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Oct 3, 2021

लघुकथा- फ़र्क

कृष्णा वर्मा

दिन भर की थकी माँदी सिर के दर्द से परेशान ज़ोया घर लौटी।

आते ही माँ बरस पड़ी। रात के नौ बज रहे हैं, यह कौन सा वक़्त है दफ़्तर से घर लौटने का?

क्या हो गया अम्मी, बताया तो था आज बहुत ज़रूरी मीटिंग है। फिर आप तो जानती हैं कि पिछले कई दिनों से दिन-रात मैं इसी मीटिंग की तैयारी में जुटी हुई थी। अगर यह क्लाइंट कम्पनी को मिल गया, तो मेरी तरक्की कोई नहीं रोक सकता।

हाँ-हाँ सुन लिया। नौकरी की इजाज़त देने का यह कतई मतलब नहीं कि तुम वक़्त-बेवक़्त घर लौटो। लड़की की ज़ात हो, यूँ देर से आता देख कर लोग बातें बनाने में देर नहीं लगाएँगे।

यह सुन कर ज़ोया बिफर पड़ी- आपने कभी साहिल से भी पूछा कि रोज़ दफ़्तर से इतनी देर से क्यों घर लौटता है।

झल्लाकर अम्मी बोली- वह ऑफ़िस की ज़िम्मेदारी न निभाए क्या? और फिर वो लड़का है, देर रात भी घर लौटे तो कोई बातें नहीं बनाएगा।

भरे गले से- लड़का हो या लड़की ऑफ़िस में अपने काम की ज़िम्मेदारी सबको निभानी पड़ती है।

फिर लड़की होना कौन गुनाह है, जो हर वक़्त आप मुझे लड़की होने का अहसास दिलाती रहती हैं। पता नहीं माँ-बाप की सारी हमदर्दियाँ और प्यार लड़कों के लिए ही क्यों होता है, कहते-कहते फूट पड़ी।

तल्ख़ आवाज़ों को सुन कर अब्बू कमरे से बाहर आए। ज़ोया को समझाने के लहजे में बोले- ऐसा नहीं है बिटिया। औलाद बेटा हो या बेटी, माँ-बाप के लिए दोनों बराबर होते हैं। वह उनसे प्यार और हमदर्दी में कोई फ़र्क नहीं करते।

शिकायती लहजे में ज़ोया बोली- बस रहने ही दें अब्बू, यह तो कहने भर की बात है। अगर माँ-बाप ने उनके प्यार और हमदर्दी में फ़र्क न किया होता, तो क्या आज दोनों की रस्सी की लम्बाई बराबर न होती।

1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

बहुत बढ़िया। बधाई