाम के बंधन से मुक्त नहीं कर पाती। समाज के भय का छद्म आवरण ओढ़े नीरा अभिशप्त जीवन ही जीती रहती है, जब तक कि नरेन का आगमन नहीं होता।

यह उपन्यास नीरा के संघर्ष, उसकी इच्छा, उसकी कामना, पीड़ा, छटपटाहट का जीवंत दस्तावेज है। नीरा का सहज रूप से चुप चाप सहते जाना पाठक को अखरता तो है, फिर भी अपनी संतान को बचाने के उसके दृढ़ निश्चय के प्रति नत-मस्तक हो जाता है। नीरा और नरेन का पावन संबंध भी पाठक को मुग्ध करता है।  इस संबंध की परिणति यदि दैहिक हो जाती,  तो शायद यह पाठक को उतना प्रभावित न करती, जितना उसकी पावनता करती है। लेखिका ने बहुत ध्यान से किसी भी पल इस संबंध को कमजोर नहीं पड़ने दिया है,  यह उनकी परिपक्व विचारधारा को दर्शाता है जिसकी समाज में आवश्यकता भी है और वह अनुकरणीय भी है।

इस कहानी के पुरुषों में जहाँ एक बहुत कमजोर है, तो दूसरा सबल चरित्र का है। स्त्री की ममता और कर्तव्यनिष्ठा का सजीव चित्रण करते हुए भी सुदर्शन रत्नाकर जी ने पुरुष के कमजोर व सबल पक्षों को बखूबी उभारा है। इस उपन्यास का यह दूसरा संस्करण है, पहला संस्करण 1996 प्रकाशित हुआ था, अतः अढाई दशक पहले के समाज का चित्रण है जिस पर गौर न किया जाए, तो कुछ बातें पाठक को हैरत में डाल सकती हैं जैसे कि घर में टेलीविज़न आदि सुविधाओं का न होना, स्टोव पर खाना पकाया जाना इत्यादि। लेकिन हैरान कर देने वाली बात यह है कि भौतिक वस्तुओं की उपलब्धता में जो परिवर्तन हुए हों, स्त्री की दशा उनसे कोई खास प्रभावित नहीं हुई है। मन कह उठता है कि महानगर में थोड़ा बहुत सुधार हुआ हो सकता है, भारत के गाँवों में स्थिति अभी भी बहुत नहीं बदली है वहाँ आज भी बहुत सी महिलाएँ दोयम दर्जे का जीवन जी रही हैं।

उपन्यास की भूमिका स्वरूप लिखे डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय जी के शब्द इसका समग्र रूपांकन करते हैं। वह कहते हैं – श्रीमती सुदर्शन रत्नाकर का उपन्यास, यादों के झरोखे इस दिशा में एक सार्थक पहल है। छोटे कैनवस पर थोड़े से पात्रों को लेकर सहज रूप में लिखा यह एक मार्मिक उपन्यास है। इस उपन्यास की विशेषता इसकी पठनीयता एवं प्रभावकारिता हैं। साधारण सी परिस्थितियाँ एवं घटनाएँ असाधारण एवं प्रभावक कैसे हो जाती हैं, यह उपन्यास इसका ज्वलंत प्रमाण है।

उपन्यास में ही दिए हिमांशु जोशी जी के शब्दों को उद्धृत करना भी समीचीन होगा। वे लिखते हैं- इस कथा में कहीं कोई उतार-चढ़ाव न होते हुए भी एक दाह है, एक दंश है जो निरंतर चुभता रहता है... कि कहानी, कहानी न रहकर दर्द का एक दस्तावेज बन जाती है। 

4 comments:

Anonymous said...

बहुत सुंदर सटीक समीक्षा लिखने के लिए हार्दिक आभार भावना सक्सेना जी। सुदर्शन रत्नाकर 🌹

Anonymous said...

यह उपन्यास दर्द का दस्तावेज़ है।लेखक को अद्भुत् लेखन व समीक्षक को हार्दिक बधाई व शुभ कामनाएं।

Anonymous said...

उपन्यास के द्वितीय संस्करण हेतु आदरणीया सुदर्शन रत्नाकर दीदी को अनंत शुभकामनाएँ 💐🌷

सुंदर, सार्थक समीक्षा के लिए समीक्षक को बहुत- बहुत बधाई।

सादर

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर समीक्षा।बधाई भावना जी