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Oct 3, 2021

जीवन दर्शन- प्रार्थना से प्रेम

 - विजय जोशी  ( पूर्व ग्रुप महाप्रबंधकभेलभोपाल (म. प्र.)

उल्टा नाम जपत जग जाना

वाल्मीकि भये ब्रम्ह समाना

 प्रार्थना एक अद्भुत समाधान है क्षण संकट के हों या फिर अन्यथा। दरअसल बाहरी तौर पर जब हम ईमानदारी पूर्वक ईश्वर की आराधना करते हैं तो आंतरिक तौर पर स्वयं से साक्षात्कारआत्मा का अवलोकन। चिंता से सर्वथा मुक्त चिंतन। निर्मल मन से मनन। पर इसके लिये चाहिये आत्मचिंतन की चाहत। और इसमें किसी आडंबर का स्थान नहीं फिर भले ही वह हो शब्दों का या दिखावे का। ऐसी किसी भी चीज की कोई आवश्यकता ही नहीं। प्रार्थना जितनी सरलसहज उतनी ही सफल।

चर्च में हर दिन एक नन्हीं बच्ची ईश्वर के सम्मुख खड़ी हो दोनों हाथ जोड़े बंद आँखों से कुछ शब्द बुदबुदाने के पश्चात आँखें खोलकर ईश्वर से मुस्कान सहित विदा लिया करती थी। इस क्रम को लगातार घटित होते देख पादरी के लिये अब यह कौतूहल का विषय था कि इतनी छोटी सी बच्ची को प्रार्थना का भावार्थ और धर्म का ज्ञान भला कैसे हो सकता है।

सो एक दिन अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिये वे समय पूर्व चर्च पहुँचे तथा बच्ची के प्रवेश करते ही पूछ लिया – मेरी बच्ची मैं तुन्हें हर दिन यहाँ आकर आँखें बंद कर कुछ कहते हुए सुनता हूँ। भला तुम क्या करती हो ईश्वर के समक्ष।

बच्ची ने कहा – फादर मैं प्रार्थना करती हूँ।

पादरी ने संशय से पूछा – तुम्हें कोई प्रार्थना याद भी है

नहीं फादर – बच्ची बोली

अब तक तो पादरी जो और उत्सुक हो चुके थे बोले – तो फिर तुम आँखें बंद करके क्या करती हो

 बच्ची ने मासूमियत के साथ कहा – फादर मुझे तो कोई प्रार्थना याद नहीं हैकिंतु चूंकि वर्णमाला के ए से लेकर ज़ेड तक सब शब्द याद हैंसो मैं उन्हें ही पाँच बार दोहराती देती हूँ और फिर ईश्वर से कहती हूँ कि हे ईश्वर मुझे तुम्हारी कोई प्रार्थना नहीं आतीपरंतु यह भी ज्ञात है कि कोई भी प्रार्थना वर्णमाला के इन शब्दों से बाहर नहीं हो सकतीइसलिये आप उन्हें खुद ही अपनी इच्छानुसार पुनर्व्यवस्थित कर लीजिये। यही आपसे विनती है। और यह कहते हुए वह प्रसन्नतापूर्वक कूद फांद करती हुई चर्च से बाहर चली गई।

पादरी यह सब सुनकर हक्का बक्का खड़े रह गए और उस दिशा में लंबे समय तक नि:शब्द ताकते रहे जिस ओर वह बच्ची गई थी। वे इतनी छोटी सी बच्ची की इतनी गूढ़ बात को सुनकर भावुकता के सागर में प्रवाहित हो रहे थे। उनकी आँखें भर आईं थीं।

बात बहुत सरल है। हम भी जब प्रार्थना रत होते हैं तो क्या हमारे मन मेंहमारे शब्दों में ईश्वर के प्रति वह भाव समाहित होता है जो उस बच्ची के मन में था। ईश्वर के प्रति शर्तहीन वह भाव जो उस ऊँचाई तक पहुँच सके। याद कीजिये सप्तर्षियों ने जब वाल्मीकि को डाकू धर्म छोड़कर ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण हेतु प्रेरित करते हुए राम नाम के जप के दीक्षा दी थी तो वाल्मीकि ने भी अज्ञानतावश अनजाने में पूरी श्रद्धा सहित राम नाम का उल्टा उच्चारण करते हुए जाप आरंभ कर दिया था और कालांतर में अपने श्रद्धा भाव की प्रतीक स्वरूप आज तक याद किये जाते हैं।   

वाल्मीकि के जाप से मिला एक परिणाम

श्रद्धा होनी चाहिये चाहे गलत उच्चारो नाम

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023,

 मो। 09826042641, E-mail- vjoshi415@gmailcom

















36 comments:

सी आर नामदेव said...

प्रेरणा दायक कहानी सर ।

सादर प्रणाम सर आपको।

Unknown said...

सुंदर

Unknown said...

प्रेम के जगत में तो शायद शब्दों को थोड़ा लेन-देन हो जाए, मगर प्रार्थना के जगत में तो शब्द बिल्कुल ही व्यर्थ हो जाते हैं।🙏

देवेन्द्र जोशी said...

छोटी सी बच्ची अवश्य ही दिव्य अवतार होगी जो बड़े बड़ों को श्रद्धा का अर्थ इतनी आसानी से समझा दिया। आशा है आपके इस दृष्टांत से आज भी कई लोग लाभान्वित होंगे।।आपका अभिनंदन।

Jj said...

प्रेरणा दायक लेख। बच्चे मन के सच्चे होते हैं, उनकी प्रवृत्तियों में जो भाव छिपा रहता है उसे समझने के लिए जोशी सर के जैसे हुदय का होना अतिआवश्यक है... सर इतनी अच्छे लेख के लिए अभिनंदन।

विजय जोशी said...

प्रिय मित्र, यदि नाम भी बता देते तो धन्यवाद देने का व्यक्तिगत रूप से धर्म निभा पाता. पसंदगी के लिये हार्दिक आभार

विजय जोशी said...

आदरणीय, हार्दिक आभार. काश हम बालपन की संवेदनशीलता कायम रखने का जतन हर दौर में कर पाते तो जीवन बहुत सुंदर और सार्थक हो जाता. आपकी पसंदगी मेरा मनोबल बढ़ाने का काम करती है. सो सादर साभार.

विजय जोशी said...

सही कहा मौन की भाषा अधिक महत्वपूर्ण एवं मुखर होती है. हार्दिक धन्यवाद

विजय जोशी said...

प्रिय चंद्र, हार्दिक धन्यवाद. सस्नेह

विजय जोशी said...

हार्दिक धन्यवाद

Sorabh khurana said...

अति सुंदर लेख एवम पूर्णतः सत्य।
सर झुकाने से नमाजे( प्रार्थना ) अदा नही होती,
दिल झुकाना पड़ता है इबादत के लिए।

Hemant Borkar said...

साहेब ये शिक्षाप्रद घटना है । बहुत ही सरल तरीके से वर्णन किया है आपने। unconditional prayer. Regards and unconditional love to you. सादर चरण स्पर्श साहेब

प्रेम चंद गुप्ता said...

आदरणीय जोशी जी को सादर अभिवादन।
लेख पढ़कर विवेकानंद द्वारा कही हुई एक कहानी याद आ गई।
कुछ पादरी लोगों को प्रार्थना और प्रार्थना की सही पद्धति सिखाने के लिए निकले । एक टापू पर केवल तीन व्यक्ति रहते थे। वे नाव द्वारा उनके पास पहुंचे। उन्हें प्रार्थना और प्रार्थना करने की सही पद्धति सिखाई और लौट पड़े। थोड़ी दूर चले होंगे कि पीछे से "फादर जरा रुकना" की आवाज आई। उन्होंने पलट कर देखा तो वे तीनों व्यक्ति पानी पर दौड़ते हुए चले आ रहे थे। उन्होंने ने आश्चर्य से इस दृश्य को देखा और रुक गए। तब तक वे तीनों उनके पास पहुच गए, और हांफते हुए बोले " फादर हम आपकी सिखाई प्रार्थना भूल गए। एक बार फिर से बात दें।" पादरी गण आश्चर्य से उनको देखते रह गए और फिर बोले "आप लोग जो प्रार्थना करते हैं वही सही है। आप उसी को ही करते रहें।"
वास्तव में यह एक तकनीकी शिक्षा है। अहंकार एक ऐसा तत्व है जिससे कोई भी प्राणी स्वयं को पहचानता है। शिशु को अपनी पहचान नहीं होती क्योंकि उसमें अहंकार का भाव अभी विकसित नहीं हुआ रहता है। आयु के साथ इस अहंकार तत्व का विकास होता है। वयस्क होने तक अहंकार पर्याप्त विकसित हो जाता है। इसका सविस्तार विवरण मनोविज्ञान में प्राप्त होता है।
एक वयस्क व्यक्ति जब अहंकार का त्याग करता है तो वह पूर्ण विकसित, आध्यात्मिक, हो जाता है। यह एक साधना है जिसका सविस्तार वर्णन योग शास्त्र में प्राप्त होता है। अहंकार मुक्त व्यक्ति उचित-अनुचित, सही-गलत, अच्छा-बुरा आदि द्वन्दों से ऊपर उठ जाता है। और इस प्रकार उसका प्रत्येक कर्म निष्काम कर्म हो जाता है जिसका वर्णन श्रीमद्भागवत गीता में प्राप्त होता है।
अहंकार का परित्याग सहज नहीं है। क्योंकि इसके साथ हमारी पहचान जुड़ी है। और हम अपनी पहचान खोना नहीं चाहते। यही सांसारिकता है। अहंकार समाप्त होने के बाद संसार समाप्त हो जाता है। जिसे आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने "एकोहम द्वितीयोनास्ति" सूत्र में बताया है।
आपका आलेख पढ़ कर बहुत सी बातें याद आ गई। आप धन्य है। आपकी लेखनी धन्य है।
बहुत बहुत साधुवाद।

Unknown said...

ईश्वर केवल आपकी मन की गति और श्रद्धा के अनुसार ही फल देते हैं। मन चंगा तो कठौती में गंगा बाली कबीर दास जी की कहावत चरितार्थ होती है।

Kishore Purswani said...

बहुत ही अच्छी सी सीख ईश्वर सिर्फ श्रद्धा देखते हैं श्रद्धालु उनको जैसे भी याद करें उनकी इच्छा पूरी होती है

samaranand's take said...

बहूत सुंदर और गहरा चिन्ता।

विजय जोशी said...

हार्दिक आभार आदरणीय। साभार

विजय जोशी said...

प्रिय भाई किशोर, महत्व तो भाव का है, रूढ़िवाद का नहीं। हार्दिक आभार

विजय जोशी said...

मन का ईश्वर से मेल ही तो सर्वोपरि है। हार्दिक धन्यवाद

विजय जोशी said...

प्रिय हेमंत, प्रार्थना सच्चे मन से हो तो कभी व्यर्थ नहीं जाती। सस्नेह

विजय जोशी said...

प्रिय सौरभ, इबादत की इबारत समझ में आ जाये तो जीवन सफल हो जाता है। सस्नेह

Unknown said...

श्रद्धा सर्वोपरि है

विजय जोशी said...

बात तो बिल्कुल सर्वोपरि है। सादर

विजय जोशी said...

आदरणीय गुप्ताजी,
आप तो सचमुच बहुत विद्वान हैं। यह मुझे ही नहीं साहित्य जगत में सबको ज्ञात है। पादरी का धैर्य और संवाद सचमुच बहुत श्रद्धास्पद है। एक नई बात पता चली।
धर्म कोई रूढ़िवाद नहीं है, अपितु मन की श्रद्धा का भाव जो केवल भक्ति ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र के लिये प्रासंगिक है। यहां अहंकार का कोई स्थान नहीं।
आप इतने मनोयोग से पढ़ते ही नहीं वरन अपनी बात भी साझा करते हैं, यह केवल प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि अनुकरणीय है। सो सादर साभार अंतर्मन से आभार।

Dil se Dilo tak said...

अद्भुत उदाहरण सर👌
निश्छल मन, श्रद्धा व प्रेम का अनुपम उदाहरण। ईश्वर इसी भाव को तो चाहता है, सोने के आभूषण व छप्पन भोग उस तक भले न पहुंचे, ये प्रेमाभाव आवश्यक रूप से पहुंचेगा। बधाई सर 💐💐
सादर अभिवादन सहित-
रजनीकांत चौबे

Unknown said...

मन से भावपूर्ण की गयी प्रार्थना ईश्वर के चरणों तक ही नही हृदय तक अवश्य पहुँचती है।
सुनीता यादव

Amulya Deota said...

Very good article and explains in simple way about prayer and it's significance

विजय जोशी said...

Prayer is a bridge between us and God. Thanks very much

विजय जोशी said...

बिल्कुल सही कहा. हार्दिक धन्यवाद

विजय जोशी said...

ईश्वर और क्या चाहे, पर यहां भी तो इंसान बेईमानी कर जाता है उससे जिसने बनाया. सस्नेह

Unknown said...

Very nice article. Profound message in simple words.

विजय जोशी said...

So nice of you. Thanks very much

देवेन्द्र जोशी said...

आपने बालपन की सरलता एवं सहजता अब तक अच्छी तरह से संभाल कर रखी है।

Kishore Purswani said...

बहुत ही सुंदर सीख बच्चे ने बड़ी मासूमियत से अपनी भावना व्यक्त की है काश हम सब भी इतने सरल व सहज बन सके

प्रेम चंद गुप्ता said...

आदरणीय,
धर्म को लेकर इतनी भ्रांतियां फैल गई हैं कि अब क्या कहूं। श्रीमद्भागवत गीता, जो हमारी संस्कृति का प्रमुख ग्रंथ होने के साथ साथ विश्व का सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत ग्रंथ है। इसके माध्यम से यहीं, हमारे ही देश में, कृष्ण घोषणा करते हैं " सर्व धर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणम व्रज। अहम त्वां सर्व पापेभ्य मोक्षयिष्यामि मा सूच।" लेकिन हमें इससे कोई लेना देना ही नहीं। हमें तो आडम्बर पसन्द हैं। क्या कहा जाय।
जो भी हो सुप्त चेतना को जगाने को जो सार्थक और सकारात्मक प्रयास आप कर रहे हैं। देख कर मन प्रफुल्लित हो जाता है। और विचार व्यक्त करने से स्वयं को रोक नहीं पाता।
वाचालता के लिये क्षमा पार्थी हूं।

विजय जोशी said...

हार्दिक आभार भाई किशोर।